यह मामला पटना उच्च न्यायालय में दायर सिविल रिट याचिका संख्या 5708/2021 से संबंधित है, जिसमें श्याम नंदन राय और अन्य याचिकाकर्ताओं ने केंद्र सरकार और विभिन्न सार्वजनिक क्षेत्र की उर्वरक कंपनियों के खिलाफ कानूनी राहत की मांग की थी। याचिकाकर्ता पहले हिंदुस्तान उर्वरक और रसायन लिमिटेड (Hindustan Urvarak and Rasayan Ltd.) के कर्मचारी थे, लेकिन कंपनी के बंद होने के कारण उनकी नौकरियां समाप्त हो गई थीं। उन्हें कुछ मुआवजा दिया गया था, लेकिन बाद में भारत सरकार ने 13 अगस्त 2004 के एक सर्कुलर के माध्यम से इन पूर्व कर्मचारियों को अन्य सरकारी संस्थानों में समायोजित करने का निर्णय लिया था।
याचिकाकर्ताओं ने 2009 में एक रिट याचिका (CWJC No. 11912/2009) दायर की थी, जिसमें अदालत ने उनके दावे की जांच करने का निर्देश दिया था। हालांकि, जब सरकार ने इस पर कार्रवाई नहीं की, तो याचिकाकर्ताओं ने 2011 में अवमानना याचिका दायर की। इस दौरान, सरकार ने कुछ आदेश जारी किए, लेकिन इसके बाद याचिकाकर्ताओं ने कई वर्षों तक कोई कानूनी कदम नहीं उठाया। अब, 2021 में, उन्होंने पुनः यह याचिका दायर कर अपनी पुनर्नियुक्ति की मांग की।
अदालत ने पाया कि याचिकाकर्ताओं ने 2011 से 2021 तक इस मामले पर कोई सक्रिय प्रयास नहीं किया और यह अनुचित देरी (delay and laches) का मामला बन गया। इस संदर्भ में, सुप्रीम कोर्ट के कई निर्णयों का हवाला दिया गया, जिनमें Jammu & Kashmir बनाम R.K. Zalpuri (AIR 2016 SC 3006) और राजस्थान राज्य बनाम सुरजी देवी (2022) 1 SCC 17 शामिल हैं। इन मामलों में स्पष्ट किया गया था कि अत्यधिक विलंब के कारण किसी भी याचिका को अस्वीकार किया जा सकता है, विशेष रूप से तब, जब याचिकाकर्ताओं ने कानूनी प्रक्रिया को समय पर आगे नहीं बढ़ाया हो।
इसके अलावा, अदालत ने यह भी पाया कि याचिकाकर्ताओं में से अधिकांश पहले ही 60 वर्ष की आयु पार कर चुके हैं, जिससे उनकी पुनर्नियुक्ति का कोई व्यावहारिक आधार नहीं रह जाता। अतः, अदालत ने इस याचिका को अनुचित विलंब और निष्क्रियता के आधार पर खारिज कर दिया।
इस फैसले से यह स्पष्ट होता है कि यदि किसी व्यक्ति को अपने अधिकारों की रक्षा करनी है, तो उसे उचित समयसीमा के भीतर कानूनी कदम उठाने चाहिए। यदि कोई व्यक्ति लंबे समय तक निष्क्रिय रहता है, तो बाद में न्यायालय उसकी याचिका को देरी और निष्क्रियता के आधार पर अस्वीकार कर सकता है, भले ही उसका दावा न्यायोचित ही क्यों न हो।
पूरा फैसला
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