अभिषेक आनंद बनाम भारत संघ मामला (सिविल रिट याचिका संख्या 6279/2018)
मूल विवाद और पृष्ठभूमि:
अभिषेक आनंद, जो पूर्व मध्य रेलवे में वरिष्ठ टिकट परीक्षक के पद पर कार्यरत थे और राजेंद्र नगर, पटना में तैनात थे। उनके खिलाफ एक विभागीय जाँच शुरू की गई और 4 सितंबर 2012 को रेल सेवक (अनुशासन एवं अपील) नियम, 1968 के नियम 9 के तहत एक आरोप पत्र जारी किया गया।
आरोप पत्र का आधार:
– मंडल रेल प्रबंधक द्वारा निरीक्षण के दौरान दुर्व्यवहार का आरोप
– यह भी कहा गया कि काउंसलिंग के बाद भी याचिकाकर्ता ने दुर्व्यवहार किया और काम में बाधा डाली
विभागीय कार्यवाही का क्रम:
1. याचिकाकर्ता ने आरोप पत्र का जवाब दिया
2. जाँच अधिकारी ने 19 मार्च 2014 को अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की
3. 27 नवंबर 2015 को दंड आदेश जारी किया गया, जिसमें:
– तीन साल के लिए दो वेतन वृद्धियाँ रोकने का दंड दिया गया
– यह दंड संचयी प्रभाव के साथ लागू किया गया
अपील का क्रम:
1. याचिकाकर्ता ने मंडल रेल प्रबंधक के समक्ष अपील की
2. 9 फरवरी 2016 को अपील खारिज कर दी गई
3. केंद्रीय प्रशासनिक न्यायाधिकरण में मूल आवेदन दायर किया गया
4. न्यायाधिकरण ने 28 नवंबर 2017 को आवेदन खारिज कर दिया
महत्वपूर्ण बिंदु और न्यायालय का विश्लेषण:
1. जाँच रिपोर्ट के संबंध में:
– जाँच अधिकारी ने पाया कि आरोप साबित करने का भार अभियोजन पक्ष पर था
– अभियोजन के गवाह संख्या 2,3,4 और 5 ने अपने बयान बदल दिए
– गवाहों ने कहा कि उन्होंने याचिकाकर्ता द्वारा कोई उपद्रव नहीं देखा
– रिपोर्ट तत्कालीन टी.आई. के प्रभाव में तैयार की गई थी
2. प्राकृतिक न्याय का उल्लंघन:
– जाँच अधिकारी की रिपोर्ट से असहमत होते समय याचिकाकर्ता को सुनवाई का अवसर नहीं दिया गया
– यह सुप्रीम कोर्ट के पंजाब नेशनल बैंक बनाम कुंज बिहारी मिश्रा (1998) मामले में स्थापित सिद्धांतों का उल्लंघन था
3. शराब के प्रभाव का मुद्दा:
– मूल आरोप पत्र में शराब के प्रभाव में होने का कोई आरोप नहीं था
– बाद में 21 जुलाई 2012 की संयुक्त रिपोर्ट में यह भाग जोड़ा गया
– न्यायालय ने माना कि ऐसे आरोप का सामना करने की अपेक्षा याचिकाकर्ता से नहीं की जा सकती
न्यायालय का निर्णय:
1. जाँच अधिकारी की रिपोर्ट से असहमत होते समय अधिकारी को:
– अपने अस्थायी कारण दर्ज करने चाहिए थे
– दोषी कर्मचारी को प्रतिनिधित्व का अवसर देना चाहिए था
2. प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत के अनुसार:
– अंतिम निर्णय लेने वाले अधिकारी को
– दंड देने से पहले
– आरोपित अधिकारी को प्रतिनिधित्व का अवसर देना आवश्यक था
3. निष्कर्ष:
– 27 नवंबर 2015 का दंड आदेश
– 9 फरवरी 2016 का अपील खारिज करने का आदेश
– 28 नवंबर 2017 का न्यायाधिकरण का आदेश
सभी को अवैध और अटिकने योग्य माना गया और रद्द कर दिया गया
कानूनी महत्व:
1. यह मामला स्पष्ट करता है कि:
– विभागीय जाँच में प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का पालन अनिवार्य है
– जाँच अधिकारी की रिपोर्ट से असहमति की स्थिति में उचित प्रक्रिया का पालन आवश्यक है
– मूल आरोप पत्र में न दिए गए आरोपों पर दंड नहीं दिया जा सकता
2. विभागीय कार्यवाही में महत्वपूर्ण सिद्धांत:
– आरोप स्पष्ट और निश्चित होने चाहिए
– कर्मचारी को पूरा बचाव का अवसर मिलना चाहिए
– निर्णय लेने वाले अधिकारी को निष्पक्ष होना चाहिए
3. प्रशासनिक कानून के दृष्टिकोण से:
– अधिकारियों को अपने अधिकार क्षेत्र में रहकर काम करना चाहिए
– नैसर्गिक न्याय के सिद्धांतों का पालन अनिवार्य है
– कर्मचारी के अधिकारों की रक्षा की जानी चाहिए
शिक्षाएं और निहितार्थ:
1. विभागीय अधिकारियों के लिए:
– जाँच प्रक्रिया में पारदर्शिता बनाए रखें
– आरोप पत्र में सभी आरोप स्पष्ट रूप से उल्लेखित करें
– जाँच अधिकारी की रिपोर्ट से असहमति पर उचित प्रक्रिया का पालन करें
2. कर्मचारियों के लिए:
– अपने कानूनी अधिकारों के प्रति जागरूक रहें
– विभागीय कार्यवाही में सक्रिय भागीदारी करें
– उचित कानूनी सहायता लें
3. न्यायिक प्रणाली के लिए:
– प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों की रक्षा करना महत्वपूर्ण है
– कर्मचारियों के अधिकारों की रक्षा सुनिश्चित करना आवश्यक है
– प्रशासनिक कार्यवाही में पारदर्शिता बनाए रखना जरूरी है
इस प्रकार, यह मामला विभागीय कार्यवाही में प्राकृतिक न्याय के महत्व को रेखांकित करता है और यह स्पष्ट करता है कि कैसे प्रशासनिक कार्यवाही में कर्मचारियों के अधिकारों की रक्षा की जानी चाहिए। यह निर्णय भविष्य में इसी तरह के मामलों में एक महत्वपूर्ण उदाहरण के रूप में काम करेगा।
पूरा फैसला पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें:
https://patnahighcourt.gov.in/viewjudgment/MTUjNjI3OSMyMDE4IzEjTg==-S4l5emIK38w=