यह मामला पटना उच्च न्यायालय में क्रिमिनल मिसलेनियस नंबर 7085 ऑफ 2015 के तहत दर्ज है, जिसमें याचिकाकर्ता जनक लाल महतो ने न्यायिक मजिस्ट्रेट, प्रथम श्रेणी, समस्तीपुर द्वारा पारित आदेश (16 दिसंबर 2008) को चुनौती दी। इस आदेश में शिकायत मामले संख्या 813/2007 के तहत याचिकाकर्ता और अन्य सह-आरोपियों के खिलाफ भारतीय दंड संहिता की धारा 302/34 के तहत हत्या का मामला दर्ज किया गया था।
मामले की पृष्ठभूमि
- घटना का सारांश:
14 अक्टूबर 2005 को याचिकाकर्ता और अन्य ने कथित रूप से शिकायतकर्ता राजेंद्र महतो के भांजे (प्रेमचंद लाल) पर हमला किया। अगले दिन, 15 अक्टूबर 2005 की सुबह, अस्पताल में इलाज के दौरान उनकी मृत्यु हो गई। - शिकायत और पुलिस जांच:
घटना के बाद शिकायतकर्ता ने समस्तीपुर पुलिस स्टेशन में मामला दर्ज किया। लेकिन पुलिस जांच के दौरान, गवाहों ने परस्पर विरोधाभासी बयान दिए:- कुछ गवाहों ने इसे आत्महत्या बताया, जिसमें प्रेम संबंध का उल्लेख किया गया।
- अन्य ने इसे एक मामूली मारपीट की घटना बताया, जिसके कारण पीड़ित ने अपमान महसूस कर आत्महत्या कर ली।
- पुलिस ने मामले की जांच में विलंब किया, और 1.5 साल बाद शव का विसरा परीक्षण कराया। इस परीक्षण में कोई जहर का प्रमाण नहीं मिला।
अदालती प्रक्रिया
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शिकायतकर्ता की आपत्ति:
शिकायतकर्ता ने पुलिस पर पक्षपात का आरोप लगाया और कहा कि जांच आरोपी पक्ष के पक्ष में की जा रही है। उन्होंने एक विरोध याचिका दायर की, जिसमें कहा गया कि वह मामले को आगे बढ़ाने के लिए गवाह पेश करेंगे। -
पुलिस रिपोर्ट:
31 जनवरी 2007 को पुलिस ने अपनी अंतिम रिपोर्ट में कहा कि हत्या की घटना सत्य है, लेकिन आरोपियों के खिलाफ लगाए गए आरोप असत्य हैं। -
न्यायालय का निर्णय:
- न्यायालय ने पुलिस की रिपोर्ट को स्वीकार कर लिया, लेकिन साथ ही विरोध याचिका के आधार पर मामले को आगे बढ़ाने की अनुमति दी।
- शिकायत मामले संख्या 813/2007 के तहत, न्यायालय ने शिकायतकर्ता के गवाहों की धारा 202 CrPC के तहत जांच की और आरोपियों के खिलाफ संज्ञान लिया।
याचिकाकर्ता की दलीलें
याचिकाकर्ता ने तर्क दिया कि:
- उपलब्ध साक्ष्य अपर्याप्त हैं और यह मामला न्यायालय की प्रक्रिया का दुरुपयोग है।
- मामले को सिर्फ शक के आधार पर आगे नहीं बढ़ाया जाना चाहिए।
न्यायालय का निर्णय
- मामले की विवेचना:
न्यायालय ने माना कि संज्ञान लेने के लिए सिर्फ संदेह पर्याप्त है, बशर्ते कि यह साक्ष्यों पर आधारित हो। - मेडिकल रिपोर्ट का प्रभाव:
- पोस्टमार्टम में कोई बाहरी चोट या जहर नहीं पाया गया।
- हालांकि, गवाहों के प्रत्यक्ष आरोपों को ट्रायल के दौरान सत्यापित किया जा सकता है।
- अंतिम आदेश:
न्यायालय ने कहा कि इस स्तर पर साक्ष्यों का मूल्यांकन नहीं किया जा सकता और मामले की सुनवाई आवश्यक है।
इसलिए, याचिका खारिज कर दी गई।
मुख्य बिंदु
- प्रारंभिक जांच में कमियां:
पुलिस ने विसरा परीक्षण में देरी की और पर्याप्त जांच नहीं की, जिससे शिकायतकर्ता का पुलिस पर पक्षपात का शक बढ़ा। - कानूनी प्रक्रिया का महत्व:
न्यायालय ने माना कि विरोध याचिका के आधार पर मामला चलाया जा सकता है, भले ही पुलिस ने आरोप खारिज कर दिए हों। - साक्ष्य का महत्व:
गवाहों के बयानों के आधार पर न्यायालय ने मामला आगे बढ़ाने को उचित ठहराया।
सारांश
यह मामला न्यायिक प्रक्रिया और पुलिस जांच की सीमाओं पर प्रकाश डालता है। न्यायालय ने यह स्पष्ट किया कि ट्रायल के दौरान सभी साक्ष्यों का मूल्यांकन किया जाएगा और प्रथम दृष्टया उपलब्ध साक्ष्यों के आधार पर मामला रद्द नहीं किया जा सकता।
इस फैसले से यह समझ में आता है कि किसी भी आपराधिक मामले में गवाहों के बयान और प्रक्रियात्मक न्याय महत्वपूर्ण हैं। यह निर्णय पुलिस जांच की गुणवत्ता और निष्पक्षता पर भी सवाल उठाता है।
पूरा फैसला पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें:
https://patnahighcourt.gov.in/viewjudgment/NiM3MDg1IzIwMTUjMSNO-p–ak1–fKqiAa6zc=