"CCDC पद से हटाए जाने का विवाद: वी.के.एस. विश्वविद्यालय बनाम डॉ. नीरज कुमार – न्यायालय का स्पष्ट निर्देश"

 


भूमिका

यह मामला वीर कुंवर सिंह विश्वविद्यालय, आरा और डॉ. नीरज कुमार के बीच चल रहे विवाद से संबंधित है, जिसमें CCDC (Coordinator, College Development Council) पद से हटाए जाने को चुनौती दी गई थी। पटना उच्च न्यायालय के इस फैसले में यह स्पष्ट किया गया कि विश्वविद्यालय के कुलपति को CCDC की नियुक्ति और हटाने का अधिकार प्राप्त है, और इसमें कुलाधिपति (राज्यपाल) की स्वीकृति की आवश्यकता नहीं है।


मामले की पृष्ठभूमि

डॉ. नीरज कुमार, जो वीर कुंवर सिंह विश्वविद्यालय में CCDC के पद पर कार्यरत थे, उन्हें कुलपति द्वारा पद से हटा दिया गया। इस निर्णय को उन्होंने उच्च न्यायालय में चुनौती दी, यह कहते हुए कि उन्हें न तो सुनवाई का अवसर दिया गया और न ही कारण बताया गया।

एकल पीठ ने इस याचिका को स्वीकार करते हुए इसे प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का उल्लंघन माना और आदेश को रद्द कर दिया। साथ ही यह भी कहा गया कि विश्वविद्यालय पुनः इस मामले पर उचित प्रक्रिया के तहत कार्यवाही कर सकता है। विश्वविद्यालय ने नए सिरे से कार्यवाही शुरू की और कार्यवाही से पहले डॉ. नीरज को पुनः उनके पद पर बहाल कर दिया गया।

लेकिन विवाद तब बढ़ा जब एकल पीठ ने अपने निर्णय के पैरा 34 में कहा कि अगर विश्वविद्यालय फिर से कोई कार्यवाही करे तो वह कुलाधिपति की स्वीकृति से ही होनी चाहिए। विश्वविद्यालय ने इसी हिस्से को Letters Patent Appeal No. 1240 of 2023 में चुनौती दी।


विधिक प्रश्न

इस अपील में मुख्य प्रश्न यह था कि क्या बिहार राज्य विश्वविद्यालय अधिनियम, 1976 की धारा 14-B के अंतर्गत कुलपति द्वारा CCDC को हटाने के लिए कुलाधिपति की स्वीकृति अनिवार्य है?


धारा 14-B का प्रावधान

यह धारा कहती है:

  • कुलपति किसी उपयुक्त शिक्षक को CCDC नियुक्त कर सकते हैं।

  • कार्यकाल तीन वर्ष का होगा, और दो वर्ष के लिए पुनः नियुक्त किया जा सकता है।

  • यदि आवश्यक समझा जाए, तो कुलपति किसी भी समय पद से हटा सकते हैं।

  • सेवा शर्तें और वेतन आदि विश्वविद्यालय के नियमानुसार तय होंगे।

इसमें कहीं भी कुलाधिपति की स्वीकृति की आवश्यकता का उल्लेख नहीं है।


अदालत की दलीलें और निष्कर्ष

  1. एकल पीठ द्वारा हस्तक्षेप का कारण
    अदालत ने स्पष्ट किया कि एकल पीठ ने पूर्व में केवल प्राकृतिक न्याय के उल्लंघन के आधार पर आदेश रद्द किया था और नए सिरे से कार्यवाही की अनुमति दी थी। लेकिन नए आदेश को चुनौती नहीं दी गई, बल्कि केवल कुलाधिपति की स्वीकृति वाली टिप्पणी को ही अपील में लाया गया।

  2. कुलपति का विशेषाधिकार
    अदालत ने स्पष्ट किया कि अधिनियम की धारा 14-B कुलपति को नियुक्ति और हटाने दोनों का अधिकार देती है। इस प्रक्रिया में कुलाधिपति की अनुमति की कोई आवश्यकता अधिनियम में नहीं है।

  3. उच्चतम न्यायालय के संदर्भित निर्णय
    दो पुराने फैसलों का हवाला दिया गया:

    • Commissioner of Police, Bombay vs. Gordhandas Bhanji (1952): किसी अधिकारिक निर्णय में अतिरिक्त अनुमोदन नहीं जोड़ा जा सकता यदि कानून में वह उल्लेखित नहीं हो।

    • Purtabpur Company Ltd. vs. Cane Commissioner, Bihar (1970): मुख्यमंत्री जैसे उच्च अधिकारी भी यदि किसी विधिक प्राधिकारी के अधिकार क्षेत्र में हस्तक्षेप करते हैं, तो वह अवैध होता है।

  4. धारा 9 और 10 का विश्लेषण
    इन धाराओं में कुलाधिपति और कुलपति के अधिकार निर्दिष्ट हैं, लेकिन इनमें भी यह नहीं कहा गया है कि CCDC को हटाने में कुलाधिपति की स्वीकृति आवश्यक है।


अंतिम निर्णय

मुख्य न्यायाधीश के नेतृत्व में खंडपीठ ने यह स्पष्ट किया:

  • एकल पीठ द्वारा कुलाधिपति की स्वीकृति की जो शर्त जोड़ी गई थी, वह विधिक रूप से गलत है।

  • कुलपति द्वारा नए सिरे से लिया गया निर्णय, यदि विवादास्पद है, तो उसका अलग से चुनौती दी जा सकती है, लेकिन उसे कुलाधिपति की स्वीकृति से जोड़ना गलत होगा।

  • अपील आंशिक रूप से स्वीकार की गई और केवल कुलाधिपति की स्वीकृति संबंधी भाग को रद्द किया गया।


निष्कर्ष

यह निर्णय विश्वविद्यालयों की स्वायत्तता को बनाए रखते हुए यह रेखांकित करता है कि प्रशासनिक निर्णयों में अनावश्यक राजनीतिक या उच्चस्तरीय अनुमोदन की बाध्यता न्यायिक आदेश द्वारा नहीं थोपी जा सकती, जब तक कि वह विधिक रूप से आवश्यक न हो। यह शिक्षण संस्थानों के प्रशासन में स्पष्टता और जवाबदेही सुनिश्चित करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण निर्णय है।

पूरा फैसला पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें:

https://patnahighcourt.gov.in/viewjudgment/MyMxMjQwIzIwMjMjMSNO-Kx--ak1--jjfaWHGo=