"सुपौल चुनाव ठेका मामला: हाई कोर्ट ने अनुच्छेद 226 के तहत हस्तक्षेप से किया इनकार"

“सुपौल चुनाव ठेका मामला: हाई कोर्ट ने अनुच्छेद 226 के तहत हस्तक्षेप से किया इनकार”

 

यह मामला एम/एस जमुरत लाल अब्दुल राशिद टेंट कॉन्ट्रैक्टर और उसके मालिक हारुन राशिद द्वारा दायर याचिका से संबंधित है, जिसमें उन्होंने बिहार सरकार और चुनाव आयोग के अधिकारियों के खिलाफ अपने बकाया भुगतान की मांग की थी। याचिकाकर्ताओं ने यह दावा किया कि उन्होंने 2019 के लोकसभा चुनावों के दौरान सुपौल जिले में चुनाव कार्यों के लिए टेंट, शामियाना, पाइप पंडाल, कुर्सी, टेबल, कालीन आदि की आपूर्ति की थी, लेकिन उन्हें उनके पूरे भुगतान की जगह बहुत कम राशि दी गई।


मामले की पृष्ठभूमि

याचिकाकर्ता एक ठेकेदार कंपनी है, जिसका मुख्यालय पटना में स्थित है। इस कंपनी ने 2019 के लोकसभा चुनाव के दौरान चुनावी प्रक्रियाओं के लिए विभिन्न वस्तुओं की आपूर्ति करने का ठेका प्राप्त किया था। याचिकाकर्ताओं का कहना है कि उनके द्वारा सभी आवश्यक वस्तुओं की आपूर्ति करने के बाद, उन्होंने कुल ₹1,99,16,043.57 का बिल प्रस्तुत किया। लेकिन प्रशासन ने केवल ₹20,66,161.00 का भुगतान किया और शेष ₹1,78,49,882.00 की राशि रोक ली गई।

याचिकाकर्ताओं ने इस कटौती को अवैध बताते हुए इसे चुनौती दी और अदालत से निर्देश देने की मांग की कि शेष राशि का भुगतान किया जाए।


उत्तरदाता (प्रशासन) का पक्ष

प्रशासन ने जवाब में कहा कि याचिकाकर्ता के अलावा अन्य दो एजेंसियों ने भी चुनाव कार्यों के लिए बिल प्रस्तुत किए थे:

  • एम/एस आशियाना टेंट हाउस, समस्तीपुर – ₹25,64,844.00
  • एम/एस शुभ लक्ष्मी टेंट हाउस, सहरसा – ₹8,67,024.00
  • याचिकाकर्ता का बिल – ₹1,99,16,043.57

प्रशासन को याचिकाकर्ता का बिल अत्यधिक लगा, इसलिए सुपौल जिले के जिला निर्वाचन अधिकारी के निर्देशानुसार एक पाँच-सदस्यीय समिति गठित की गई। इस समिति में शामिल थे:

  1. अतिरिक्त कलेक्टर, सुपौल
  2. उप निर्वाचन अधिकारी, सुपौल
  3. राज्य कर उप-आयुक्त, सुपौल
  4. कार्यपालक अभियंता, भवन निर्माण विभाग, सुपौल
  5. वरिष्ठ कोषाधिकारी, सुपौल

इस समिति ने सभी एजेंसियों के बिलों की जांच की और निर्धारित किया कि याचिकाकर्ता को केवल ₹20,66,161.00 की राशि ही दी जानी चाहिए। समिति की रिपोर्ट 6 नवंबर 2019 को जारी की गई थी। प्रशासन ने कहा कि यह कटौती बिलों की सत्यता जांचने के बाद की गई और यह पूरी तरह कानूनी थी।


याचिकाकर्ता का तर्क

याचिकाकर्ता के वकील, श्री गौरव गोविंद ने तर्क दिया कि:

  • समिति ने बिना याचिकाकर्ताओं को सुनवाई का अवसर दिए ही रिपोर्ट तैयार कर ली।
  • समिति की रिपोर्ट मनमानी थी और गलत तरीके से राशि में कटौती की गई।
  • याचिकाकर्ता ने अनुबंध के तहत अपना काम पूरा किया था और उन्हें पूरा भुगतान मिलना चाहिए।
  • अदालत को अनुच्छेद 226 के तहत इस अन्याय को ठीक करने के लिए हस्तक्षेप करना चाहिए और प्रशासन को शेष ₹1,78,49,882.00 की राशि का भुगतान करने का निर्देश देना चाहिए।

अदालत का विश्लेषण और निर्णय

पटना उच्च न्यायालय ने इस मामले का गहराई से अध्ययन किया और निम्नलिखित महत्वपूर्ण बिंदुओं पर ध्यान दिया:

1. क्या समिति की रिपोर्ट कानूनी थी?

  • अदालत ने स्पष्ट किया कि पाँच-सदस्यीय समिति एक प्रशासनिक निकाय थी, न कि कोई अर्ध-न्यायिक (quasi-judicial) संस्था।
  • प्रशासन द्वारा गठित ऐसी समितियाँ आमतौर पर सरकारी ठेकेदारों द्वारा प्रस्तुत बिलों की जांच करने के लिए बनाई जाती हैं।
  • अदालत ने माना कि यह कोई कानूनी निर्णय नहीं था, बल्कि केवल एक प्रशासनिक प्रक्रिया थी, जिससे याचिकाकर्ता को कोई कानूनी अधिकार नहीं मिला।

2. अनुच्छेद 226 के तहत मामला दर्ज करने का औचित्य

  • अदालत ने स्पष्ट किया कि अनुच्छेद 226 केवल तब लागू किया जा सकता है जब मामला सार्वजनिक कानून (public law) से संबंधित हो, न कि एक साधारण अनुबंध विवाद (contractual dispute) से।
  • सुप्रीम कोर्ट के फैसलों का हवाला देते हुए अदालत ने कहा कि अनुच्छेद 226 का उपयोग आमतौर पर धन के दावों के लिए नहीं किया जा सकता, जब तक कि इसमें कोई गंभीर सार्वजनिक हित शामिल न हो।
  • अदालत ने कहा कि याचिकाकर्ताओं के पास इस मामले में एक वैकल्पिक कानूनी उपाय उपलब्ध है – वे दीवानी अदालत (civil court) में दावा कर सकते हैं।

3. सुप्रीम कोर्ट के महत्वपूर्ण निर्णयों का संदर्भ

अदालत ने इस मामले में सुप्रीम कोर्ट के कुछ प्रमुख फैसलों का हवाला दिया:

  • जोशी टेक्नोलॉजीज इंटरनेशनल बनाम भारत सरकार (2015) – जिसमें स्पष्ट किया गया कि अनुच्छेद 226 का उपयोग आमतौर पर अनुबंध मामलों में नहीं किया जा सकता।
  • थानसिंह नथमल बनाम कर अधीक्षक (1964) – जिसमें कहा गया कि हाई कोर्ट केवल उन्हीं मामलों में हस्तक्षेप कर सकता है जहां सार्वजनिक हित या मौलिक अधिकारों का उल्लंघन हो।
  • सुगनमल बनाम मध्य प्रदेश सरकार (1965) – जिसमें कहा गया कि रिट याचिका केवल धन की वापसी के लिए दायर नहीं की जा सकती, बल्कि इसके लिए दीवानी मुकदमा उपयुक्त होगा।
  • स्मृति गुनवंत कौर बनाम भटिंडा नगर निगम (1969) – जिसमें स्पष्ट किया गया कि यदि कोई मामला जटिल तथ्यात्मक विवादों पर आधारित है, तो इसे दीवानी अदालत में सुना जाना चाहिए।

4. अदालत का अंतिम निष्कर्ष

  • अदालत ने यह पाया कि याचिकाकर्ताओं का दावा पूरी तरह से एक वित्तीय विवाद है, जो अनुबंध से संबंधित है।
  • याचिकाकर्ताओं ने अनुबंध के आधार पर अपना पैसा मांगा है, लेकिन अनुच्छेद 226 के तहत यह मामला सुने जाने योग्य नहीं है।
  • अदालत ने कहा कि यदि याचिकाकर्ताओं को लगता है कि उनका पैसा अवैध रूप से रोका गया है, तो उन्हें दीवानी अदालत में मामला दर्ज करना चाहिए।
  • अदालत ने इस आधार पर याचिका खारिज कर दी

न्यायालय का अंतिम आदेश

  1. याचिकाकर्ताओं की याचिका खारिज की जाती है
  2. याचिकाकर्ताओं को अनुबंध विवाद हल करने के लिए उचित कानूनी मंच (जैसे दीवानी अदालत) का सहारा लेने की स्वतंत्रता होगी
  3. इस मामले में कोई न्यायालयीय खर्च नहीं लगाया गया

निष्कर्ष

यह मामला एक ठेकेदार कंपनी और सरकारी अधिकारियों के बीच भुगतान को लेकर हुए विवाद से संबंधित था। अदालत ने इसे केवल एक अनुबंध विवाद माना और कहा कि इसे दीवानी अदालत में सुलझाया जाना चाहिए। अनुच्छेद 226 के तहत हस्तक्षेप करने से इनकार करते हुए न्यायालय ने याचिका खारिज कर दी और याचिकाकर्ताओं को अन्य कानूनी रास्ते अपनाने की सलाह दी।

पूरा फैसला
पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें:

https://patnahighcourt.gov.in/viewjudgment/MTUjNjUyMCMyMDIxIzEjTg==-f0YBt2–ak1–qUic=

Abhishek Kumar

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Recent News