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बाढ़ राहत सामग्री आपूर्ति विवाद: न्यायालयीय समझौता प्रक्रिया की सीमाएं और कानूनी धोखाधड़ी के आरोपों का न्यायिक विश्लेषण

 

मामले की पृष्ठभूमि और मुख्य तथ्य

यह निर्णय पटना उच्च न्यायालय के न्यायाधीश श्री अरुण कुमार झा द्वारा दिया गया है, जो एक जटिल वित्तीय विवाद से संबंधित है। मामला 2004 में उत्तर बिहार में आई विनाशकारी बाढ़ के दौरान राहत सामग्री की आपूर्ति से जुड़ा हुआ है।

याचिकाकर्ता: मेसर्स संतोष प्रिंटिंग प्रेस और उसके मालिक संतोष कुमार झा, जो मधुबनी जिले के निवासी हैं लेकिन वर्तमान में पटना में रह रहे हैं।

प्रतिवादी: बिहार राज्य सरकार, जिला मजिस्ट्रेट पटना, मुख्य सचिव, आपदा प्रबंधन विभाग के सचिव, भारत संघ, बिहार राज्य लघु उद्योग निगम और भारतीय वायु सेना सहित कई सरकारी संस्थाएं।

वित्तीय दावे की प्रकृति

याचिकाकर्ताओं ने कुल ₹1,04,62,52,033.60 की राशि का दावा किया है, जिसमें शामिल है:

  • मूल राशि: ₹13,17,08,762
  • ब्याज दर: 18% प्रति वर्ष + विलंबित भुगतान पर 4% प्रति वर्ष
  • कुल ब्याज (16.12.2014 तक): ₹91,45,43,271

यह दावा 2004 की बाढ़ के दौरान विभिन्न प्रकार के खाद्यान्न और अन्य राहत सामग्री की आपूर्ति के लिए किया गया था।

धोखाधड़ी के गंभीर आरोप

सरकारी पक्ष की ओर से गंभीर आरोप लगाए गए हैं:

  1. टेंडर में हेराफेरी: याचिकाकर्ताओं पर आरोप है कि उन्होंने बिहार राज्य लघु उद्योग निगम (BSSICL) का रूप धारण करके टेंडर कागजात में छेड़छाड़ की।
  2. पहचान की चोरी: BSSICL का रूप धारण करके राहत सामग्री की आपूर्ति शुरू की और भुगतान प्राप्त किया।
  3. वित्तीय धोखाधड़ी: BSSICL के खाते में जमा होने वाली ₹17.80 करोड़ की राशि को धोखे से “बाबा सत्य साई एंटरप्राइजेज कॉर्पोरेशन लिमिटेड” के खाते में स्थानांतरित कराया।
  4. आपराधिक मामला: जब धोखाधड़ी का पता चला तो विजिलेंस थाना मामला संख्या 08/2005 दर्ज किया गया और संतोष कुमार झा को जेल भेजा गया।

न्यायालयीय यात्रा का विस्तृत इतिहास

उच्च न्यायालय में प्रारंभिक कार्यवाही

  1. CWJC No. 11974/2007: 28.07.2008 के आदेश द्वारा मुख्य सचिव को निर्देश दिया गया कि संबंधित विभागों के अधिकारियों की एक टीम गठित करे।
  2. MJC No. 467/2009: अवमानना कार्यवाही के लिए दायर किया गया और 29.07.2009 को निपटाया गया।
  3. सुप्रीम कोर्ट में अपील: SLP No. 22759/2009 दायर किया गया लेकिन 30.11.2009 को वापस ले लिया गया।
  4. CWJC No. 3332/2010: 13.03.2012 को खारिज कर दिया गया।
  5. LPA No. 594/2012: 24.09.2013 को वापस ले लिया गया।

सिविल सूट की शुरुआत

अंततः याचिकाकर्ताओं ने Title Suit No. 5743/2014 दायर किया। इस मामले में:

  • सरकारी पक्ष ने लिखित बयान दाखिल करके दावे का विरोध किया
  • धारा 89 के तहत मध्यस्थता के लिए भेजा गया लेकिन सरकारी अधिकारियों की गैर-हाजिरी के कारण असफल
  • CWJC No. 24085/2018 के माध्यम से शीघ्र निपटान की मांग की गई

वर्तमान विवाद का मूल

याचिकाकर्ताओं ने 11.01.2024 को Order XXVII Rule 5B के तहत एक आवेदन दायर किया, जिसमें न्यायालय से अनुरोध किया गया कि वह पक्षकारों के बीच समझौता करवाने में सहायता करे।

ट्रायल कोर्ट का फैसला: 16.01.2024 को सब-जज IV, पटना सदर ने इस आवेदन को खारिज कर दिया।

कानूनी तर्क और विश्लेषण

याचिकाकर्ता पक्ष के तर्क:

  1. Order XXVII Rule 5B(2) के अनुसार न्यायालय का यह कर्तव्य है कि वह किसी भी स्तर पर समझौते की उचित संभावना दिखने पर कार्यवाही स्थगित करे
  2. पूर्व में धारा 89 के तहत मध्यस्थता इसलिए असफल हुई क्योंकि सरकारी अधिकारी उपस्थित नहीं हुए
  3. हरियाणा राज्य बनाम ग्राम पंचायत कलेहारी (2016) 11 SCC 374 और मोहन कुमार बनाम मध्य प्रदेश राज्य (2017) 4 SCC 92 के निर्णयों का संदर्भ दिया

सरकारी पक्ष के तर्क:

  1. याचिकाकर्ताओं का दावा पूर्णतः तुच्छ और धोखाधड़ी पर आधारित है
  2. वास्तविक ठेका BSSICL को दिया गया था, याचिकाकर्ताओं को नहीं
  3. धोखाधड़ी के कारण आपराधिक मामला दर्ज हुआ है
  4. समझौते की कोई संभावना नहीं है क्योंकि सरकार पूर्णतः दावे को अस्वीकार करती है

न्यायाधीश का विस्तृत विश्लेषण

Order XXVII Rule 5B की व्याख्या:

न्यायाधीश ने स्पष्ट किया कि यह प्रावधान तीन भागों में विभाजित है:

Sub-rule (1): प्रारंभिक चरण में न्यायालय का कर्तव्य है कि वह समझौते के लिए प्रयास करे, लेकिन यह मामले की प्रकृति और परिस्थितियों के अनुकूल होना चाहिए।

Sub-rule (2): किसी भी स्तर पर यदि समझौते की उचित संभावना दिखे तो न्यायालय कार्यवाही स्थगित कर सकता है।

Sub-rule (3): यह शक्ति न्यायालय की अन्य शक्तियों के अतिरिक्त है।

मुख्य निष्कर्ष:

  1. पारस्परिकता की आवश्यकता: समझौता दोनों पक्षों की सहमति से होता है। जब दोनों पक्षों में कोई साझा आधार नहीं है तो न्यायालय के प्रयास निरर्थक होंगे।
  2. धोखाधड़ी के आरोप: जब एक पक्ष पर गंभीर धोखाधड़ी और आपराधिक आरोप हैं, तो समझौते की संभावना नहीं बनती।
  3. पूर्व प्रयासों की असफलता: पहले से ही धारा 89 के तहत मध्यस्थता का प्रयास असफल हो चुका है।
  4. न्यायालय का विवेकाधिकार: Rule 5B(2) के तहत न्यायालय को बाध्यकारी दायित्व नहीं है, बल्कि विवेकाधिकार है।

निर्णय और उसका औचित्य

न्यायाधीश ने निम्नलिखित कारणों से याचिका खारिज की:

  1. तथ्यों की भिन्नता: याचिकाकर्ताओं द्वारा उद्धृत सुप्रीम कोर्ट के निर्णय वर्तमान मामले के तथ्यों से मेल नहीं खाते।
  2. समझौते की असंभावना: धोखाधड़ी के गंभीर आरोपों और सरकार के पूर्ण इनकार के कारण समझौते की कोई वाजिब संभावना नहीं है।
  3. न्यायिक अनुशासन: न्यायाधीश ने स्पष्ट किया कि निर्णय केवल उसी के लिए प्राधिकार है जिसका वह वास्तव में निर्णय करता है, न कि उससे तार्किक रूप से निकलने वाली बातों के लिए।

निर्णय का व्यापक प्रभाव

यह निर्णय कई महत्वपूर्ण कानूनी सिद्धांत स्थापित करता है:

  1. सरकारी मुकदमों में समझौता: सरकार के विरुद्ध मुकदमों में समझौते के लिए न्यायालय का दायित्व परिस्थितियों पर निर्भर करता है।
  2. धोखाधड़ी के मामलों में सीमा: जहां गंभीर धोखाधड़ी के आरोप हैं, वहां समझौते की संभावना क्षीण हो जाती है।
  3. न्यायिक विवेक: न्यायालय को अनावश्यक विलंब से बचने का अधिकार है।

निष्कर्ष

यह मामला दिखाता है कि न्यायिक प्रक्रिया में समझौता एक महत्वपूर्ण उपकरण है, लेकिन इसकी अपनी सीमाएं हैं। जब तक दोनों पक्षों में ईमानदारी और सद्भावना नहीं है, तब तक समझौते के प्रयास सफल नहीं हो सकते। न्यायाधीश का यह निर्णय कानून की मंशा और न्यायिक व्यावहारिकता के बीच संतुलन स्थापित करता है।

संपूर्ण निर्णय नीचे पढ़ें

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