यह मामला पटना उच्च न्यायालय में आपराधिक अपील संख्या 1036/2016 से संबंधित है, जिसमें मल्लिक यादव और तुलसी यादव को सत्र न्यायालय द्वारा दोषी ठहराया गया था। उनके खिलाफ मामला मुंगेर मुफस्सिल थाना कांड संख्या 168/2010 के आधार पर दर्ज किया गया था। उन्हें भारतीय दंड संहिता की धारा 302/34 और शस्त्र अधिनियम की धारा 27 के तहत दोषी ठहराया गया और उम्रकैद की सजा सुनाई गई।
मामले की पृष्ठभूमि
13 सितंबर 2010 की सुबह करीब 5 बजे, आरोपियों ने माधो यादव को उसके घर से खींचकर गोली मार दी। शिकायतकर्ता बिंदेश्वरी यादव ने आरोप लगाया कि हत्या रंगदारी टैक्स (एक लाख रुपये) की मांग के कारण की गई थी। घटना के कई चश्मदीद गवाह भी मौजूद थे। पुलिस ने घटना स्थल का निरीक्षण किया, शव का पोस्टमार्टम कराया और चार्जशीट दायर की।
मामले की कार्यवाही और सबूत
- प्राथमिकी (FIR) में देरी – एफआईआर 3 बजे दर्ज हुई, जबकि घटना सुबह 5 बजे हुई थी। यह देरी अभियोजन पक्ष की विश्वसनीयता पर सवाल उठाती है।
- गवाहों की विश्वसनीयता – अधिकतर गवाह मृतक के करीबी रिश्तेदार थे, जिनके बयान में कई विरोधाभास पाए गए।
- मृतक का शरीर घटनास्थल पर या घर के सामने? – इन्वेस्टिगेशन रिपोर्ट और गवाहों के बयान में अंतर पाया गया।
- फोरेंसिक सबूतों की कमी – खून के धब्बे, हथियार, और अन्य सबूतों की बरामदगी पर पुलिस ने उचित कार्यवाही नहीं की।
- मौका-ए-वारदात की सही जगह को लेकर भ्रम – अभियोजन और बचाव पक्ष की दलीलों में विरोधाभास था।
अदालत का निर्णय
पटना उच्च न्यायालय ने पाया कि अभियोजन पक्ष हत्या के मामले को संदेह से परे साबित करने में असफल रहा।
- एफआईआर में देरी,
- गवाहों के विरोधाभासी बयान,
- सबूतों की कमी और
- पुलिस जांच में खामियों के कारण, अदालत ने आरोपियों को बरी कर दिया और उन्हें तुरंत रिहा करने का आदेश दिया।
निष्कर्ष
यह मामला न्यायिक प्रक्रिया में निष्पक्ष जांच और सबूतों की विश्वसनीयता के महत्व को दर्शाता है। न्यायालय ने यह स्पष्ट किया कि अभियोजन पक्ष को हर संदेह को परे हटाकर साक्ष्य प्रस्तुत करने होते हैं, अन्यथा आरोपियों को संदेह का लाभ दिया जाता है।
पूरा
फैसला पढ़ने के लिए यहां
क्लिक करें:
https://patnahighcourt.gov.in/viewjudgment/NSMxMDM2IzIwMTYjMSNO-GeHO9u8q8nw=