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“निर्माण अनुबंध विवाद: भुगतान में देरी और ब्याज की गणना पर न्यायालय का अहम फैसला”

 

                                     

परिचय:

यह मामला पटनाः उच्च न्यायालय के समक्ष सिविल रिवीजन याचिका संख्या 180/2016 के रूप में प्रस्तुत किया गया। याचिकाकर्ता, अरविंद कुमार, ने निर्माण कार्य के लिए भुगतान और ब्याज के मुद्दे पर न्यायालय की शरण ली। विवाद का मुख्य बिंदु यह था कि अनुबंध के तहत किए गए कार्यों का भुगतान समय पर नहीं किया गया, और इसके लिए याचिकाकर्ता ने ब्याज के साथ भुगतान की मांग की।


मामले की पृष्ठभूमि:

  1. अनुबंध और कार्य की स्वीकृति:

    • याचिकाकर्ता ने बिहार सरकार के भवन निर्माण विभाग के साथ एक अनुबंध पर हस्ताक्षर किए थे।
    • याचिकाकर्ता ने अनुबंध के अनुसार काम पूरा कर लिया, जिसे विभाग ने स्वीकार कर लिया।
  2. विवाद का आरंभ:

    • याचिकाकर्ता को अनुबंध के तहत किए गए कार्यों के लिए भुगतान नहीं मिला।
    • याचिकाकर्ता ने पहले संबंधित विभाग के समक्ष अपनी मांगें प्रस्तुत कीं, लेकिन समाधान न होने के कारण उन्होंने 2014 में मध्यस्थता का सहारा लिया।
  3. मध्यस्थता न्यायाधिकरण का निर्णय:

    • न्यायाधिकरण ने फैसला सुनाया कि याचिकाकर्ता को 10% प्रति वर्ष साधारण ब्याज के साथ भुगतान किया जाएगा।
    • यह ब्याज 31 दिसंबर 2014 (मामले के दाखिल होने की तारीख) से 29 मार्च 2015 (भुगतान की तारीख) तक के लिए स्वीकृत किया गया।

याचिकाकर्ता की मुख्य शिकायतें:

याचिकाकर्ता ने न्यायालय के समक्ष तीन प्रमुख शिकायतें प्रस्तुत कीं:

  1. प्री-रेफरेंस अवधि का ब्याज:

    • न्यायाधिकरण ने उस अवधि के लिए ब्याज देने से इनकार कर दिया जब याचिकाकर्ता ने अपनी मांग दर्ज की थी और मामला मध्यस्थता में लंबित था।
    • याचिकाकर्ता का दावा था कि उन्हें अनुबंध के उल्लंघन के कारण इस अवधि का ब्याज मिलना चाहिए।
  2. ब्याज दर में असहमति:

    • याचिकाकर्ता ने तर्क दिया कि उन्हें 18% वार्षिक ब्याज मिलना चाहिए था, जो मध्यस्थता और सुलह अधिनियम, 1996 की धारा 31(7)(a)(b) के तहत निर्धारित है।
    • न्यायाधिकरण ने केवल 10% ब्याज प्रदान किया, जिसे याचिकाकर्ता ने अनुचित बताया।
  3. मूलधन और ब्याज पर ब्याज का मुद्दा:

    • न्यायाधिकरण ने केवल मूलधन पर ब्याज दिया और इसे कुल राशि (मूलधन + ब्याज) पर लागू नहीं किया, जिससे याचिकाकर्ता असंतुष्ट थे।

न्यायालय का विश्लेषण:

  1. मध्यस्थता अधिनियम का अनुपालन:

    • न्यायालय ने धारा 31(7) का हवाला देते हुए कहा कि मध्यस्थता न्यायाधिकरण के पास तीन अवधियों (प्री-रेफरेंस, पेंडेंट लाइट, और पोस्ट-अवार्ड) के लिए ब्याज प्रदान करने का अधिकार है।
    • इस संबंध में न्यायालय ने सुप्रीम कोर्ट के निर्णयों का भी उल्लेख किया, जिनमें G.C. Roy और Hyder Consulting जैसे मामलों को आधार बनाया गया।
  2. न्यायाधिकरण के विवेक का प्रश्न:

    • न्यायालय ने माना कि न्यायाधिकरण के पास ब्याज दर और भुगतान अवधि तय करने का विवेकाधिकार है।
    • हालांकि, न्यायालय ने पाया कि न्यायाधिकरण ने ब्याज दर कम रखने और प्री-रेफरेंस अवधि के लिए ब्याज से इनकार करने के पीछे कोई स्पष्ट कारण नहीं दिया।
  3. मूलधन और ब्याज की परिभाषा:

    • न्यायालय ने कहा कि एक बार ब्याज को “योग” (sum) का हिस्सा मान लिया जाए, तो इसे मूलधन से अलग नहीं किया जा सकता।
    • न्यायालय ने उल्लेख किया कि यदि ब्याज स्वीकृत किया गया है, तो यह कुल राशि का अभिन्न हिस्सा बन जाता है।

न्यायालय का निर्णय:

  1. न्यायालय ने मध्यस्थता न्यायाधिकरण के निर्णय को निरस्त कर दिया।
  2. मामले को दोबारा विचार के लिए न्यायाधिकरण के पास भेज दिया गया।
  3. न्यायालय ने निर्देश दिया कि नए निर्णय में सभी कानूनी सिद्धांतों और उपलब्ध तथ्यों को ध्यान में रखा जाए।
  4. यह भी स्पष्ट किया गया कि इस आदेश में दी गई कोई भी टिप्पणी दोनों पक्षों के दावों को प्रभावित नहीं करेगी।

निष्कर्ष:

यह मामला मध्यस्थता प्रक्रिया के दौरान अनुबंधों में देरी और ब्याज के मुद्दों पर प्रकाश डालता है। न्यायालय का निर्णय न केवल याचिकाकर्ता के लिए राहत प्रदान करता है, बल्कि यह भी सुनिश्चित करता है कि भविष्य में इस तरह के मामलों में न्यायिक विवेक और विधिक प्रावधानों का पालन हो|

                                              पूरा फैसला पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें:

  https://patnahighcourt.gov.in/viewjudgment/OCMxODAjMjAxNiMxI08=-tHKfqQ0R1yw=

Abhishek Kumar

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