निर्णय की सरल व्याख्या
इस मामले में याचिकाकर्ता बिहार सरकार के निषेध, उत्पाद एवं निबंधन विभाग में एक राजपत्रित सरकारी कर्मचारी थे। विभाग ने उन पर स्टाम्प ड्यूटी की गणना में त्रुटि के कारण राजस्व की हानि पहुंचाने का आरोप लगाकर विभागीय कार्रवाई की, जिसके बाद उन्हें अनिवार्य सेवानिवृत्ति दी गई।
याचिकाकर्ता ने इस सजा को पटना हाईकोर्ट में चुनौती दी (मामला संख्या CWJC No. 4509/2016)। कोर्ट ने पाया कि याचिकाकर्ता की गलती जानबूझकर नहीं थी बल्कि यह एक ईमानदार भूल थी। विभागीय जांच समिति ने भी केवल हल्की सजा की सिफारिश की थी। कोर्ट ने अनिवार्य सेवानिवृत्ति को रद्द कर दिया और विभाग को निर्देश दिया कि सजा के बारे में नए सिरे से विचार करे।
इसके बावजूद विभाग ने फिर से 19 जुलाई 2016 को अनिवार्य सेवानिवृत्ति का आदेश जारी कर दिया। इसे याचिकाकर्ता ने फिर से चुनौती दी (CWJC No. 13737/2016)। इस बार कोर्ट ने पाया कि यह सजा विभाग के उस अधिकारी ने दी थी जो इसके लिए अधिकृत नहीं था। इसलिए कोर्ट ने फिर से उस आदेश को रद्द कर दिया और सरकार को कानून के अनुसार आगे बढ़ने की छूट दी।
बाद में सरकार ने याचिकाकर्ता को पुनः सेवा में बहाल किया, लेकिन 3 अक्टूबर 2018 के आदेश में यह कहा कि जिस अवधि में याचिकाकर्ता सेवा में नहीं थे, उसे निलंबन अवधि माना जाएगा और उस अवधि के लिए केवल 75% वेतन दिया जाएगा।
याचिकाकर्ता ने इसे भी हाईकोर्ट में चुनौती दी (CWJC No. 8332/2019) और कहा कि बिहार सरकारी सेवक (वर्गीकरण, नियंत्रण एवं अपील) नियमावली, 2005 के नियम 13(3) के अनुसार, जब कोर्ट द्वारा सेवा से हटाने का आदेश रद्द कर दिया जाता है और कोई नई विभागीय कार्यवाही नहीं होती, तो कर्मचारी को उस पूरी अवधि का पूरा वेतन और भत्ता मिलना चाहिए।
कोर्ट ने याचिकाकर्ता की दलील को स्वीकार किया और माना कि जब कोई विभागीय कार्यवाही नहीं हुई और सेवानिवृत्ति का आदेश अदालत द्वारा रद्द कर दिया गया, तो वह अवधि सेवा में गिनी जाएगी और याचिकाकर्ता को पूरा वेतन और भत्ता दिया जाना चाहिए।
निर्णय का महत्व और इसका प्रभाव आम जनता या सरकार पर
यह फैसला उन सभी सरकारी कर्मचारियों के लिए बेहद महत्वपूर्ण है जिन्हें गलत तरीके से सेवा से हटाया गया हो। इस निर्णय से स्पष्ट होता है कि यदि किसी कर्मचारी की बर्खास्तगी या अनिवार्य सेवानिवृत्ति कोर्ट द्वारा रद्द कर दी जाती है और सरकार दोबारा कोई कार्यवाही नहीं करती, तो उसे उस पूरी अवधि का पूरा वेतन मिलना चाहिए।
यह सरकार को भी यह संकेत देता है कि विभागीय कार्रवाई करते समय कानूनी प्रक्रिया और अधिकार क्षेत्र का पूरी तरह पालन जरूरी है, अन्यथा निर्णय कोर्ट में रद्द हो सकते हैं।
कानूनी मुद्दे और निर्णय (बुलेट में)
- क्या याचिकाकर्ता सेवा से बाहर रहने की अवधि के लिए पूरा वेतन पाने के हकदार हैं?
- हां, नियम 13(3) के अनुसार उन्हें पूरा वेतन और भत्ता मिलना चाहिए।
- क्या उस अवधि को निलंबन माना जा सकता है?
- नहीं, जब कोई निलंबन आदेश ही नहीं था और कोर्ट ने सेवा बहाल की, तो यह अवधि ड्यूटी पर मानी जाएगी।
- क्या सरकार द्वारा केवल 75% वेतन देने का आदेश वैध था?
- नहीं, कोर्ट ने उसे नियमों के खिलाफ मानते हुए रद्द कर दिया।
पार्टियों द्वारा संदर्भित निर्णय
- CWJC No. 4509/2016 (पहली बार अनिवार्य सेवानिवृत्ति रद्द हुआ)
- CWJC No. 13737/2016 (दूसरी बार आदेश अधिकारहीन अधिकारी द्वारा होने के कारण रद्द)
मामले का शीर्षक
Arbind Kumar Khan vs. The State of Bihar & Ors.
केस नंबर
CWJC No. 8332 of 2019
उद्धरण (Citation)
2020 (1) PLJR 191
न्यायमूर्ति गण का नाम
माननीय श्री न्यायमूर्ति अशुतोष कुमार
वकीलों के नाम और किनकी ओर से पेश हुए
- श्री रजनीकांत झा — याचिकाकर्ता की ओर से
- श्री ललित किशोर (महाधिवक्ता) — प्रतिवादी की ओर से
निर्णय का लिंक
https://patnahighcourt.gov.in/viewjudgment/MTUjODMzMiMyMDE5IzEjTg==-Zv7R5Rqe36s=
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