निर्णय की सरल व्याख्या
पटना हाईकोर्ट ने सार्वजनिक वितरण प्रणाली (PDS) की दुकान का लाइसेंस रद्द करने के आदेश को चुनौती देने वाली याचिका केवल लंबी देरी और लापरवाही (Delay and Laches) के आधार पर खारिज कर दी। अदालत ने कहा कि अपील आदेश के लगभग सात साल बाद अदालत का दरवाजा खटखटाना उचित नहीं है, खासकर जब देरी का कोई ठोस कारण भी नहीं बताया गया।
मामला 8 जुलाई 2003 को शुरू हुआ, जब मंझौल के अनुमंडल पदाधिकारी (SDO) ने याचिकाकर्ता का पीडीएस दुकान का लाइसेंस रद्द कर दिया। इस आदेश को 15 दिसंबर 2012 को बेगूसराय के जिलाधिकारी ने अपील में भी बरकरार रखा। इसके बाद याचिकाकर्ता ने लगभग सात साल तक कोई कानूनी कदम नहीं उठाया और 2020 में पटना हाईकोर्ट में याचिका दायर की।
राज्य पक्ष का तर्क:
- इतने लंबे समय के बाद याचिका दाखिल करना कानून के सिद्धांतों के विपरीत है।
- इस दौरान 17 साल बीत गए और तीसरे पक्ष के अधिकार भी बन सकते हैं, जिन्हें अब प्रभावित नहीं किया जा सकता।
याचिकाकर्ता का पक्ष:
- याचिकाकर्ता अदालत को इस देरी का कोई भी उचित और ठोस कारण नहीं दे सका।
अदालत की मुख्य टिप्पणियां:
- अनुचित और अनस्पष्टीकृत देरी:
अपील आदेश (15 दिसंबर 2012) के बाद भी सात साल तक अदालत नहीं आना देरी और लापरवाही का स्पष्ट उदाहरण है। - देरी और लापरवाही का सिद्धांत:
- सुप्रीम कोर्ट के State of J&K v. R.K. Zalpuri (2015) और State of M.P. v. Nandlal Jaiswal (1986) मामलों का हवाला देते हुए अदालत ने कहा कि पुराने और बासी दावों को नहीं सुना जाना चाहिए।
- Chennai Metropolitan Water Supply & Sewerage Board v. T.T. Murali Babu और Karnataka Power Corporation v. K. Thangappan में भी यही सिद्धांत दोहराया गया है कि लापरवाही और निष्क्रियता writ याचिका को अस्वीकार करने का कारण बनती है।
- समानता और न्याय का सवाल:
देरी से न केवल याचिकाकर्ता के प्रति संदेह पैदा होता है, बल्कि इससे अन्य लोगों के अधिकार और सरकारी कार्रवाई भी प्रभावित हो सकते हैं। - कोई विशेष परिस्थिति नहीं:
अदालत को ऐसा कोई असाधारण कारण नहीं मिला जिससे इस देरी को नजरअंदाज किया जा सके।
अंतिम फैसला:
अदालत ने केवल देरी और लापरवाही के आधार पर याचिका खारिज कर दी और मामले के मेरिट (गुण-दोष) पर कोई चर्चा नहीं की।
निर्णय का महत्व और इसका प्रभाव
- देरी पर सख्त रुख:
अदालत ने स्पष्ट किया कि उचित समय सीमा के भीतर ही अदालत का दरवाजा खटखटाना चाहिए। - PDS लाइसेंस धारकों के लिए सबक:
लाइसेंस रद्द करने जैसे आदेशों को समय रहते चुनौती दें, वरना मामला सुनवाई से पहले ही खारिज हो सकता है। - न्यायिक दक्षता:
यह फैसला बताता है कि अदालतें पुराने और बासी दावों को सुनने में समय बर्बाद नहीं करेंगी। - Writ का विवेकाधीन स्वरूप:
अनुच्छेद 226 के तहत राहत अपने आप नहीं मिलती, बल्कि याचिकाकर्ता के आचरण पर भी निर्भर करती है।
कानूनी मुद्दे और निर्णय
- क्या लंबी और बिना कारण बताई गई देरी के बाद याचिका सुनवाई योग्य है?
निर्णय: नहीं। सात साल की देरी और बिना स्पष्टीकरण के याचिका खारिज। - क्या देरी और लापरवाही का सिद्धांत लाइसेंस रद्दीकरण मामलों में भी लागू होता है?
निर्णय: हाँ, खासकर जब इससे तीसरे पक्ष के अधिकार प्रभावित हो सकते हैं।
न्यायालय द्वारा उपयोग में लाए गए निर्णय
- State of J&K v. R.K. Zalpuri, (2015) 15 SCC 602
- State of M.P. v. Nandlal Jaiswal, (1986) 4 SCC 566
- Chennai Metropolitan Water Supply & Sewerage Board v. T.T. Murali Babu
- Karnataka Power Corporation Ltd. v. K. Thangappan
मामले का शीर्षक
Arun Kumar Mehta बनाम State of Bihar एवं अन्य
केस नंबर
Civil Writ Jurisdiction Case No. 2276 of 2020
उद्धरण (Citation)
2020 (3) PLJR 25
माननीय न्यायमूर्ति
माननीय श्री न्यायमूर्ति मोहित कुमार शाह
वकीलों के नाम और किनकी ओर से पेश हुए
- याचिकाकर्ता की ओर से: श्री जय प्रकाश सिंह
- प्रतिवादियों की ओर से: श्री एस. रजा अहमद (एएजी-5)
निर्णय का लिंक
https://patnahighcourt.gov.in/viewjudgment/MTUjMjI3NiMyMDIwIzEjTg==-ZD6BC3ienc0=
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