पटना हाईकोर्ट ने 10 साल की ब्लैकलिस्टिंग को बताया अत्यधिक और अवैध, आदेश रद्द किया

पटना हाईकोर्ट ने 10 साल की ब्लैकलिस्टिंग को बताया अत्यधिक और अवैध, आदेश रद्द किया

निर्णय की सरल व्याख्या

पटना हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण निर्णय में बिहार सरकार के ग्रामीण कार्य विभाग द्वारा एक ठेकेदार को 10 वर्षों के लिए ब्लैकलिस्ट करने के आदेश को रद्द कर दिया है। याचिकाकर्ता ने अदालत से कहा कि उसे कभी कोई कारण बताओ नोटिस नहीं दिया गया और बिना सुनवाई के सीधे ब्लैकलिस्ट कर दिया गया, जो न्यायसंगत नहीं है।

अदालत ने दो बड़े आधारों पर ब्लैकलिस्टिंग को अवैध माना:

  1. प्राकृतिक न्याय का उल्लंघन: याचिकाकर्ता को न तो कोई नोटिस दिया गया और न ही अपनी बात रखने का मौका। कोई रिकॉर्ड भी नहीं था जिससे यह साबित हो कि नोटिस भेजा गया था।
  2. अत्यधिक सजा: भले ही कोई गलती हुई हो, लेकिन बिना सुनवाई के 10 वर्षों की ब्लैकलिस्टिंग बहुत कठोर और असंगत सजा है।

अदालत ने सुप्रीम कोर्ट के कई निर्णयों का हवाला दिया, जैसे Gorkha Security Services v. Govt. of NCT of Delhi, Kulja Industries v. BSNL, और Vetindia Pharmaceuticals Ltd. v. State of UP, जिसमें स्पष्ट किया गया है कि ब्लैकलिस्टिंग जैसे कठोर कदम उठाने से पहले उचित नोटिस देना और सुनवाई करना अनिवार्य है।

इसलिए, पटना हाईकोर्ट ने दिनांक 12.01.2022 का ब्लैकलिस्टिंग आदेश रद्द कर दिया और निर्देश दिया कि संबंधित विभाग नया (या पुराना) कारण बताओ नोटिस जारी करे, याचिकाकर्ता को दो सप्ताह में जवाब देने का मौका दे और फिर चार सप्ताह के भीतर अंतिम आदेश पारित करे। इस बीच, याचिकाकर्ता को सरकारी टेंडरों में भाग लेने की अनुमति दी गई।

निर्णय का महत्व और इसका प्रभाव आम जनता या सरकार पर

यह फैसला बिहार के ठेकेदारों और व्यापारिक संस्थाओं के लिए एक महत्वपूर्ण संदेश है कि सरकार कोई भी कठोर फैसला बिना उचित प्रक्रिया अपनाए नहीं ले सकती। ब्लैकलिस्टिंग केवल आर्थिक हानि नहीं पहुंचाती बल्कि व्यावसायिक जीवन को समाप्त करने जैसा होता है।

यह निर्णय सरकारी विभागों को चेतावनी देता है कि वे संवैधानिक अधिकारों, विशेषकर सुनवाई के अधिकार और समानता के सिद्धांत, का पालन करें। ठेकेदारों और निजी एजेंसियों के लिए यह राहत की बात है कि वे मनमानी और बिना सुनवाई के लिए गए फैसलों से कानूनी सुरक्षा पा सकते हैं।

कानूनी मुद्दे और निर्णय (बुलेट में)

  • क्या याचिकाकर्ता को ब्लैकलिस्ट करने से पहले नोटिस दिया गया था?
    ❌ नहीं। नोटिस देने का कोई सबूत नहीं था।
  • क्या 10 साल की ब्लैकलिस्टिंग उचित सजा थी?
    ❌ नहीं। यह सजा अत्यधिक और असंगत मानी गई।
  • क्या सुनवाई के बिना ब्लैकलिस्ट करना प्राकृतिक न्याय का उल्लंघन है?
    ✅ हाँ। अदालत ने इसे स्पष्ट रूप से कहा।
  • क्या विभाग फिर से नया नोटिस देकर सुनवाई कर सकता है?
    ✅ हाँ। अदालत ने उचित प्रक्रिया अपनाने की अनुमति दी।

पार्टियों द्वारा संदर्भित निर्णय

  • State of Orissa v. Balram Sahu, (2009) 2 SCC 652
  • Patel Engineering Ltd. v. Union of India, (2012) 11 SCC 257
  • Gorkha Security Services v. Government of NCT of Delhi, (2014) 9 SCC 105
  • Kulja Industries Ltd. v. BSNL, (2014) 14 SCC 731

न्यायालय द्वारा उपयोग में लाए गए निर्णय

  • Vetindia Pharmaceuticals Ltd. v. State of Uttar Pradesh, (2021) 1 SCC 804
  • Natwar Singh v. Director of Enforcement, (2004) 13 SCC 255
  • SEBI v. Akshaya Infrastructure (P) Ltd., (2014) 11 SCC 112
  • H.L. Trehan v. Union of India, (1989) 1 SCC 764

मामले का शीर्षक
Binod Kumar Singh v. State of Bihar & Ors.

केस नंबर
CWJC No. 9012 of 2022

न्यायमूर्ति गण का नाम
माननीय मुख्य न्यायाधीश संजय करोल एवं माननीय न्यायमूर्ति एस. कुमार

वकीलों के नाम और किनकी ओर से पेश हुए
श्री सीताराम प्रसाद एवं श्री नौशाद खान – याचिकाकर्ता की ओर से
श्री कुमार आलोक, सरकारी अधिवक्ता-7 – प्रतिवादीगण की ओर से

निर्णय का लिंक
https://www.patnahighcourt.gov.in/ShowPdf/web/viewer.html?file=../../TEMP/506d1b39-6a40-4bca-832a-04bad00fcde7.pdf&search=Debarment

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Aditya Kumar

Aditya Kumar is a dedicated and detail-oriented legal intern with a strong academic foundation in law and a growing interest in legal research and writing. He is currently pursuing his legal education with a focus on litigation, policy, and public law. Aditya has interned with reputed law offices and assisted in drafting legal documents, conducting research, and understanding court procedures, particularly in the High Court of Patna. Known for his clarity of thought and commitment to learning, Aditya contributes to Samvida Law Associates by simplifying complex legal topics for public understanding through well-researched blog posts.

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