निर्णय की सरल व्याख्या
पटना हाईकोर्ट ने हाल ही में एक महत्वपूर्ण निर्णय में पांच अभियुक्तों को बरी किए जाने के निचली अदालत के फैसले को बरकरार रखा है। कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि जब अभियोजन पक्ष (प्रोसिक्यूशन) आरोप सिद्ध करने में विफल रहता है, और उपलब्ध साक्ष्य पर्याप्त नहीं हैं, तब अपील अदालत को ऐसे बरी किए गए फैसले में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए।
यह मामला मोहानिया थाना कांड संख्या 228/2010 से जुड़ा है। अपीलकर्ता (शिकायतकर्ता) ने सत्र वाद संख्या 25/2012 में फास्ट ट्रैक कोर्ट-I, भभुआ द्वारा 16.11.2018 को दिए गए निर्णय को पटना हाईकोर्ट में चुनौती दी थी, जिसमें अभियुक्तों को भारतीय दंड संहिता की धारा 341 (गलत तरीके से रोकना), 323 (चोट पहुँचाना), और 307/34 (सामूहिक इरादे से हत्या का प्रयास) के तहत बरी कर दिया गया था।
अपीलकर्ता ने यह दलील दी:
- कि ट्रायल कोर्ट ने अभियोजन को पर्याप्त अवसर नहीं दिया।
- PW1 (शारदा देवी) की गवाही पर पर्याप्त विचार नहीं किया गया।
लेकिन हाईकोर्ट ने पाया कि:
- अभियोजन को गवाह पेश करने के पर्याप्त मौके मिले थे।
- केवल एक गवाह PW1 की गवाही रिकॉर्ड की गई। वह अभियुक्त की मां थीं।
- अन्य प्रमुख गवाह, जिनमें शिकायतकर्ता और घायल लोग शामिल थे, कोर्ट में पेश नहीं हुए।
- न तो जांच अधिकारी और न ही चिकित्सक की गवाही हुई।
PW1 की गवाही, उनकी शुरुआती रिपोर्ट (फर्द बयान) से मेल नहीं खाती थी। कोई दस्तावेजी या चिकित्सीय साक्ष्य रिकॉर्ड में नहीं था, जिससे चोट या घटना की पुष्टि होती।
हाईकोर्ट ने इस सिद्धांत को दोहराया कि जब तक ट्रायल कोर्ट का फैसला पूरी तरह से अनुचित, पथभ्रष्ट या साक्ष्य के विपरीत न हो, तब तक अपीलीय न्यायालय को उसमें हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए।
अतः हाईकोर्ट ने पाया कि ट्रायल कोर्ट ने जो भी साक्ष्य उपलब्ध थे, उन पर सही तरीके से विचार किया और अभियोजन पक्ष अपने आरोप सिद्ध नहीं कर सका। इसलिए अपील को प्रारंभिक चरण (admission stage) में ही खारिज कर दिया गया।
निर्णय का महत्व और इसका प्रभाव आम जनता या सरकार पर
यह निर्णय यह स्पष्ट करता है कि किसी को दोषी साबित करने की पूरी जिम्मेदारी अभियोजन पक्ष की होती है। केवल आरोप लगाने से किसी को सजा नहीं दी जा सकती जब तक कि साक्ष्य मजबूत, विश्वसनीय और स्पष्ट न हो।
यह फैसला पुलिस और अभियोजन अधिकारियों के लिए यह संदेश देता है कि:
- यदि गवाह पेश नहीं किए जाते,
- अगर मेडिकल और जांच रिपोर्ट रिकॉर्ड में नहीं लाई जाती,
तो गंभीर आरोप भी अदालत में नहीं टिक सकते।
सामान्य जनता के लिए यह याद दिलाने वाला है कि केवल शिकायत करना ही पर्याप्त नहीं होता, बल्कि अदालत में उसका प्रमाण देना भी आवश्यक है। साथ ही, यह भी कि अगर कोई व्यक्ति अदालत से बरी होता है, तो उसकी दोषमुक्ति को गंभीरता से माना जाना चाहिए, जब तक कि उसका स्पष्ट खंडन न हो।
कानूनी मुद्दे और निर्णय (बुलेट में)
- क्या ट्रायल कोर्ट द्वारा अभियुक्तों को बरी करना गलत था?
- निर्णय: नहीं
- कारण: अभियोजन अपने आरोप को सिद्ध नहीं कर सका, और मुख्य गवाह अनुपस्थित रहे।
- क्या हाईकोर्ट ने बरी किए गए निर्णय को पथभ्रष्ट या त्रुटिपूर्ण पाया?
- निर्णय: नहीं
- कारण: ट्रायल कोर्ट का निर्णय उपलब्ध साक्ष्य के आधार पर था और उसमें कोई स्पष्ट त्रुटि नहीं थी।
- क्या हर बरी करने वाले फैसले में उच्च न्यायालय को हस्तक्षेप करना चाहिए?
- निर्णय: नहीं
- कारण: जब तक ट्रायल कोर्ट का फैसला पूरी तरह से अनुचित न हो, तब तक हस्तक्षेप उचित नहीं है।
न्यायालय द्वारा उपयोग में लाए गए निर्णय
सामान्य सिद्धांत — अपील में बरी किए गए निर्णय को तभी पलटा जाए जब वह साक्ष्य से परे या त्रुटिपूर्ण हो
मामले का शीर्षक
Nirbhay Kumar Singh @ Ashok Singh बनाम बिहार राज्य एवं अन्य
केस नंबर
Criminal Appeal (DB) No.524 of 2019
Arising out of Criminal Appeal (SJ) No.720 of 2019
उद्धरण (Citation)
2021(1)PLJR 69
न्यायमूर्ति गण का नाम
माननीय श्री न्यायमूर्ति हेमंत कुमार श्रीवास्तव
माननीय श्री न्यायमूर्ति प्रभात कुमार सिंह
वकीलों के नाम और किनकी ओर से पेश हुए
अपीलकर्ता की ओर से: श्री विक्रमदेव सिंह, श्री पवन कुमार सिंह
राज्य की ओर से: श्री शिवेश चंद्र मिश्रा, APP
निर्णय का लिंक
https://patnahighcourt.gov.in/viewjudgment/NSM1MjQjMjAxOSMxI04=-Ci9CX7wM9jc=
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