निर्णय की सरल व्याख्या
पटना हाई कोर्ट ने बलात्कार के एक मामले में आरोपी की अपील جزوی रूप से स्वीकार कर ली है। न्यायालय ने दोष सिद्धि को तो बरकरार रखा, लेकिन सज़ा को 10 साल से घटाकर 7 साल कर दिया, जो कि धारा 376(1) आईपीसी के तहत न्यूनतम निर्धारित सज़ा है।
यह मामला 2015 का है जब एक महिला ने एफआईआर दर्ज कराई कि जब वह घर में अकेली थी और उसकी मां थोड़ी देर के लिए बाहर गई थीं, तभी आरोपी घर में घुस आया और जबरदस्ती बलात्कार किया। महिला ने तुरंत अपनी मां को घटना की जानकारी दी और बाद में गांव में पंचायत भी हुई, लेकिन आरोपी उसमें शामिल नहीं हुआ।
मामले की सुनवाई के दौरान पीड़िता ने अपने बयान में घटना को स्पष्ट रूप से बताया। उसने पुलिस, मजिस्ट्रेट (धारा 164 CrPC के तहत) और अदालत में दिए गए बयानों में एक जैसी बात कही। उसकी मां और एक पड़ोसी ने भी गवाही दी कि उन्होंने आरोपी को घर से भागते हुए देखा था।
चिकित्सकीय जांच में यह पता चला कि पीड़िता के साथ पूर्व यौन संबंध के संकेत मिले। हालाँकि, हालिया चोटों या बलात्कार के स्पष्ट चिन्ह नहीं मिले क्योंकि पीड़िता ने घटना के तुरंत बाद स्नान कर लिया था। डॉक्टर्स ने बताया कि हाइमन फटा हुआ था और संपर्क के संकेत मौजूद थे।
आरोपी की ओर से बचाव में कहा गया कि यह झूठा आरोप है क्योंकि उनके परिवार के बीच पुराना ज़मीनी विवाद था। साथ ही, उन्होंने यह भी तर्क दिया कि मेडिकल रिपोर्ट की मूल प्रति पेश नहीं की गई और कोई चोट नहीं पाई गई।
लेकिन कोर्ट ने पाया कि:
- पीड़िता के बयान पूरे मामले में एक जैसे और भरोसेमंद थे।
- उसकी गवाही को अन्य गवाहों और डॉक्टरों ने समर्थन दिया।
- मेडिकल रिपोर्ट की कार्बन कॉपी और डॉक्टरों की गवाही पर्याप्त थी।
- ज़मीनी विवाद का कोई वर्तमान प्रमाण नहीं मिला।
हालांकि, कोर्ट ने माना कि इस केस में किसी प्रकार की विशेष क्रूरता, हिंसा या जबरदस्त मानसिक उत्पीड़न नहीं था। इसलिए उसने सज़ा को न्यूनतम सीमा (7 साल) तक सीमित कर दिया।
निर्णय का महत्व और इसका प्रभाव आम जनता या सरकार पर
यह फैसला कई महत्वपूर्ण सिद्धांतों को पुष्ट करता है:
- पीड़िता की एकरूप और विश्वसनीय गवाही ही दोष सिद्ध करने के लिए पर्याप्त हो सकती है, भले ही शारीरिक चोट या मूल मेडिकल रिपोर्ट न हो।
- सज़ा का निर्धारण न्यायसंगत और अनुपातिक होना चाहिए। यदि अपराध में विशेष क्रूरता या अमानवीयता नहीं हो, तो न्यूनतम सज़ा भी उपयुक्त मानी जा सकती है।
यह संतुलन स्थापित करता है – एक ओर पीड़िता को न्याय मिलना, दूसरी ओर अभियुक्त को उचित सज़ा देना, न कि अत्यधिक कठोर दंड।
कानूनी मुद्दे और निर्णय (बुलेट में)
- क्या बिना चोट या प्रतिरोध के आरोप साबित किया जा सकता है?
✔ हाँ, पीड़िता की गवाही यदि सुसंगत और भरोसेमंद हो तो पर्याप्त मानी जाती है। - क्या मेडिकल रिपोर्ट की मूल प्रति पेश न करने से आरोपी को लाभ मिलना चाहिए?
❌ नहीं, डॉक्टरों ने कार्बन कॉपी के आधार पर गवाही दी और कोई विरोधाभास नहीं पाया गया। - क्या पारिवारिक ज़मीन विवाद के कारण झूठा आरोप लगाया गया था?
❌ नहीं, कोई मौजूदा ज़मीनी विवाद सिद्ध नहीं हुआ। - क्या 10 साल की सज़ा न्यायसंगत थी?
❌ नहीं, चूँकि कोई विशेष अमानवीयता नहीं पाई गई, इसलिए सज़ा को घटाकर 7 साल किया गया।
पार्टियों द्वारा संदर्भित निर्णय
- संतोष प्रसाद उर्फ संतोष कुमार बनाम बिहार राज्य, (2020) 3 SCC 443
- कर्नाटका राज्य बनाम मापिल्ला पी.पी. सूपी, (2003) 8 SCC 202
- मुन्ना बनाम मध्य प्रदेश राज्य, (2014) 10 SCC 254
- सुनील कुंडू व अन्य बनाम झारखंड राज्य, (2013) 4 SCC 422
न्यायालय द्वारा उपयोग में लाए गए निर्णय
- मुकेश बनाम छत्तीसगढ़ राज्य, (2014) 10 SCC 327
- सुनील कुंडू व अन्य बनाम झारखंड राज्य, (2013) 4 SCC 422
- मुन्ना बनाम मध्य प्रदेश राज्य, (2014) 10 SCC 254
मामले का शीर्षक
संजीत कुमार बनाम बिहार राज्य
केस नंबर
Criminal Appeal (SJ) No. 925 of 2017
उद्धरण (Citation)
2021(1)PLJR 123
न्यायमूर्ति गण का नाम
माननीय न्यायमूर्ति श्री बीरेन्द्र कुमार
वकीलों के नाम और किनकी ओर से पेश हुए
• श्रीमती सोनी श्रीवास्तव और श्री रवि भारद्वाज – अपीलकर्ता की ओर से
• श्री बिपिन कुमार (APP) – राज्य की ओर से
• श्री रविशंकर पंकज – सूचनाकर्ता की ओर से
निर्णय का लिंक
https://patnahighcourt.gov.in/viewjudgment/MjQjOTI1IzIwMTcjMSNO-BZSAsgDgQZM=
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