निर्णय की सरल व्याख्या
इस केस में याचिकाकर्ता रेलवे सुरक्षा बल (RPF) के पूर्व सहायक उप-निरीक्षक (ASI) थे। उन्हें 2014 में केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो (CBI) द्वारा रिश्वत लेते हुए गिरफ्तार किया गया था। इस घटना के बाद उन्हें निलंबित कर दिया गया और उनके खिलाफ विभागीय जांच शुरू की गई।
2016 में जांच अधिकारी ने रिपोर्ट दी कि जब तक सीबीआई का आपराधिक मामला लंबित है, तब तक विभागीय जांच में कोई अंतिम निष्कर्ष नहीं दिया जा सकता। इसके आधार पर विभागीय अनुशासनिक अधिकारी ने जांच को “स्थगित” करने का निर्णय लिया, और 5 मई 2016 को एक आदेश (डिविजनल ऑर्डर नंबर 131/2016) जारी किया गया, जिसमें लिखा गया कि विभागीय कार्रवाई “सीबीआई केस के निर्णय तक स्थगित” रहेगी।
लेकिन लगभग 4 साल बाद, फरवरी 2020 में, उसी मामले को लेकर याचिकाकर्ता को एक नया आरोप पत्र (चार्जशीट) जारी किया गया। यह वही मामला था, जो पहले ही स्थगित किया जा चुका था। इस पर याचिकाकर्ता ने हाईकोर्ट में याचिका दायर की।
याचिकाकर्ता का पक्ष:
- जब एक बार विभागीय जांच को स्थगित कर दिया गया था, तो उसे इतने वर्षों बाद दोबारा शुरू करना नियम के विरुद्ध है।
- यह नया चार्जशीट एक तरह से उसी पुराने मामले में नई जांच शुरू करने जैसा है।
- RPF नियमावली की धारा 219(4) के अनुसार, किसी पुराने आदेश की समीक्षा या पुनर्विचार अधिकतम एक वर्ष के अंदर ही किया जा सकता है।
प्रशासन का पक्ष:
- पहले जारी किए गए चार्जशीट में कुछ तकनीकी त्रुटियाँ थीं।
- उच्च अधिकारियों के निर्देश पर यह कार्रवाई की गई।
- विभागीय जांच और आपराधिक मुकदमा साथ-साथ चल सकते हैं।
कोर्ट का विश्लेषण:
- कोर्ट ने माना कि आपराधिक और विभागीय कार्रवाई साथ चल सकती है, लेकिन इस केस का मुद्दा यह नहीं है।
- असली मुद्दा यह है कि 2016 में विभागीय जांच को विधिवत स्थगित कर दिया गया था।
- उसे 2020 में पुनः शुरू करना RPF नियमों के अनुसार गलत है।
- RPF नियम 219(4) के तहत कोई भी पुराना आदेश एक साल के अंदर ही संशोधित या रद्द किया जा सकता है।
- इस मामले में लगभग 4 साल बीत चुके थे, इसलिए नया चार्जशीट पूरी तरह अवैध था।
अंततः कोर्ट ने:
- 2020 में जारी किया गया नया आरोप पत्र (चार्जशीट) और उससे संबंधित सभी कार्यवाही को रद्द कर दिया।
निर्णय का महत्व और इसका प्रभाव आम जनता या सरकार पर
यह फैसला यह स्पष्ट करता है कि सरकार और प्रशासनिक विभागों को निर्धारित नियमों और समय-सीमा का पालन करना अनिवार्य है। जब किसी विभागीय कार्रवाई को नियमानुसार स्थगित किया गया हो, तो उसे वर्षों बाद बिना कानूनी प्रक्रिया के दोबारा शुरू नहीं किया जा सकता।
इस निर्णय से सरकारी कर्मचारियों को राहत मिलती है जो बार-बार एक ही मामले में कार्रवाई का शिकार होते हैं। यह न्यायिक सिद्धांत स्थापित करता है कि कानून की समय-सीमा का उल्लंघन कर प्रशासनिक कार्रवाई नहीं की जा सकती।
कानूनी मुद्दे और निर्णय (बुलेट में)
- ❌ क्या विभागीय कार्रवाई को 4 साल बाद दोबारा शुरू किया जा सकता है?
नहीं। नियम 219(4) के अनुसार, केवल एक वर्ष के अंदर ही संशोधन या पुनरारंभ संभव है। - ✅ क्या आपराधिक और विभागीय कार्रवाई साथ चल सकती है?
हां, लेकिन इस मामले में पुनरारंभ की वैधता ही सवाल में थी। - ❌ क्या उच्च अधिकारी के निर्देश पर कार्रवाई की जा सकती है, भले ही समय सीमा समाप्त हो चुकी हो?
नहीं। नियमों की समय-सीमा सभी पर समान रूप से लागू होती है।
मामले का शीर्षक
नसीबुल्लाह बनाम पूर्व मध्य रेलवे एवं अन्य
केस नंबर
CWJC No. 7343 of 2020
उद्धरण (Citation)
2021(1)PLJR 358
न्यायमूर्ति गण का नाम
माननीय श्री न्यायमूर्ति चक्रधारी शरण सिंह
वकीलों के नाम और किनकी ओर से पेश हुए
- श्री बिन्ध्याचल सिंह और श्री राम बिनोद सिंह (याचिकाकर्ता की ओर से)
- श्री कुमार प्रिया रंजन (प्रतिवादियों की ओर से)
निर्णय का लिंक
https://patnahighcourt.gov.in/viewjudgment/MTUjNzM0MyMyMDIwIzEjTg==-lKqZs0v3ZOQ==
यदि आपको यह जानकारी उपयोगी लगी और आप बिहार में कानूनी बदलावों से जुड़े रहना चाहते हैं, तो Samvida Law Associates को फॉलो कर सकते हैं।