निर्णय की सरल व्याख्या
यह मामला 1992 में बेगूसराय जिले के मोहनपुर गांव में हुई एक हत्या से जुड़ा है। मृतक अपने घर लौट रहे थे, तभी रास्ते में उन पर गोलीबारी की गई। इस घटना में कई लोगों को आरोपी बनाया गया और 1994 में निचली अदालत ने उन्हें दोषी ठहराकर उम्रकैद की सजा सुनाई थी। साथ ही आर्म्स एक्ट के तहत भी सजा दी गई थी।
लेकिन आरोपियों ने इस फैसले को पटना हाई कोर्ट में चुनौती दी। उच्च न्यायालय ने पूरे सबूतों और गवाहों की गवाही को फिर से परखा और पाया कि अभियोजन पक्ष (प्रॉसिक्यूशन) अपने आरोपों को “संदेह से परे” साबित नहीं कर सका। इसी कारण अदालत ने 21 अगस्त 2025 को आरोपियों को बरी कर दिया और उनकी जमानत बंधन खत्म कर दिए।
मामला शुरू हुआ था एक फर्दबeyan (प्रथम सूचना) से, जिसमें मृतक के बेटे ने कहा था कि उसके पिता को गांव के कुछ लोगों ने घेरकर गोली मारी। उसने दावा किया कि वह और उसका भाई प्रत्यक्षदर्शी (eyewitness) हैं। लेकिन अदालत में जब सबूतों की जांच हुई, तो गवाही में कई विरोधाभास सामने आए।
मुख्य बातें इस प्रकार थीं:
- मृतक के बेटे ने कहा कि उसने घटना को अपनी आंखों से देखा। लेकिन उसकी गवाही में यह साफ नहीं था कि वह घटना के समय कहां खड़ा था और उसने किस तरह से पूरा दृश्य देखा।
- उसका भाई भी गवाह बना, लेकिन उसका नाम प्रारंभिक बयान (फर्दबeyan) में नहीं था। उसका बयान भी पुलिस ने कई दिन बाद लिया। अदालत ने कहा कि यह “गंभीर चूक” है और उसकी गवाही पर भरोसा नहीं किया जा सकता।
- मौके से कोई खोखा (कारतूस), खून के धब्बे या साइकिल (जो कथित रूप से खून से सनी थी) जब्त नहीं की गई।
- डॉक्टर की रिपोर्ट के अनुसार गोली बाईं ओर से लगी थी, जबकि गवाह कह रहे थे कि सामने से और चारों तरफ से फायरिंग हुई।
अदालत ने कहा कि जब चिकित्सीय प्रमाण (medical evidence) और गवाहों की गवाही आपस में मेल न खाती हो, तो ऐसे मामले में अभियुक्त को दोषी नहीं ठहराया जा सकता।
इसी आधार पर अदालत ने कहा कि अभियोजन पक्ष पर्याप्त प्रमाण नहीं दे पाया और आरोपियों को संदेह का लाभ (benefit of doubt) देते हुए बरी कर दिया।
निर्णय का महत्व और इसका प्रभाव आम जनता या सरकार पर
यह फैसला आम लोगों के लिए एक अहम संदेश है कि किसी भी अपराध में केवल शक या अनुमान के आधार पर सजा नहीं दी जा सकती। अदालत तभी दोष सिद्ध करती है जब सबूत पुख्ता हों और गवाहों की गवाही साफ तथा भरोसेमंद हो।
पुलिस और प्रशासन के लिए यह एक चेतावनी है कि:
- घटनास्थल की जांच सही तरीके से करनी चाहिए।
- खोखा, खून, हथियार या अन्य सबूतों को जब्त कर फॉरेंसिक जांच करानी चाहिए।
- गवाहों के बयान समय पर और पूरी तरह दर्ज करने चाहिए।
यदि यह सब न किया जाए तो अदालत में मामला टिक नहीं पाएगा।
कानूनी मुद्दे और निर्णय
- क्या अभियोजन पक्ष यह साबित कर पाया कि आरोपियों ने मिलकर हत्या की?
- नहीं। गवाहों की गवाही विरोधाभासी थी और सबूत पर्याप्त नहीं थे।
- क्या केवल मृतक के बेटे की गवाही पर दोष सिद्ध हो सकता था?
- नहीं। उसकी गवाही में कई विरोधाभास थे और कोई ठोस समर्थन (corroboration) नहीं मिला।
- क्या डॉक्टर की रिपोर्ट (medical evidence) और गवाहों की गवाही मेल खाती थी?
- नहीं। डॉक्टर ने कहा कि गोली बाईं ओर से लगी, जबकि गवाहों ने कहा सामने और चारों तरफ से।
- क्या पुरानी दुश्मनी (motive) पर्याप्त थी?
- नहीं। अदालत ने कहा कि केवल दुश्मनी के आधार पर दोषी नहीं ठहराया जा सकता।
पार्टियों द्वारा संदर्भित निर्णय
- State of U.P. v. Satish, (2005) 3 SCC 114
- State of Punjab v. Sucha Singh & Ors., (2003) 3 SCC 153
- Sunil Kundu & Anr. v. State of Jharkhand, (2013) 4 SCC 422
न्यायालय द्वारा उपयोग में लाए गए निर्णय
- State of Uttarakhand v. Darshan Singh, (2020) 12 SCC 605
- Hanumant Govind Nargundkar v. State of M.P., AIR 1952 SC 343
- State v. Mahender Singh Dahiya, (2011) 3 SCC 109
- Ramesh Harijan v. State of U.P., (2012) 5 SCC 777
मामले का शीर्षक
Appellants v. State of Bihar (नाम छुपाए गए हैं)
केस नंबर
Criminal Appeal (DB) No. 208 of 1994 और Criminal Appeal (DB) No. 277 of 1994
न्यायमूर्ति गण का नाम
माननीय न्यायमूर्ति मोहित कुमार शाह
माननीय न्यायमूर्ति श्रीमती सोनी श्रीवास्तव
(निर्णय दिनांक: 21 अगस्त 2025)
वकीलों के नाम और किनकी ओर से पेश हुए
- अपीलकर्ताओं की ओर से: श्री अंश प्रसाद, अधिवक्ता; श्री शुभम प्रकाश, अधिवक्ता; श्री राजीव रंजन, अधिवक्ता
- राज्य की ओर से: श्रीमती शशि बाला वर्मा, अपर लोक अभियोजक
निर्णय का लिंक
NSMyMDgjMTk5NCMxI04=-wkA0kk4SMgk=.pdf
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