निर्णय की सरल व्याख्या
पटना हाई कोर्ट ने सितंबर 2020 में एक अहम फैसला सुनाया। यह मामला पश्चिम चंपारण जिले का था, जहाँ 2014 में एक मुखिया (ग्राम पंचायत प्रमुख) की हत्या हो गई थी। सरकार ने निचली अदालत द्वारा दिए गए बरी (acquittal) के आदेश को चुनौती दी थी, लेकिन हाई कोर्ट ने अपील खारिज करते हुए निचली अदालत का फैसला बरकरार रखा।
मामले के अनुसार, मृतक मुखिया अपने घर से पंचायत संबंधी काम के लिए निकले थे। थोड़ी देर बाद गोलियों की आवाज सुनाई दी। मृतक के पिता और चाचा ने दावा किया कि वे मौके पर पहुँचे और उन्होंने घायल अवस्था में अपने बेटे/भतीजे को देखा। उनका कहना था कि मृतक ने मरने से पहले मौखिक रूप से आरोपियों के नाम बताए।
हालांकि, ट्रायल कोर्ट ने 2018 में आरोपियों को बरी कर दिया। अदालत ने कहा कि मृतक को लगी गोलियाँ इतनी गंभीर थीं कि वे बोलने की स्थिति में नहीं थे। डॉक्टर ने पोस्टमार्टम रिपोर्ट में साफ लिखा कि ऐसी चोट लगने पर व्यक्ति तुरंत बेहोश हो जाता है और बोल नहीं सकता। इसलिए मौखिक “मरते वक्त बयान” (dying declaration) पर भरोसा नहीं किया जा सकता।
इसके अलावा, कोई स्वतंत्र गवाह सामने नहीं आया जिसने गोली चलाने या आरोपियों को घटनास्थल पर देखा हो। मृतक के परिवार के लोग ही मुख्य गवाह थे, और उनके बयान में कई विरोधाभास (contradictions) पाए गए। मोबाइल टॉवर लोकेशन और अन्य सबूतों ने भी उनकी मौजूदगी पर सवाल उठाया।
राज्य सरकार ने दलील दी कि पिता और चाचा के बयान ही काफी थे और उन्हें नज़रअंदाज़ नहीं किया जाना चाहिए। लेकिन हाई कोर्ट ने कहा कि जब मेडिकल सबूत और स्वतंत्र गवाहों की कमी से कहानी पर संदेह हो, तो सिर्फ परिजन के बयान पर दोषसिद्धि (conviction) नहीं हो सकती।
हाई कोर्ट ने यह भी कहा कि अपील में बरी के फैसले को पलटना मुश्किल होता है। जब तक निचली अदालत का फैसला पूरी तरह गलत या अनुचित न हो, तब तक उच्च अदालत उसमें दखल नहीं देती।
इसी आधार पर, अदालत ने सरकार की अपील खारिज कर दी और आरोपियों की बरी बरकरार रखी।
निर्णय का महत्व और इसका प्रभाव
- आम जनता के लिए: यह फैसला दिखाता है कि हत्या जैसे गंभीर मामलों में भी दोषसिद्धि तभी होगी जब सबूत पुख्ता और संदेह से परे हों।
- कानून व्यवस्था के लिए: यह निर्णय बताता है कि मेडिकल सबूत की अहमियत बहुत ज्यादा है। अगर मेडिकल रिपोर्ट गवाहों के बयान को खारिज कर दे तो अदालत गवाहों की बात नहीं मान सकती।
- सरकार और अभियोजन के लिए: ऐसे मामलों में स्वतंत्र गवाह और ठोस सबूत जुटाना जरूरी है, नहीं तो अभियोजन कमजोर हो जाता है।
- राजनीतिक पृष्ठभूमि वाले मामलों में: अदालत ने यह संकेत दिया कि केवल राजनीतिक रंजिश को आधार बनाकर दोषसिद्धि नहीं की जा सकती।
कानूनी मुद्दे और निर्णय
- मुद्दा 1: क्या मौखिक “मरते वक्त बयान” (oral dying declaration) मान्य था?
- निर्णय: नहीं, क्योंकि मेडिकल सबूत से साबित हुआ कि घायल बोलने की हालत में ही नहीं था।
- मुद्दा 2: क्या सिर्फ आरोपियों को भागते हुए देखने का सबूत पर्याप्त था?
- निर्णय: नहीं, जब तक घटनाओं की पूरी कड़ी (chain of circumstances) साबित न हो।
- मुद्दा 3: क्या हाई कोर्ट बरी के फैसले को पलट सकती थी?
- निर्णय: नहीं, क्योंकि ट्रायल कोर्ट का फैसला उचित और तार्किक था।
पार्टियों द्वारा संदर्भित निर्णय
- Sharad Birdhichand Sarda v. State of Maharashtra, AIR 1984 SC 1622
- Solanki Chimanbhai Ukabhai v. State of Gujarat, (1983) 2 SCC 174
- State of U.P. v. Hari Chand, (2009) 13 SCC 542
- State of U.P. v. Krishna Gopal, (1988) 4 SCC 302
- Dwarka Dass v. State of Haryana, (2003) 1 SCC 204
न्यायालय द्वारा उपयोग में लाए गए निर्णय
- वही निर्णय (ऊपर सूचीबद्ध) का उपयोग हाई कोर्ट ने भी किया।
मामले का शीर्षक
State of Bihar बनाम अभियुक्तगण (नाम गोपनीय)
केस नंबर
Govt. Appeal (DB) No. 7 of 2019
उद्धरण (Citation)
2021(2) PLJR 1
न्यायमूर्ति गण का नाम
- माननीय न्यायमूर्ति दिनेश कुमार सिंह
- माननीय न्यायमूर्ति अरविंद श्रीवास्तव
वकीलों के नाम और किनकी ओर से पेश हुए
- राज्य की ओर से: श्री दिलीप कुमार सिन्हा
- प्रतिवादी की ओर से: जानकारी उपलब्ध नहीं
निर्णय का लिंक
MjUjNyMyMDE5IzEjTg==-1VUlycG6XXQ=
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