निर्णय की सरल व्याख्या
पटना हाई कोर्ट ने 10 फरवरी 2021 को एक अहम आदेश दिया, जिसमें उसने स्वतः संज्ञान (suo motu) लेते हुए एक हत्या के मामले में मुख्य न्यायिक दंडाधिकारी (CJM), मोतिहारी द्वारा दी गई जमानत को रद्द कर दिया।
यह मामला तुरकौलिया थाना कांड संख्या 725/2020 से जुड़ा है। इसमें गंभीर धाराओं के तहत मुकदमा दर्ज हुआ था—भारतीय दंड संहिता की धारा 302/34, 120B और आर्म्स एक्ट की धारा 27।
मामले की पृष्ठभूमि इस प्रकार थी:
10 अक्टूबर 2020 की सुबह लगभग 6 बजे, सूचना देने वाले व्यक्ति के भाई मनोज सिंह पर मोटरसाइकिल से आए बदमाशों ने गोली चला दी। आरोप है कि चार लोग दो मोटरसाइकिल पर आए और उन्होंने सुनियोजित तरीके से हत्या कर दी। चश्मदीद गवाह (सूचक) का कहना था कि उसने अपराधियों को पहचान लिया था।
जांच के दौरान एक आरोपी (विपक्षी पार्टी संख्या 2) का नाम सामने आया। उसे एक अन्य हथियार अधिनियम के मामले में गिरफ्तार किया गया और बाद में इस हत्या मामले में भी न्यायिक हिरासत में भेजा गया। इसके बावजूद, 7 दिसंबर 2020 को CJM मोतिहारी ने उसे जमानत दे दी।
यह आदेश पटना हाई कोर्ट की प्रशासनिक जानकारी में आया। तब कोर्ट ने दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 397 और 401 के तहत अपने अधिकार का प्रयोग किया, जिनके अनुसार हाई कोर्ट किसी भी निचली अदालत के आदेश की वैधता और शुद्धता की जांच कर सकती है।
राज्य पक्ष की दलीलें:
- CJM का आदेश कानूनन गलत और धारा 437 Cr.P.C. के खिलाफ था।
- हत्या जैसे अपराध (जिसकी सजा मौत या उम्रकैद हो सकती है) में मजिस्ट्रेट को जमानत देने का अधिकार नहीं है।
- केस डायरी से पता चलता है कि आरोपी साजिश में शामिल था, उसने हमलावरों को मृतक की गतिविधियों की जानकारी दी और बाद में जाकर यह भी देखा कि पीड़ित मर चुका है या नहीं।
बचाव पक्ष की दलीलें:
- FIR दर्ज करने में 34 घंटे की देरी हुई थी।
- आरोपी का नाम FIR में नहीं था।
- कोई प्रत्यक्ष सबूत नहीं है, सिर्फ संदेह है।
- पूर्व में हाई कोर्ट के कुछ फैसलों में कहा गया था कि केवल संदेह के आधार पर जमानत नहीं रोकी जा सकती।
हाई कोर्ट का निष्कर्ष:
जस्टिस अश्वनी कुमार सिंह ने रिकॉर्ड की जांच की और पाया कि:
- 26.11.2020 को कोई जमानत आवेदन रिकॉर्ड पर नहीं था, फिर भी CJM ने लिखा कि आवेदन उसी दिन दाखिल हुआ।
- मजिस्ट्रेट ने अभियोजन पक्ष की कड़ी आपत्ति और केस डायरी में मौजूद महत्वपूर्ण सामग्री को नजरअंदाज कर दिया।
- धारा 437 Cr.P.C. स्पष्ट रूप से कहती है कि हत्या जैसे अपराध में जमानत नहीं दी जा सकती, सिवाय कुछ अपवादों (महिला, नाबालिग, बीमार या अस्वस्थ आरोपी) के।
कोर्ट ने सुप्रीम कोर्ट के कई फैसलों का हवाला दिया, जिनमें कहा गया है कि हत्या जैसे गंभीर अपराधों में जमानत बहुत सावधानी से और ठोस कारणों के साथ ही दी जानी चाहिए।
इसलिए हाई कोर्ट ने माना कि CJM ने अधिकार क्षेत्र से बाहर जाकर जमानत दी और यह आदेश कानूनी दृष्टि से गलत था। नतीजतन, 7 दिसंबर 2020 का जमानत आदेश रद्द कर दिया गया और आरोपी को दोबारा हिरासत में लेने का निर्देश दिया गया।
निर्णय का महत्व और इसका प्रभाव आम जनता या सरकार पर
- यह फैसला साफ करता है कि मजिस्ट्रेट हत्या जैसे अपराध में जमानत नहीं दे सकते, जब तक कि आरोपी विशेष परिस्थितियों (नाबालिग, महिला, बीमार) में न हो।
- यह संदेश देता है कि गंभीर अपराधों में मनमानी या गलत तरीके से जमानत देने पर हाई कोर्ट सीधे हस्तक्षेप करेगा।
- पीड़ित परिवारों को यह भरोसा मिलता है कि अपराधियों को तकनीकी खामियों के चलते आसानी से छोड़ा नहीं जा सकता।
- राज्य सरकार और अभियोजन पक्ष के लिए यह फैसला मजबूती का काम करता है, ताकि अपराधियों के खिलाफ मुकदमा सही तरीके से चल सके।
कानूनी मुद्दे और निर्णय
- क्या मजिस्ट्रेट हत्या जैसे अपराध में जमानत दे सकते हैं?
- निर्णय: नहीं। ऐसे मामलों में केवल सेशन कोर्ट या हाई कोर्ट जमानत दे सकते हैं।
- क्या CJM का जमानत आदेश वैध था?
- निर्णय: नहीं। यह आदेश रिकॉर्ड और कानून दोनों के खिलाफ था।
- क्या केस डायरी में आरोपी की संलिप्तता दिखाई देती है?
- निर्णय: हाँ, आरोपी की सक्रिय भूमिका और साजिश में शामिल होने के पर्याप्त संकेत मिले।
- राहत: 7 दिसंबर 2020 का जमानत आदेश रद्द, आरोपी को दोबारा जेल भेजने का आदेश।
पार्टियों द्वारा संदर्भित निर्णय
- Dinesh Parwat v. State of Bihar, 2007 (4) PLJR 62
न्यायालय द्वारा उपयोग में लाए गए निर्णय
- Prahlad Kumar Bhati v. NCT of Delhi, 2001 (2) PLJR SC 205
- Puran v. Rambilas, (2001) 6 SCC 338
- Ram Govind Upadhyay v. Sudarshan Singh, (2002) 3 SCC 598
- Prasanta Kumar Sarkar v. Ashis Chatterjee, (2010) 14 SCC 496
- Gurcharan Singh v. State (Delhi Admn.), (1978) 1 SCC 118
- Deepak Subhashchandra Mehta v. CBI, 2012 (2) PLJR (SC) 136
- Kalyan Chandra Sarkar v. Rajesh Ranjan @ Pappu Yadav, SC
मामले का शीर्षक
Suo Motu बनाम State of Bihar एवं अन्य
केस नंबर
Criminal Revision No. 2 of 2021 (Turkauliya P.S. Case No. 725/2020 से उत्पन्न)
उद्धरण (Citation)
पटना हाई कोर्ट का फैसला: हत्या मामले में मजिस्ट्रेट द्वारा दी गई जमानत रद्द (2021)
निर्णय की सरल व्याख्या
पटना हाई कोर्ट ने 10 फरवरी 2021 को एक अहम आदेश दिया, जिसमें उसने स्वतः संज्ञान (suo motu) लेते हुए एक हत्या के मामले में मुख्य न्यायिक दंडाधिकारी (CJM), मोतिहारी द्वारा दी गई जमानत को रद्द कर दिया।
यह मामला तुरकौलिया थाना कांड संख्या 725/2020 से जुड़ा है। इसमें गंभीर धाराओं के तहत मुकदमा दर्ज हुआ था—भारतीय दंड संहिता की धारा 302/34, 120B और आर्म्स एक्ट की धारा 27।
मामले की पृष्ठभूमि इस प्रकार थी:
10 अक्टूबर 2020 की सुबह लगभग 6 बजे, सूचना देने वाले व्यक्ति के भाई मनोज सिंह पर मोटरसाइकिल से आए बदमाशों ने गोली चला दी। आरोप है कि चार लोग दो मोटरसाइकिल पर आए और उन्होंने सुनियोजित तरीके से हत्या कर दी। चश्मदीद गवाह (सूचक) का कहना था कि उसने अपराधियों को पहचान लिया था।
जांच के दौरान एक आरोपी (विपक्षी पार्टी संख्या 2) का नाम सामने आया। उसे एक अन्य हथियार अधिनियम के मामले में गिरफ्तार किया गया और बाद में इस हत्या मामले में भी न्यायिक हिरासत में भेजा गया। इसके बावजूद, 7 दिसंबर 2020 को CJM मोतिहारी ने उसे जमानत दे दी।
यह आदेश पटना हाई कोर्ट की प्रशासनिक जानकारी में आया। तब कोर्ट ने दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 397 और 401 के तहत अपने अधिकार का प्रयोग किया, जिनके अनुसार हाई कोर्ट किसी भी निचली अदालत के आदेश की वैधता और शुद्धता की जांच कर सकती है।
राज्य पक्ष की दलीलें:
- CJM का आदेश कानूनन गलत और धारा 437 Cr.P.C. के खिलाफ था।
- हत्या जैसे अपराध (जिसकी सजा मौत या उम्रकैद हो सकती है) में मजिस्ट्रेट को जमानत देने का अधिकार नहीं है।
- केस डायरी से पता चलता है कि आरोपी साजिश में शामिल था, उसने हमलावरों को मृतक की गतिविधियों की जानकारी दी और बाद में जाकर यह भी देखा कि पीड़ित मर चुका है या नहीं।
बचाव पक्ष की दलीलें:
- FIR दर्ज करने में 34 घंटे की देरी हुई थी।
- आरोपी का नाम FIR में नहीं था।
- कोई प्रत्यक्ष सबूत नहीं है, सिर्फ संदेह है।
- पूर्व में हाई कोर्ट के कुछ फैसलों में कहा गया था कि केवल संदेह के आधार पर जमानत नहीं रोकी जा सकती।
हाई कोर्ट का निष्कर्ष:
जस्टिस अश्वनी कुमार सिंह ने रिकॉर्ड की जांच की और पाया कि:
- 26.11.2020 को कोई जमानत आवेदन रिकॉर्ड पर नहीं था, फिर भी CJM ने लिखा कि आवेदन उसी दिन दाखिल हुआ।
- मजिस्ट्रेट ने अभियोजन पक्ष की कड़ी आपत्ति और केस डायरी में मौजूद महत्वपूर्ण सामग्री को नजरअंदाज कर दिया।
- धारा 437 Cr.P.C. स्पष्ट रूप से कहती है कि हत्या जैसे अपराध में जमानत नहीं दी जा सकती, सिवाय कुछ अपवादों (महिला, नाबालिग, बीमार या अस्वस्थ आरोपी) के।
कोर्ट ने सुप्रीम कोर्ट के कई फैसलों का हवाला दिया, जिनमें कहा गया है कि हत्या जैसे गंभीर अपराधों में जमानत बहुत सावधानी से और ठोस कारणों के साथ ही दी जानी चाहिए।
इसलिए हाई कोर्ट ने माना कि CJM ने अधिकार क्षेत्र से बाहर जाकर जमानत दी और यह आदेश कानूनी दृष्टि से गलत था। नतीजतन, 7 दिसंबर 2020 का जमानत आदेश रद्द कर दिया गया और आरोपी को दोबारा हिरासत में लेने का निर्देश दिया गया।
निर्णय का महत्व और इसका प्रभाव आम जनता या सरकार पर
- यह फैसला साफ करता है कि मजिस्ट्रेट हत्या जैसे अपराध में जमानत नहीं दे सकते, जब तक कि आरोपी विशेष परिस्थितियों (नाबालिग, महिला, बीमार) में न हो।
- यह संदेश देता है कि गंभीर अपराधों में मनमानी या गलत तरीके से जमानत देने पर हाई कोर्ट सीधे हस्तक्षेप करेगा।
- पीड़ित परिवारों को यह भरोसा मिलता है कि अपराधियों को तकनीकी खामियों के चलते आसानी से छोड़ा नहीं जा सकता।
- राज्य सरकार और अभियोजन पक्ष के लिए यह फैसला मजबूती का काम करता है, ताकि अपराधियों के खिलाफ मुकदमा सही तरीके से चल सके।
कानूनी मुद्दे और निर्णय
- क्या मजिस्ट्रेट हत्या जैसे अपराध में जमानत दे सकते हैं?
- निर्णय: नहीं। ऐसे मामलों में केवल सेशन कोर्ट या हाई कोर्ट जमानत दे सकते हैं।
- क्या CJM का जमानत आदेश वैध था?
- निर्णय: नहीं। यह आदेश रिकॉर्ड और कानून दोनों के खिलाफ था।
- क्या केस डायरी में आरोपी की संलिप्तता दिखाई देती है?
- निर्णय: हाँ, आरोपी की सक्रिय भूमिका और साजिश में शामिल होने के पर्याप्त संकेत मिले।
- राहत: 7 दिसंबर 2020 का जमानत आदेश रद्द, आरोपी को दोबारा जेल भेजने का आदेश।
पार्टियों द्वारा संदर्भित निर्णय
- Dinesh Parwat v. State of Bihar, 2007 (4) PLJR 62
न्यायालय द्वारा उपयोग में लाए गए निर्णय
- Prahlad Kumar Bhati v. NCT of Delhi, 2001 (2) PLJR SC 205
- Puran v. Rambilas, (2001) 6 SCC 338
- Ram Govind Upadhyay v. Sudarshan Singh, (2002) 3 SCC 598
- Prasanta Kumar Sarkar v. Ashis Chatterjee, (2010) 14 SCC 496
- Gurcharan Singh v. State (Delhi Admn.), (1978) 1 SCC 118
- Deepak Subhashchandra Mehta v. CBI, 2012 (2) PLJR (SC) 136
- Kalyan Chandra Sarkar v. Rajesh Ranjan @ Pappu Yadav, SC
मामले का शीर्षक
Suo Motu बनाम State of Bihar एवं अन्य
केस नंबर
Criminal Revision No. 2 of 2021 (Turkauliya P.S. Case No. 725/2020 से उत्पन्न)
उद्धरण (Citation)
2021(2) PLJR 184
न्यायमूर्ति गण का नाम
माननीय न्यायमूर्ति अश्वनी कुमार सिंह
वकीलों के नाम और किनकी ओर से पेश हुए
- राज्य की ओर से: श्री अजय मिश्रा, एपीपी
- विपक्षी पार्टी संख्या 2 की ओर से: श्री राजेश रंजन, अधिवक्ता
निर्णय का लिंक
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