निर्णय की सरल व्याख्या
पटना हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण मामले में यह स्पष्ट कर दिया कि विश्वविद्यालयों की परीक्षा व्यवस्था और मूल्यांकन प्रक्रिया में न्यायालय केवल उन्हीं स्थितियों में हस्तक्षेप करेगा, जब कोई गंभीर कानूनी गड़बड़ी या अन्याय सामने आता है।
यह मामला एक छात्र से जुड़ा था, जिसने बी.एससी. (रसायन शास्त्र ऑनर्स) की पढ़ाई की थी। उसने पार्ट- I और पार्ट- II की परीक्षा दी और लिखित अंकों के आधार पर पार्ट- III में प्रोन्नत कर दिया गया। लेकिन पार्ट- III का परिणाम घोषित नहीं हुआ। छात्र ने हाईकोर्ट में याचिका दाखिल कर यह मांग की कि—
- विश्वविद्यालय उसके पार्ट- III का परिणाम प्रकाशित करे।
- पार्ट- II (विशेषकर पेपर-IV) की उत्तरपुस्तिका का पुनर्मूल्यांकन या पुनः जांच हो।
- मूल्यांकन और अंकतालिका में हुई कथित गड़बड़ियों को सुधारा जाए।
छात्र ने आरटीआई से प्राप्त दस्तावेजों का हवाला देकर कहा कि उसकी उत्तरपुस्तिका में दिए गए अंकों और अंक तालिका में दर्ज अंकों में अंतर है।
विश्वविद्यालय की दलील
विश्वविद्यालय ने कोर्ट को बताया कि छात्र वास्तव में पार्ट- II (2016) की परीक्षा में असफल हुआ था। उसे पेपर-III में 48 अंक और पेपर-IV में 16 अंक मिले थे। दोनों को मिलाकर कुल अंक 64 बने, जबकि पास होने के लिए 67 अंक जरूरी थे।
जांच में यह सामने आया कि विश्वविद्यालय के एक कॉलेज में अंक तालिका (Tabulation Register) से छेड़छाड़ की गई थी। कई असफल छात्रों के अंक बढ़ाकर उन्हें “प्रोन्नत” दिखा दिया गया। यही गड़बड़ी छात्र के मामले में भी हुई। पेपर-IV में उसे 16 अंक मिले थे लेकिन अंकतालिका में 19 अंक लिख दिए गए ताकि कुल 67 अंक पूरे हो जाएं।
विश्वविद्यालय ने एक जांच समिति बनाई, जिसने इस हेरफेर की पुष्टि की और अनुशंसा की कि ऐसे छात्रों के परिणाम रद्द किए जाएं। परीक्षा बोर्ड ने भी समिति की अनुशंसा को स्वीकार कर लिया। इस प्रकरण में एफआईआर भी दर्ज हुई और आपराधिक जांच अलग से चल रही है।
कोर्ट की जांच
कोर्ट ने छात्र की उत्तरपुस्तिका और अंकतालिका की तुलना की। यह पाया गया कि उत्तरपुस्तिका में पेपर-IV के केवल 16 अंक दर्ज हैं, जबकि अंकतालिका में 19 अंक दिखाए गए हैं।
इसके अलावा, जब कोर्ट ने उत्तरपुस्तिका देखी, तो पाया कि कई उत्तर प्रश्नपत्र से मेल ही नहीं खा रहे थे। कुछ उत्तरों पर शून्य अंक दिए गए थे। एक उत्तर को 5 अंक मिले, जबकि दूसरे उत्तर को गलत क्रमांकित करने के बावजूद 3 अंक लिखे गए। लेकिन उत्तरपुस्तिका के पहले पन्ने पर कुल 13 अंक लिखे गए थे, जो आंतरिक मूल्यांकन से मेल नहीं खा रहे थे।
छात्र का यह तर्क कि उसकी कॉपी को “रद्द किए गए प्रश्नपत्र” के आधार पर जांचा गया, कोर्ट ने खारिज कर दिया। कोर्ट ने कहा कि ऐसा कोई सबूत नहीं है।
कोर्ट का अंतिम निर्णय
हाईकोर्ट ने कहा कि—
- परीक्षा बोर्ड और कुलपति द्वारा गठित समिति ने जांच करके अपना निष्कर्ष दिया है।
- यह निर्णय विशेषज्ञ निकायों का है और अदालत इनके स्थान पर बैठकर पुनः मूल्यांकन नहीं कर सकती।
- विश्वविद्यालय में पुनर्मूल्यांकन (Re-evaluation) का कोई प्रावधान ही नहीं है।
इसलिए छात्र की याचिका खारिज कर दी गई।
निर्णय का महत्व और इसका प्रभाव आम जनता या सरकार पर
यह फैसला छात्रों और विश्वविद्यालय दोनों के लिए महत्वपूर्ण संदेश देता है।
- छात्रों के लिए:
- यदि किसी विश्वविद्यालय के नियमों में पुनर्मूल्यांकन का प्रावधान नहीं है, तो कोर्ट भी इसे लागू नहीं कर सकता।
- केवल “गलत जांच” का आरोप लगाकर पुनर्मूल्यांकन की मांग स्वीकार नहीं होगी।
- वास्तविक उत्तरपुस्तिका ही अंतिम आधार मानी जाएगी, न कि अंकतालिका।
- विश्वविद्यालय और परीक्षा निकायों के लिए:
- विश्वविद्यालय अपने स्तर पर परीक्षा में हुई गड़बड़ी की जांच कर सकते हैं और नतीजों को सुधार सकते हैं।
- जब जांच समिति और परीक्षा बोर्ड कोई निर्णय लेते हैं, तो कोर्ट उस पर भरोसा करता है, यदि वह निष्पक्ष और विधिसम्मत हो।
- आपराधिक जांच और शैक्षणिक सुधार दोनों समानांतर चल सकते हैं।
यह फैसला शिक्षा व्यवस्था में पारदर्शिता बनाए रखने और छात्रों को यह संदेश देने के लिए अहम है कि केवल वास्तविक योग्यता के आधार पर ही परिणाम तय होंगे।
कानूनी मुद्दे और निर्णय
- क्या छात्र का पार्ट- III का परिणाम प्रकाशित होना चाहिए?
❌ नहीं। जब तक पार्ट- II पास नहीं किया गया, पार्ट- III का परिणाम प्रकाशित नहीं हो सकता। - क्या उत्तरपुस्तिका का पुनर्मूल्यांकन हो सकता है?
❌ नहीं। विश्वविद्यालय ने स्पष्ट कहा कि पुनर्मूल्यांकन का कोई प्रावधान नहीं है और कोर्ट ने भी यही माना। - क्या अंक तालिका में हुई गड़बड़ी को नजरअंदाज किया जा सकता है?
❌ नहीं। जांच समिति और परीक्षा बोर्ड ने पाया कि अंक बढ़ाकर छात्र को “प्रोन्नत” दिखाया गया। कोर्ट ने भी इसे सही माना। - क्या उत्तरपुस्तिका रद्द प्रश्नपत्र से जांची गई थी?
❌ नहीं। कोर्ट ने पाया कि छात्र के उत्तर सही प्रश्नों से मेल नहीं खाते थे, इसलिए यह दलील मान्य नहीं हुई।
पार्टियों द्वारा संदर्भित निर्णय
- Ashutosh Kumar Karn v. Tilka Manjhi Bhagalpur University & Ors., 2017 (2) PLJR 468
- Sweta Kumari & Ors. v. The Magadh University & Ors., CWJC No. 6281 of 2018, दिनांक 15.05.2018
मामले का शीर्षक
Deepak Kumar बनाम Baba Saheb Bhimrao Ambedkar Bihar University, Muzaffarpur एवं अन्य
केस नंबर
Civil Writ Jurisdiction Case No. 8315 of 2019
उद्धरण (Citation)
2021(2) PLJR 200
न्यायमूर्ति गण का नाम
माननीय श्री न्यायमूर्ति राजीव रंजन प्रसाद
वकीलों के नाम और किनकी ओर से पेश हुए
- याचिकाकर्ता की ओर से: श्री लक्ष्मी कांत तिवारी, अधिवक्ता; श्री नितेश कुमार, अधिवक्ता
- प्रतिवादी विश्वविद्यालय की ओर से: श्री संदीप कुमार, अधिवक्ता; श्री इंद्रजेश कुमार, अधिवक्ता
निर्णय का लिंक
MTUjODMxNSMyMDE5IzEjTg==-Q1LAYIW–ak1–X7k=
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