निर्णय की सरल व्याख्या
पटना उच्च न्यायालय ने एक सरकारी कर्मचारी की बर्खास्तगी को रद्द करते हुए कहा कि विभागीय अधिकारी ने बिहार सरकारी सेवक (वर्गीकरण, नियंत्रण और अपील) नियमावली, 2005 के नियम 18(2) का पालन नहीं किया। यह नियम यह सुनिश्चित करता है कि जब जांच अधिकारी किसी कर्मचारी को आरोपों से निर्दोष पाता है, तब अनुशासनात्मक अधिकारी बिना उचित कारण बताए या बिना सुनवाई का अवसर दिए सीधे सजा नहीं दे सकता।
यह मामला एक सहकारी विभाग के लिपिक से जुड़ा था, जिस पर 2011 में निगरानी विभाग ने रिश्वत मांगने का आरोप लगाया था। एफआईआर दर्ज हुई, कर्मचारी को निलंबित किया गया और बाद में सेवा में बहाल कर दिया गया। फिर 2012 में एक विभागीय जांच शुरू की गई। जांच अधिकारी ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि कोई भी आरोप साबित नहीं हुआ। इसके बावजूद, विभागीय अधिकारी ने बिना कोई ठोस कारण बताए 2014 में बर्खास्तगी का आदेश जारी कर दिया। कर्मचारी की अपील भी बाद में खारिज कर दी गई।
कर्मचारी ने इस आदेश को चुनौती देते हुए उच्च न्यायालय में याचिका दायर की (CWJC No. 443 of 2022)। अदालत ने पाया कि विभाग ने कई मूलभूत नियमों का उल्लंघन किया:
- चार्जशीट में आरोपों का पूरा विवरण, गवाहों की सूची और दस्तावेज़ों का सही उल्लेख नहीं था।
- जांच में किसी गवाह से जिरह नहीं कराई गई और न ही कोई साक्ष्य प्रस्तुत किया गया।
- जांच अधिकारी की रिपोर्ट में कर्मचारी को निर्दोष माना गया, लेकिन अनुशासनिक अधिकारी ने बिना कारण बताए उसे दोषी ठहराया।
- न तो कर्मचारी को अपना पक्ष रखने का अवसर मिला और न ही निर्णय में किसी ठोस साक्ष्य का उल्लेख था।
अदालत ने कहा कि नियम 18(2) स्पष्ट रूप से कहता है कि यदि विभागीय अधिकारी जांच अधिकारी की रिपोर्ट से असहमत है, तो उसे लिखित रूप में कारण बताना और कर्मचारी को जवाब देने का अवसर देना अनिवार्य है। ऐसा नहीं करने पर पूरी कार्यवाही अमान्य मानी जाएगी।
न्यायालय ने सुप्रीम कोर्ट के कुछ महत्वपूर्ण फैसलों का हवाला दिया —
Punjab National Bank बनाम Kunj Behari Misra (1998) और Yoginath D. Bagde बनाम महाराष्ट्र राज्य (1999) — जिनमें यह कहा गया था कि किसी कर्मचारी को तब तक सजा नहीं दी जा सकती जब तक उसे असहमति के कारण बताकर सुनवाई का अवसर न दिया जाए।
इसके अलावा, अदालत ने कहा कि एफआईआर या निगरानी रिपोर्ट अपने आप में साक्ष्य नहीं होती। दस्तावेजों को गवाहों के माध्यम से साबित करना ज़रूरी है। इस सिद्धांत को सुप्रीम कोर्ट ने Roop Singh Negi बनाम पंजाब नेशनल बैंक (2009) में स्पष्ट किया था।
पटना उच्च न्यायालय ने यह भी बताया कि इसी तरह के आरोपों में एक अन्य कर्मचारी को पहले ही इसी अदालत ने राहत दी थी (CWJC No. 11695 of 2018)। इसलिए समान स्थिति में इस मामले में भी वही निर्णय लागू होगा।
अंततः अदालत ने बर्खास्तगी आदेश (13.05.2014) और अपील आदेश (15.04.2019) दोनों को निरस्त कर दिया। विभाग को निर्देश दिया गया कि 12 सप्ताह के भीतर कर्मचारी को पुनः सेवा में बहाल किया जाए और सभी सेवा लाभ दिए जाएं। हालांकि अदालत ने यह भी कहा कि यदि निगरानी विभाग का आपराधिक मामला अभी लंबित है, तो उसके परिणाम के अनुसार सरकार आगे कार्रवाई कर सकती है।
निर्णय का महत्व और इसका प्रभाव आम जनता या सरकार पर
यह फैसला सरकारी सेवकों और विभागों दोनों के लिए बेहद महत्वपूर्ण है।
- प्राकृतिक न्याय का पालन: जब जांच अधिकारी किसी को निर्दोष ठहराता है, तो विभाग सीधे सजा नहीं दे सकता। पहले कारण बताना और सुनवाई देना अनिवार्य है।
- साक्ष्य का महत्व: केवल एफआईआर या आरोप पत्र से किसी को दोषी नहीं ठहराया जा सकता। विभाग को साक्ष्य पेश करने और जांच की प्रक्रिया सही ढंग से पूरी करनी होगी।
- निष्पक्ष प्रशासनिक कार्रवाई: यह फैसला सरकारी विभागों को यह याद दिलाता है कि अनुशासनात्मक कार्यवाही भी संविधानिक न्याय सिद्धांतों से बंधी होती है।
- कर्मचारियों के अधिकारों की रक्षा: अगर विभागीय जांच में कोई दोष सिद्ध नहीं होता, तो कर्मचारी को राहत मिलनी चाहिए।
यह निर्णय न केवल सरकारी कर्मचारियों के लिए एक मिसाल है, बल्कि यह भी सुनिश्चित करता है कि प्रशासनिक निर्णय न्यायसंगत और पारदर्शी रहें।
कानूनी मुद्दे और निर्णय
• क्या विभागीय अधिकारी जांच अधिकारी की रिपोर्ट से असहमत होकर बिना कारण बताए सजा दे सकता है?
👉 नहीं। नियम 18(2) के अनुसार पहले कारण दर्ज करना और कर्मचारी को जवाब देने का अवसर देना आवश्यक है।
• क्या एफआईआर या निगरानी रिपोर्ट ही पर्याप्त साक्ष्य मानी जा सकती है?
👉 नहीं। सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि दस्तावेज़ों को गवाहों के माध्यम से साबित करना जरूरी है।
• क्या सुनवाई की पूरी प्रक्रिया (गवाहों की पेशी, जिरह आदि) न करने से विभागीय कार्यवाही अमान्य हो जाती है?
👉 हाँ। यह प्राकृतिक न्याय का उल्लंघन है।
• क्या गैर-विवेचित (non-speaking) आदेश टिक सकता है?
👉 नहीं। ऐसे आदेश न्यायिक जांच में अस्थिर रहते हैं।
• क्या समान परिस्थिति में दूसरे कर्मचारी को राहत मिलने से वर्तमान कर्मचारी को भी लाभ मिल सकता है?
👉 हाँ। समान मामले में समान न्याय लागू होगा।
पार्टियों द्वारा संदर्भित निर्णय
• Punjab National Bank v. Kunj Behari Misra, (1998) 7 SCC 84
• Roop Singh Negi v. Punjab National Bank, (2009) 2 SCC 570
न्यायालय द्वारा उपयोग में लाए गए निर्णय
• Punjab National Bank v. Kunj Behari Misra, (1998) 7 SCC 84
• Yoginath D. Bagde v. State of Maharashtra, (1999) 7 SCC 739
• Roop Singh Negi v. Punjab National Bank, (2009) 2 SCC 570
• State of Uttaranchal v. Kharak Singh, (2008) 8 SCC 236
मामले का शीर्षक
रवि कुमार बनाम बिहार राज्य एवं अन्य
केस नंबर
CWJC No. 443 of 2022
उद्धरण (Citation)
2025 (1) PLJR 590
न्यायमूर्ति गण का नाम
माननीय श्री न्यायमूर्ति हरीश कुमार
वकीलों के नाम और किनकी ओर से पेश हुए
• श्री पुरूषोत्तम कुमार झा — याचिकाकर्ता की ओर से
• श्री उदय शंकर शरण सिंह (GP-19) — राज्य की ओर से
निर्णय का लिंक
MTUjNDQzIzIwMjIjMSNO-qjsqPrXSeJM=
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