निर्णय की सरल व्याख्या
पटना उच्च न्यायालय ने एक महत्वपूर्ण फैसला सुनाते हुए दो अभियुक्तों को बरी कर दिया, जिन्हें पहले निचली अदालत ने अपहरण और दुष्कर्म के गंभीर आरोपों में दोषी ठहराया था। यह मामला 2010 में भागलपुर जिले के कहलगांव थाना क्षेत्र से जुड़ा था। आरोप यह था कि दोनों अभियुक्तों ने मिलकर एक नाबालिग लड़की का अपहरण किया और उनमें से एक ने उसके साथ दुष्कर्म किया।
निचली अदालत ने वर्ष 2017 में सत्र वाद संख्या 1054/2010 व 785/2011 में दोनों अभियुक्तों को भारतीय दंड संहिता की धारा 366A (नाबालिग लड़की को बहकाना या ले जाना) के तहत 5 वर्ष की सज़ा और एक अभियुक्त को धारा 376 (बलात्कार) के तहत 7 वर्ष की सज़ा सुनाई थी। दोनों सज़ाएँ एक साथ चलने का आदेश दिया गया था।
अभियुक्तों ने इस फैसले के खिलाफ पटना हाई कोर्ट में अपील दायर की। अपील की सुनवाई माननीय न्यायमूर्ति बिरेंद्र कुमार की एकलपीठ ने की और 12 मार्च 2021 को अपना निर्णय सुनाया। अदालत ने पाया कि निचली अदालत ने साक्ष्यों का सही मूल्यांकन नहीं किया था और मामले में अनेक गंभीर संदेह बने हुए थे।
मामले की पृष्ठभूमि यह थी कि पीड़िता के पिता ने 19 फरवरी 2010 को एफआईआर दर्ज कराई। उनके अनुसार 10 फरवरी को जब वे और उनकी पत्नी घर पर नहीं थे, तभी दोनों अभियुक्तों ने उनकी बेटी को जबरन मोटरसाइकिल से उठा लिया। दो गांववालों ने घटना को देखा और जब उन्होंने विरोध किया तो अभियुक्तों ने उन्हें धमकी दी।
लेकिन जब मुकदमा चला, तो ये दोनों प्रत्यक्षदर्शी गवाह अदालत में मुकर गए। माता-पिता का बयान अदालत ने “सुनी-सुनाई बात” माना क्योंकि वे खुद घटना के समय मौजूद नहीं थे। अब पूरा मामला केवल पीड़िता के बयान पर टिक गया था।
चिकित्सा जांच में भी कोई ऐसा प्रमाण नहीं मिला जिससे बलात्कार की पुष्टि होती। डॉक्टर को पीड़िता के शरीर पर चोट के निशान नहीं मिले, ना ही नमूने में शुक्राणु या बाहरी बाल पाए गए। यह जांच घटना के पाँच दिन बाद हुई थी।
रक्षा पक्ष ने तीन गवाह पेश किए और कहा कि अभियुक्तों को झूठे मुकदमे में फंसाया गया है, क्योंकि पीड़िता के पिता और अभियुक्तों के बीच पहले से मजदूरी के भुगतान को लेकर झगड़ा चल रहा था (NTPC, बरह परियोजना से संबंधित काम का विवाद)।
उच्च न्यायालय ने जब सबूतों की समीक्षा की, तो कई विरोधाभास सामने आए। एफआईआर में कहा गया था कि लड़की को घर से अपहरण किया गया, जबकि लड़की ने अदालत में कहा कि उसे स्कूल जाते समय रास्ते में उठाया गया। लड़की ने यह भी बताया कि उसे कई दिनों तक अलग-अलग जगहों—तुलसीपुर और मोरडिहा गाँव—में रखा गया, जहाँ कई लोग मौजूद थे, पर पुलिस ने उन लोगों को कभी पूछताछ के लिए नहीं बुलाया।
लड़की ने कहा कि वह 19 फरवरी को किसी तरह भागकर कहलगांव थाना पहुँची, पर उसका बयान अगले दिन 20 फरवरी को दर्ज किया गया। अदालत ने माना कि इस देरी से पुलिस की कार्यवाही पर सवाल उठता है।
इसके अलावा, लड़की का व्यवहार भी “जबरन ले जाए जाने” की स्थिति से मेल नहीं खाता। उसने कई दिनों तक अभियुक्त के साथ यात्रा की, घरों में अन्य लोगों से बातचीत की और किसी अवसर पर मदद नहीं मांगी। अदालत ने कहा कि ऐसा व्यवहार तब संभव है जब पीड़िता की कुछ हद तक सहमति हो या कम से कम उसकी मर्जी के खिलाफ चीजें न हुई हों।
एफआईआर दर्ज करने में भी नौ दिन की देरी हुई, जबकि परिवार को उसी दिन से जानकारी थी कि लड़की को कौन ले गया है। अदालत ने कहा कि यह देरी स्वाभाविक नहीं लगती और इससे यह संभावना बनती है कि शिकायत सोच-समझकर बाद में की गई।
अदालत ने कहा कि यद्यपि यौन अपराधों में पीड़िता का बयान बहुत महत्वपूर्ण माना जाता है, लेकिन जब उसके बयान में गंभीर विरोधाभास या असंगति हो, तो न्यायालय को अतिरिक्त साक्ष्य या समर्थन की आवश्यकता होती है ताकि किसी निर्दोष व्यक्ति को दंडित न किया जाए।
माननीय न्यायालय ने उच्चतम न्यायालय के कई फैसलों का हवाला दिया—State of Punjab v. Gurmit Singh (1996), Raju v. State of M.P. (2008), Rai Sandeep v. State (NCT of Delhi) (2012) और State of M.P. v. Munna @ Shambhu Nath (2016)—जिनमें कहा गया था कि यदि पीड़िता का बयान “निष्पक्ष, स्पष्ट और परिस्थितियों से मेल खाने वाला” न हो, तो उस पर अकेले आधारित होकर सज़ा देना उचित नहीं होगा।
अदालत ने यह भी पाया कि पीड़िता की उम्र को लेकर पुख्ता प्रमाण नहीं दिए गए। डॉक्टर ने केवल “संभावित आयु” बताई, लेकिन सटीक उम्र साबित नहीं हुई। ऐसे में यह निश्चित नहीं था कि वह घटना के समय 18 वर्ष से कम थी या नहीं।
इन सभी तथ्यों के आधार पर उच्च न्यायालय ने कहा कि निचली अदालत का फैसला टिकाऊ नहीं है और अभियुक्तों को संदेह का लाभ मिलना चाहिए। इसलिए दोनों अपीलें स्वीकार की गईं, दोनों अभियुक्त बरी कर दिए गए और जो अभियुक्त जेल में था उसे तत्काल रिहा करने का आदेश दिया गया।
निर्णय का महत्व और इसका प्रभाव
यह फैसला बिहार के लिए एक अहम कानूनी संदेश देता है। अदालत ने यह स्पष्ट किया कि यौन अपराध जैसे गंभीर मामलों में भी न्याय केवल भावनाओं या अनुमानों पर नहीं, बल्कि ठोस साक्ष्यों पर आधारित होना चाहिए।
सार्वजनिक महत्व के तीन प्रमुख बिंदु:
- एफआईआर में देरी का महत्व – यदि शिकायत दर्ज करने में अनुचित देरी हो और कोई ठोस कारण न बताया जाए, तो मामला कमजोर पड़ सकता है।
- सुसंगत बयान की आवश्यकता – पीड़िता के बयान में यदि मुख्य तथ्यों पर बार-बार बदलाव हो, तो अदालत को सावधानी बरतनी होती है।
- उम्र का सही प्रमाण जरूरी – जब नाबालिगता का प्रश्न हो, तो केवल अनुमान या डॉक्टर की राय पर्याप्त नहीं होती; जन्म प्रमाणपत्र या स्कूल रिकॉर्ड जैसे ठोस दस्तावेज आवश्यक हैं।
सरकारी एजेंसियों के लिए संदेश: पुलिस को हर ऐसे मामले में तुरंत जांच शुरू करनी चाहिए, विलंब न हो, और सभी संबंधित गवाहों के बयान तुरंत दर्ज किए जाएँ। इससे न केवल सच्चे मामलों में न्याय मिलेगा बल्कि झूठे मामलों में निर्दोष लोगों को राहत मिलेगी।
आम जनता के लिए संदेश: यह फैसला यह बताता है कि अदालत साक्ष्य के आधार पर निर्णय देती है, न कि भावनाओं पर। यदि किसी पर गलत आरोप लगाया जाता है, तो न्यायालय उसके अधिकारों की रक्षा करने के लिए प्रतिबद्ध है।
कानूनी मुद्दे और निर्णय
- क्या केवल पीड़िता के बयान के आधार पर दोषसिद्धि हो सकती है?
अदालत ने कहा—नहीं, जब बयान में गंभीर विरोधाभास और परिस्थिति से असंगति हो। - एफआईआर और बयान दर्ज करने में देरी का प्रभाव:
यह देरी संदेह पैदा करती है और अभियोजन की विश्वसनीयता कम करती है। - “स्टर्लिंग विटनेस” का सिद्धांत:
सुप्रीम कोर्ट के फैसले Rai Sandeep (2012) के अनुसार, केवल वही गवाह विश्वसनीय मानी जाएगी जिसका बयान आरंभ से अंत तक सुसंगत और परिस्थितियों से मेल खाता हो। इस मामले में पीड़िता उस स्तर की गवाह नहीं मानी गई। - उम्र और सहमति:
अभियोजन यह साबित नहीं कर सका कि पीड़िता नाबालिग थी, इसलिए सहमति का प्रश्न बना रहा। - अंतिम निर्णय:
दोनों अभियुक्तों को बरी किया गया; एक अभियुक्त जेल से रिहा, दूसरे की जमानत जब्ती समाप्त।
पार्टियों द्वारा संदर्भित निर्णय
- Santosh Prasad @ Santosh Kumar v. State of Bihar, (2020) 3 SCC 443
न्यायालय द्वारा उपयोग में लाए गए निर्णय
- State of Punjab v. Gurmit Singh, (1996) 2 SCC 384
- Raju v. State of M.P., (2008) 5 SCC 133
- Rai Sandeep v. State (NCT of Delhi), (2012) 8 SCC 21
- State of M.P. v. Munna @ Shambhu Nath, (2016) 1 SCC 696
मामले का शीर्षक
Sekh Magan @ Md. S.K. Magan & Anr. v. State of Bihar
केस नंबर
Criminal Appeal (SJ) No. 912 of 2017 with Criminal Appeal (SJ) No. 1051 of 2017
उद्धरण (Citation)
2021(2) PLJR 421
न्यायमूर्ति गण का नाम
माननीय न्यायमूर्ति बिरेंद्र कुमार (निर्णय दिनांक: 12 मार्च 2021)
वकीलों के नाम और किनकी ओर से पेश हुए
- अपीलकर्ता (912/2017) की ओर से: श्री राजीव रंजन सिंह
- राज्य की ओर से (APP): श्रीमती अभा सिंह
- अपीलकर्ता (1051/2017) की ओर से: श्री ज्योति रंजन झा
- राज्य की ओर से (APP): श्री अभय कुमार
निर्णय का लिंक
MjQjOTEyIzIwMTcjMSNO-fH38F222BdU=
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