पटना उच्च न्यायालय का निर्णय: चुनावी सभा में अनुमति शर्तों के उल्लंघन पर दर्ज 188 आईपीसी मुकदमे को रद्द किया गया — 2025

पटना उच्च न्यायालय का निर्णय: चुनावी सभा में अनुमति शर्तों के उल्लंघन पर दर्ज 188 आईपीसी मुकदमे को रद्द किया गया — 2025

निर्णय की सरल व्याख्या

पटना उच्च न्यायालय ने हाल ही में एक महत्वपूर्ण फैसला सुनाते हुए चुनावी सभा में समय सीमा का उल्लंघन करने के आरोप में दर्ज एफआईआर और दायर चार्जशीट के आधार पर दर्ज मुकदमे को रद्द कर दिया। मामला मधेपुरा जिले के गमहरिया ब्लॉक का था, जहाँ अप्रैल 2014 में एक राजनैतिक सभा आयोजित की गई थी। इस सभा के लिए स्थानीय प्रशासन की ओर से अनुमति दी गई थी, लेकिन रिपोर्ट के अनुसार सभा निर्धारित समय से अधिक चली और हेलीकॉप्टर भी उतारा गया, जिससे आचार संहिता के उल्लंघन का आरोप लगा।

ब्लॉक विकास पदाधिकारी (BDO) ने इस घटना की रिपोर्ट थाना में दर्ज कराई, जिसके बाद पुलिस ने मामला दर्ज किया और जाँच के बाद चार्जशीट न्यायालय में दाखिल की। न्यायिक मजिस्ट्रेट, प्रथम श्रेणी, मधेपुरा ने इस चार्जशीट के आधार पर भारतीय दंड संहिता की धारा 188 (लोक सेवक के आदेश की अवहेलना) के तहत संज्ञान ले लिया। इसके खिलाफ अभियुक्त (याचिकाकर्ता) ने पटना उच्च न्यायालय में धारा 482 दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC) के तहत याचिका दायर की और संज्ञान आदेश को चुनौती दी।

न्यायालय ने इस पूरे मामले में एक अहम कानूनी प्रश्न पर विचार किया — क्या धारा 188 आईपीसी के तहत संज्ञान पुलिस रिपोर्ट (एफआईआर व चार्जशीट) के आधार पर लिया जा सकता है? अदालत ने स्पष्ट किया कि धारा 195(1)(a) CrPC के अनुसार, जब किसी व्यक्ति पर लोक सेवक के आदेश की अवहेलना (धारा 188) का आरोप होता है, तो अदालत तभी संज्ञान ले सकती है जब संबंधित लोक सेवक स्वयं या उसका वरिष्ठ अधिकारी लिखित शिकायत (written complaint) के रूप में यह आरोप न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत करे। केवल पुलिस द्वारा दर्ज एफआईआर और चार्जशीट इस उद्देश्य के लिए पर्याप्त नहीं हैं।

न्यायालय ने “शिकायत” (Complaint) की परिभाषा पर भी प्रकाश डाला, जो CrPC की धारा 2(d) में दी गई है। उसमें साफ लिखा है कि “शिकायत” वह आरोप है जो किसी मजिस्ट्रेट के समक्ष कार्रवाई के उद्देश्य से किया जाता है, और इसमें “पुलिस रिपोर्ट” को शामिल नहीं किया गया है। इसलिए पुलिस द्वारा की गई जाँच रिपोर्ट को शिकायत नहीं माना जा सकता, खासकर तब जब आरोपित अपराध संज्ञेय (cognizable) श्रेणी में आता हो। धारा 188 आईपीसी एक संज्ञेय अपराध है, लेकिन इसके लिए विशेष प्रावधान (Special Procedure) यानी धारा 195(1)(a) लागू होता है।

राज्य सरकार की ओर से तर्क दिया गया कि चूँकि धारा 188 आईपीसी संज्ञेय अपराध है, इसलिए ललिता कुमारी बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2014) के सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के अनुसार, पुलिस को एफआईआर दर्ज करना आवश्यक था। परंतु उच्च न्यायालय ने यह कहा कि ललिता कुमारी का सिद्धांत यहाँ लागू नहीं होता, क्योंकि वहाँ कोई विशेष वैधानिक प्रतिबंध नहीं था। यहाँ CrPC की धारा 195(1)(a) स्वयं में एक कानूनी रोक (legal bar) है। इसलिए केवल एफआईआर दर्ज करना और चार्जशीट दाखिल करना पर्याप्त नहीं है।

न्यायालय ने यह भी कहा कि आरोप में धारा 188 की आवश्यक शर्तें (ingredients) स्पष्ट रूप से नहीं बताई गई थीं। इस धारा के लिए यह आवश्यक है कि—

  1. कोई विधिवत आदेश (promulgated order) लोक सेवक द्वारा पारित हुआ हो,
  2. अभियुक्त को उस आदेश की जानकारी हो,
  3. उसने जानबूझकर उस आदेश की अवहेलना की हो, और
  4. उस अवहेलना से किसी व्यक्ति को बाधा, जीवन या स्वास्थ्य को खतरा, या दंगे का जोखिम उत्पन्न हुआ हो।

मौजूदा मामले में रिपोर्ट में यह नहीं बताया गया कि कौन सा आदेश जारी किया गया था, कब और कैसे उसकी अवहेलना हुई, या उससे क्या खतरा या नुकसान हुआ। इसलिए प्रथम दृष्टया (prima facie) धारा 188 के तहत कोई अपराध बनता नहीं था।

इन सभी तथ्यों को देखते हुए पटना उच्च न्यायालय ने माना कि—

  • एक ओर तो CrPC की धारा 195(1)(a) के तहत संज्ञान लेने की प्रक्रिया का पालन नहीं किया गया था,
  • दूसरी ओर, प्राथमिकी में अपराध के आवश्यक तत्व भी अनुपस्थित थे।

इसलिए यह मामला राज्य बनाम भजनलाल (1992) के सुप्रसिद्ध निर्णय में बताए गए दो आधारों पर फिट बैठता है — (1) आरोपों से कोई अपराध सिद्ध नहीं होता, और (2) मुकदमे की कार्यवाही पर स्पष्ट कानूनी रोक मौजूद है।

अंततः न्यायालय ने मजिस्ट्रेट द्वारा लिया गया संज्ञान आदेश रद्द कर दिया और याचिका स्वीकार कर ली।

निर्णय का महत्व और इसका प्रभाव आम जनता या सरकार पर

  • आम नागरिकों और राजनीतिक कार्यकर्ताओं के लिए: यह निर्णय बताता है कि हर प्रशासनिक आदेश के उल्लंघन को पुलिस द्वारा सीधे 188 आईपीसी में दर्ज नहीं किया जा सकता। इसके लिए संबंधित लोक सेवक की लिखित शिकायत आवश्यक है। इससे जल्दबाज़ी में दर्ज होने वाले या राजनीतिक दबाव में किए गए मामलों पर रोक लगेगी।
  • लोक सेवकों के लिए: यदि किसी अधिकारी को लगता है कि उसके आदेश की अवहेलना हुई है, तो उसे स्वयं मजिस्ट्रेट के समक्ष लिखित शिकायत दाखिल करनी होगी। केवल थाना में रिपोर्ट देना पर्याप्त नहीं है।
  • पुलिस और अभियोजन पक्ष के लिए: धारा 188 आईपीसी भले ही संज्ञेय हो, परंतु उस पर CrPC की धारा 195(1)(a) का विशेष प्रावधान लागू है। इसलिए केवल एफआईआर दर्ज करने से संज्ञान नहीं लिया जा सकता जब तक कि लोक सेवक की लिखित शिकायत न हो।
  • न्यायालयों के लिए: यह निर्णय एक बार फिर यह स्पष्ट करता है कि संज्ञान के स्तर पर ही न्यायालय को यह देखना चाहिए कि क्या अभियोजन की प्रक्रिया वैधानिक रूप से सही है या नहीं। इससे गैरजरूरी मुकदमों की संख्या कम होगी और न्यायिक संसाधनों की बचत होगी।

कानूनी मुद्दे और निर्णय (बिंदुवार)

  • क्या धारा 188 आईपीसी के तहत संज्ञान पुलिस रिपोर्ट के आधार पर लिया जा सकता है?
    — नहीं। CrPC की धारा 195(1)(a) के अनुसार केवल संबंधित लोक सेवक की लिखित शिकायत पर ही संज्ञान लिया जा सकता है।
  • क्या आरोपों में धारा 188 के सभी आवश्यक तत्व मौजूद थे?
    — नहीं। रिपोर्ट में कोई विशेष आदेश, उसका उल्लंघन, या उसके परिणामस्वरूप हुआ खतरा/अवरोध नहीं बताया गया था।
  • क्या ललिता कुमारी बनाम उत्तर प्रदेश राज्य का सिद्धांत इस मामले में लागू होता है?
    — नहीं। क्योंकि वहाँ विशेष वैधानिक रोक (Section 195) नहीं थी, जबकि यहाँ है।
  • क्या यह मामला “भजनलाल केस” की श्रेणियों में आता है जहाँ मुकदमा रद्द किया जा सकता है?
    — हाँ। आरोपों से अपराध नहीं बनता और स्पष्ट कानूनी रोक मौजूद थी।

पार्टियों द्वारा संदर्भित निर्णय

  • Lalita Kumari v. State of U.P., (2014) 2 SCC 1
  • State of U.P. v. Mata Bhikh, (1994) 4 SCC 95
  • Daulat Ram v. State of Punjab, 1962 Supp (2) SCR 812
  • C. Muniappan v. State of T.N., (2010) 9 SCC 567
  • Apurva Ghiya v. State of Chhattisgarh, 2020 SCC OnLine Chh 454
  • Union of India v. Ashok Kumar Sharma, (2021) 12 SCC 674
  • State of Haryana v. Bhajan Lal, 1992 Supp (1) SCC 335

न्यायालय द्वारा उपयोग में लाए गए निर्णय

  • State of U.P. v. Mata Bhikh, (1994) 4 SCC 95
  • Daulat Ram v. State of Punjab, 1962 Supp (2) SCR 812
  • C. Muniappan v. State of T.N., (2010) 9 SCC 567
  • Union of India v. Ashok Kumar Sharma, (2021) 12 SCC 674
  • State of Haryana v. Bhajan Lal, 1992 Supp (1) SCC 335

मामले का शीर्षक

Bijay Kumar @ Bijay Kumar Bimal v. State of Bihar & Anr.

केस नंबर

Criminal Miscellaneous No. 26029 of 2016 (arising out of Gamhariya P.S. Case No. 66 of 2014, District Madhepura)

उद्धरण (Citation)

2025 (1) PLJR 738

न्यायमूर्ति गण का नाम

माननीय श्री न्यायमूर्ति जितेन्द्र कुमार

वकीलों के नाम और किनकी ओर से पेश हुए

  • याचिकाकर्ता की ओर से: श्री शशि भूषण कुमार मंगलं, श्री अवनीश कुमार, श्री विकास कुमार सिंह, अधिवक्ता
  • राज्य की ओर से: श्री उपेन्द्र कुमार, अपर लोक अभियोजक (APP)

निर्णय का लिंक

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Samridhi Priya

Samriddhi Priya is a third-year B.B.A., LL.B. (Hons.) student at Chanakya National Law University (CNLU), Patna. A passionate and articulate legal writer, she brings academic excellence and active courtroom exposure into her writing. Samriddhi has interned with leading law firms in Patna and assisted in matters involving bail petitions, FIR translations, and legal notices. She has participated and excelled in national-level moot court competitions and actively engages in research workshops and awareness programs on legal and social issues. At Samvida Law Associates, she focuses on breaking down legal judgments and public policies into accessible insights for readers across Bihar and beyond.

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