निर्णय की सरल व्याख्या
पटना उच्च न्यायालय ने हाल ही में एक अहम फैसला सुनाते हुए यह स्पष्ट किया है कि सरकारी कर्मचारियों — विशेष रूप से पुलिस अधिकारियों — के खिलाफ की जाने वाली विभागीय जांच निष्पक्ष, नियमों के अनुसार और न्यायसंगत होनी चाहिए। यह फैसला एक ऐसे मामले में आया जिसमें एक उप पुलिस अधीक्षक (SDPO) पर अपहरण मामले की जांच में कथित लापरवाही का आरोप लगाकर राज्य सरकार ने बड़ी सजा दी थी। एकल न्यायाधीश ने उस सजा को रद्द कर दिया था, जिसे राज्य सरकार ने चुनौती दी थी। अब उच्च न्यायालय की द्वैतिक पीठ ने सरकार की अपील भी खारिज कर दी है।
मामला 2019 के नगरनौसा थाना अपहरण कांड से जुड़ा था। उस समय अधिकारी हिलसा में एसडीपीओ के रूप में कार्यरत थे और उन्होंने मुख्य अभियुक्त के परिजनों की गिरफ्तारी का निर्देश दिया था। बाद में जिला पुलिस अधीक्षक की एक रिपोर्ट में कहा गया कि सिर्फ एक व्यक्ति को गिरफ्तार किया जाना चाहिए था। इसी आधार पर अधिकारी के खिलाफ विभागीय कार्रवाई शुरू की गई, उन्हें निलंबित कर दिया गया और आरोपपत्र थमा दिया गया। जांच पूरी होने के बाद उनके वेतनवृद्धि के तीन वार्षिक लाभ स्थायी रूप से रोक दिए गए और पदोन्नति तीन वर्ष के लिए टाल दी गई।
जांच के दौरान कई गंभीर प्रक्रियात्मक गड़बड़ियाँ सामने आईं। 19 मार्च 2020 को एसपी नालंदा की गवाही हुई, लेकिन उस दिन विभाग का प्रस्तुत अधिकारी (Presenting Officer) अनुपस्थित था। जांच अधिकारी ने खुद विभाग की ओर से गवाही करवाई। जब अधिकारी ने गवाह से जिरह (cross-examination) के लिए प्रश्न तैयार किए, तो उन्हें पूछने की अनुमति नहीं दी गई। न्यायालय ने पाया कि यह स्पष्ट रूप से बिहार सरकारी सेवक (वर्गीकरण, नियंत्रण एवं अपील) नियमावली, 2005 के नियम 17(11) और 17(14) का उल्लंघन था।
एकल न्यायाधीश ने इस प्रक्रिया को “न्याय के सिद्धांतों के विपरीत” बताया और सजा आदेश व पुनर्विचार अस्वीकृति दोनों को निरस्त कर दिया। उन्होंने अधिकारी को सेवा में बहाल करते हुए सभी वित्तीय लाभ देने का आदेश दिया। सरकार ने इस निर्णय के खिलाफ एलपीए (Letters Patent Appeal) दायर की, जिसे अब न्यायालय ने खारिज कर दिया है।
द्वैतिक पीठ ने कहा कि न्यायालय विभागीय जांच के साक्ष्य का पुनर्मूल्यांकन नहीं करता, लेकिन यह जरूर देखता है कि जांच नियमों के अनुरूप हुई या नहीं, तथा क्या अधिकारी को निष्पक्ष सुनवाई मिली या नहीं। यहाँ जांच प्रक्रिया ही त्रुटिपूर्ण थी — जांच अधिकारी ने स्वयं प्रस्तुत अधिकारी की भूमिका निभाई और अभियुक्त को गवाह से जिरह करने का अवसर नहीं दिया।
न्यायालय ने यह भी पाया कि अधिकारी ने घटना स्थल का दौरा किया था और उनकी निगरानी में हुई गिरफ्तारी के कारण लापता बालक बरामद हुआ। इसलिए यह कहना कि उन्होंने झूठी रिपोर्ट दी या कर्तव्य पालन में लापरवाही की, अनुचित था। 16 दिन की देरी से रिपोर्ट लिखना भी ऐसा अपराध नहीं था जिससे “दुराचरण” (misconduct) सिद्ध हो सके।
महत्वपूर्ण बात यह रही कि न्यायालय ने सर्वोच्च न्यायालय के कुछ निर्णयों का हवाला देते हुए कहा कि मात्र भूल, लापरवाही या निर्णय की त्रुटि को “दुराचरण” नहीं कहा जा सकता, जब तक उसमें कोई दुर्भावना या भ्रष्टाचार का तत्व न हो। इस आधार पर न्यायालय ने कहा कि लगाए गए आरोप तुच्छ (flimsy) और प्रमाणहीन हैं।
अंततः न्यायालय ने राज्य की अपील को खारिज करते हुए कहा कि एकल न्यायाधीश का आदेश पूरी तरह उचित था — अधिकारी को सभी सेवा लाभों के साथ बहाल किया जाना चाहिए।
निर्णय का महत्व और इसका प्रभाव आम जनता या सरकार पर
- निष्पक्ष जांच की अनिवार्यता — इस निर्णय से यह स्पष्ट हुआ कि विभागीय जांच में जांच अधिकारी और प्रस्तुत अधिकारी की भूमिकाएं अलग-अलग रहनी चाहिए। जिरह का अवसर न देना या स्वयं विभाग की ओर से बहस करना जांच प्रक्रिया को अवैध बना देता है।
- दुराचरण की सीमाएं स्पष्ट — अदालत ने दोहराया कि साधारण लापरवाही या निर्णय की भूल को दुराचरण नहीं माना जा सकता। यह सरकारी कर्मचारियों के लिए सुरक्षा का काम करेगा ताकि वे ईमानदारी से निर्णय ले सकें।
- प्रशासनिक विवेक की रक्षा — पुलिस अधिकारियों को अक्सर त्वरित निर्णय लेने पड़ते हैं। बाद में किसी अन्य अधिकारी की भिन्न राय के आधार पर उन्हें दंडित नहीं किया जा सकता, यदि उन्होंने ईमानदारी से कार्रवाई की हो।
- सरकारी विभागों के लिए चेतावनी — यह फैसला सभी सरकारी विभागों के लिए संदेश है कि अनुशासनात्मक कार्यवाही करते समय नियमों का कड़ाई से पालन किया जाए, अन्यथा पूरी कार्रवाई न्यायालय में निरस्त हो सकती है।
कानूनी मुद्दे और निर्णय
- क्या जांच प्रक्रिया नियम 17(11) और 17(14) के अनुसार थी?
▪ न्यायालय का निर्णय: नहीं। प्रस्तुत अधिकारी की अनुपस्थिति और जिरह का अवसर न देना स्पष्ट उल्लंघन था। - क्या लगाए गए आरोप “दुराचरण” कहलाते हैं?
▪ न्यायालय का निर्णय: नहीं। यह केवल कार्य के दौरान हुई साधारण त्रुटियाँ थीं, जिनमें कोई दुर्भावना नहीं थी। - क्या उच्च न्यायालय को विभागीय जांच के तथ्यों में हस्तक्षेप करना चाहिए?
▪ न्यायालय का निर्णय: हाँ, जब जांच प्रक्रिया गलत हो या निष्कर्ष साक्ष्यहीन हों, तब न्यायालय दखल दे सकता है। - अंतिम आदेश:
▪ राज्य की अपील खारिज, अधिकारी को बहाल करने का आदेश यथावत।
पार्टियों द्वारा संदर्भित निर्णय
- State of U.P. v. Saroj Kumar Sinha, (2010) 2 SCC 772.
न्यायालय द्वारा उपयोग में लाए गए निर्णय
- Union of India v. P. Gunasekaran, (2015) 2 SCC 610
- Inspector Prem Chand v. Govt. of NCT of Delhi, (2007) 4 SCC 566
- Union of India v. J. Ahmed, (1979) 2 SCC 286
मामले का शीर्षक
State of Bihar & Ors. v. Md. Muttafique Ahmad
केस नंबर
Letters Patent Appeal No. 900 of 2024 (arising out of C.W.J.C. No. 5640 of 2021)
उद्धरण (Citation)
2025 (1) PLJR 748
न्यायमूर्ति गण का नाम
माननीय कार्यवाहक मुख्य न्यायाधीश एवं माननीय न्यायमूर्ति पार्थ सारथी
(निर्णय दिनांक – 30 जनवरी 2025)
वकीलों के नाम और किनकी ओर से पेश हुए
- राज्य की ओर से: श्री पी.के. शाही, महाधिवक्ता; श्री नदीम सिराज, सरकारी अधिवक्ता-5
- अधिकारी की ओर से: श्री अभिनव श्रीवास्तव (वरिष्ठ अधिवक्ता); श्री शुभम प्रियदर्शी, श्री पुष्कर भारद्वाज, एवं सुश्री श्रेयांशी राज
निर्णय का लिंक
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