पटना उच्च न्यायालय का निर्णय: बिना साक्ष्य और गवाह के विभागीय दंड रद्द (2021)

पटना उच्च न्यायालय का निर्णय: बिना साक्ष्य और गवाह के विभागीय दंड रद्द (2021)

निर्णय की सरल व्याख्या

पटना उच्च न्यायालय ने मई 2021 में एक महत्वपूर्ण फैसला सुनाया, जिसमें एक सरकारी कर्मचारी पर लगाए गए विभागीय दंड को रद्द कर दिया गया। न्यायालय ने कहा कि अगर किसी विभागीय जांच में न तो कोई गवाह पेश किया गया हो और न ही दस्तावेजों को साबित किया गया हो, तो उस जांच के आधार पर दी गई सजा कानूनन टिक नहीं सकती।

यह मामला सड़क निर्माण विभाग के एक कर्मचारी से जुड़ा था, जिस पर कथित रूप से सरकारी राहत राशि या अग्रिम भुगतान में अनियमितता के आरोप लगे थे। इस आधार पर विभाग ने एक विभागीय कार्यवाही शुरू की, जिसकी पूरी नींव एक प्रखंड विकास पदाधिकारी (BDO) की रिपोर्ट पर रखी गई। लेकिन हैरानी की बात यह थी कि जांच के दौरान न तो उस BDO को गवाह के रूप में बुलाया गया और न ही किसी दस्तावेज को सबूत के तौर पर प्रमाणित किया गया।

न्यायालय ने कहा कि “आरोप केवल आरोप नहीं रहते जब तक वे सबूतों से साबित न हों।” विभागीय जांच में भी न्याय के मूल सिद्धांत लागू होते हैं—मतलब, आरोपी कर्मचारी को यह अधिकार है कि वह गवाहों से जिरह कर सके और उन दस्तावेजों पर आपत्ति दर्ज कर सके जिनके आधार पर कार्रवाई की जा रही है। जब ऐसा अवसर नहीं दिया गया, तो यह पूरी जांच न्यायसंगत नहीं रही।

इसके साथ ही, कर्मचारी पहले ही उसी आरोपों पर आपराधिक मामले में बरी हो चुका था। यद्यपि आपराधिक और विभागीय जांचें अलग-अलग चल सकती हैं, लेकिन अगर दोनों एक ही तथ्यों पर आधारित हैं और विभाग कोई स्वतंत्र सबूत पेश नहीं कर पाता, तो सजा टिक नहीं सकती।

न्यायालय ने सर्वोच्च न्यायालय के एक पुराने और प्रसिद्ध निर्णय Union of India v. H.C. Goel (AIR 1964 SC 364) का हवाला दिया, जिसमें कहा गया था कि “शक के आधार पर किसी को सजा नहीं दी जा सकती।” अदालत ने याद दिलाया कि विभागीय जांचें भी निष्पक्ष होनी चाहिए, भले ही वे अदालतों की तरह औपचारिक न हों।

राज्य सरकार के वकील ने यह तर्क दिया कि विभागीय और आपराधिक कार्यवाही स्वतंत्र होती हैं, और विभाग ने सभी आवश्यक प्रक्रियाएं अपनाईं। लेकिन अदालत ने पाया कि सबसे बुनियादी चीज़—गवाहों की जांच और दस्तावेज़ों का सबूत के रूप में प्रमाण—ही नहीं हुई।

इस कारण अदालत ने विभागीय सजा के दोनों आदेश (10.08.2009 और 21.06.2010) को रद्द कर दिया और तीन महीने के भीतर कर्मचारी को सभी लाभ देने का आदेश दिया। अगर भुगतान में देरी होती है तो उस पर 9% वार्षिक ब्याज देना होगा।

अदालत ने इस मामले में ₹50,000 का जुर्माना (cost) भी विभाग पर लगाया ताकि भविष्य में अधिकारी बिना ठोस सबूत के ऐसी कार्यवाही करने से बचें।

निर्णय का महत्व और इसका प्रभाव आम जनता या सरकार पर

यह फैसला बिहार सरकार और अन्य विभागों के लिए एक स्पष्ट संदेश है कि विभागीय जांच केवल औपचारिकता नहीं हो सकती। अगर किसी कर्मचारी पर आरोप लगाए जाते हैं, तो गवाहों को पेश करना और दस्तावेजों को प्रमाणित करना अनिवार्य है। अन्यथा, पूरी कार्यवाही अवैध घोषित की जा सकती है।

आम कर्मचारियों के लिए यह निर्णय राहत देने वाला है। यह दिखाता है कि अदालतें केवल तकनीकी गलती नहीं देखतीं, बल्कि यह सुनिश्चित करती हैं कि कोई भी व्यक्ति बिना उचित सबूत के सजा न पाए। यह फैसला “प्राकृतिक न्याय” (Natural Justice) के सिद्धांतों को मज़बूत करता है—यानि कि किसी को भी बिना सुने या बिना साक्ष्य के दोषी नहीं ठहराया जा सकता।

कानूनी मुद्दे और निर्णय

  • क्या बिना गवाह और बिना प्रमाणित दस्तावेजों के दी गई विभागीय सजा टिक सकती है?
    ❌ नहीं। न्यायालय ने कहा कि यह प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का उल्लंघन है।
  • क्या केवल BDO की रिपोर्ट के आधार पर बिना उसे गवाह बनाए सजा दी जा सकती है?
    ❌ नहीं। जब रिपोर्ट देने वाले अधिकारी को जिरह के लिए बुलाया ही नहीं गया, तो रिपोर्ट को सबूत नहीं माना जा सकता।
  • क्या आपराधिक मामले में बरी होने का असर विभागीय कार्यवाही पर पड़ता है?
    ✔ हाँ, खासकर तब जब विभागीय जांच उन्हीं तथ्यों पर आधारित हो और कोई स्वतंत्र सबूत पेश न किया गया हो।
  • न्यायालय द्वारा दिया गया आदेश:
    ✔ सजा आदेश दिनांक 10.08.2009 और 21.06.2010 रद्द।
    ✔ तीन महीने के भीतर सभी लाभ (जैसे वेतन और पदोन्नति प्रभाव) दिए जाएं।
    ✔ देरी होने पर 9% ब्याज लागू।
    ✔ ₹50,000 की लागत (cost) राज्य पर लगाई गई।

पार्टियों द्वारा संदर्भित निर्णय

  • Kumaon Mandal Vikas Nigam Ltd. v. Girja Shankar Pant & Ors., (2001) 1 SCC 182 – इस निर्णय का हवाला कर्मचारी की ओर से दिया गया कि जब समान आरोपों पर आपराधिक मामला खत्म हो गया, तो विभागीय सजा टिक नहीं सकती।

न्यायालय द्वारा उपयोग में लाए गए निर्णय

  • Union of India v. H.C. Goel, AIR 1964 SC 364 – सर्वोच्च न्यायालय का यह फैसला इस बात पर जोर देता है कि संदेह (suspicion) सबूत नहीं होता और विभागीय जांच में भी निष्पक्षता जरूरी है।

मामले का शीर्षक

Chhotu Prasad v. The State of Bihar & Ors.

केस नंबर

Civil Writ Jurisdiction Case No. 14991 of 2010

उद्धरण (Citation)

2021(2) PLJR 773

न्यायमूर्ति गण का नाम

माननीय श्री न्यायमूर्ति अनिल कुमार उपाध्याय (Hon’ble Mr. Justice Anil Kumar Upadhyay)

वकीलों के नाम और किनकी ओर से पेश हुए

श्री राजीव कुमार सिंह – याचिकाकर्ता की ओर से
श्री दिनेश महाराज – राज्य सरकार की ओर से

निर्णय का लिंक

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Aditya Kumar

Aditya Kumar is a dedicated and detail-oriented legal intern with a strong academic foundation in law and a growing interest in legal research and writing. He is currently pursuing his legal education with a focus on litigation, policy, and public law. Aditya has interned with reputed law offices and assisted in drafting legal documents, conducting research, and understanding court procedures, particularly in the High Court of Patna. Known for his clarity of thought and commitment to learning, Aditya contributes to Samvida Law Associates by simplifying complex legal topics for public understanding through well-researched blog posts.

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