निर्णय की सरल व्याख्या
पटना उच्च न्यायालय ने 7 नवम्बर 2022 को एक महत्वपूर्ण मामला सुना, जिसमें यह सवाल था कि क्या किसी मठ या धार्मिक संस्था के प्रमुख (महंत) को मुआवज़ा दिया जा सकता है, जब राज्य सरकार ने वर्षों पहले उसकी भूमि पर सार्वजनिक सड़क बना दी हो और अब वह सड़क जनता द्वारा लगातार उपयोग में आ रही हो।
महंत का दावा था कि तालाब के किनारे की ज़मीन मठ की है, और सरकार ने बिना अनुमति वहाँ पक्की सड़क बना दी, जिससे धार्मिक संपत्ति का अतिक्रमण हुआ। उन्होंने कहा कि सड़क जनता के उपयोग में है, लेकिन मठ से कोई सहमति नहीं ली गई और न ही कोई मुआवज़ा दिया गया। जब प्रशासन ने उनकी शिकायत पर कार्रवाई नहीं की, तो उन्होंने पहले राजस्व अधिकारियों और बाद में उच्च न्यायालय में याचिका दाखिल की।
उनकी याचिका एकल न्यायाधीश द्वारा खारिज कर दी गई, जिसके खिलाफ यह “लेटर्स पेटेंट अपील” (LPA) दायर की गई। अदालत ने पाया कि सड़क लगभग 17–18 साल पहले ही बन चुकी थी और इतने वर्षों से जनता इसका उपयोग कर रही थी। इतना लंबा समय बीत जाने के बाद यह कहना कि सड़क बिना अनुमति बनी, व्यवहारिक रूप से स्वीकार्य नहीं है।
साथ ही अदालत ने यह भी देखा कि जिस भूमि को मठ की बताई जा रही थी, उसकी मालिकाना हक़दारी पहले से ही एक दीवानी मुकदमे (टाइटल सूट नं. 243/1987) में विवादित थी। उस मुकदमे में निचली अदालत ने कहा था कि ज़मीन मठ की निजी नहीं बल्कि धार्मिक ट्रस्ट की है। इस फैसले के खिलाफ अपील अभी भी लंबित है। यानी ज़मीन की मालिकाना स्थिति अभी तय नहीं हुई है।
इन परिस्थितियों में न्यायालय ने कहा कि जब तक यह स्पष्ट नहीं हो जाता कि ज़मीन मठ की है या ट्रस्ट की, तब तक सरकार से मुआवज़े की मांग का कोई आधार नहीं बनता। साथ ही, सड़क बनकर इतने वर्षों से जनता द्वारा उपयोग में है, तो सार्वजनिक हित में उसे अब हटाया नहीं जा सकता।
अदालत ने यह भी स्पष्ट किया कि धार्मिक या ट्रस्ट संपत्ति के मामले में सरकार को मौखिक सहमति पर निर्भर नहीं रहना चाहिए — भविष्य में यदि इस तरह की ज़मीन पर कोई निर्माण किया जाए, तो लिखित अनुमति लेना आवश्यक है। लेकिन इस मामले में इतने वर्षों की देरी और मुकदमे की स्थिति देखते हुए अदालत ने हस्तक्षेप नहीं किया।
अंततः पटना उच्च न्यायालय ने यह कहते हुए अपील को निपटा दिया कि—
पहले दीवानी अपील में ज़मीन की मालिकाना स्थिति तय हो जाने दी जाए, उसके बाद ही कोई मुआवज़े का दावा उचित होगा। फिलहाल, सार्वजनिक सड़क को लेकर पुराने विवाद को फिर से नहीं खोला जा सकता।
निर्णय का महत्व और इसका प्रभाव आम जनता या सरकार पर
- धार्मिक और ट्रस्ट संस्थाओं के लिए: यह निर्णय बताता है कि यदि किसी धार्मिक संस्था की भूमि पर सरकार ने सार्वजनिक निर्माण कर लिया है, तो मुआवज़े की मांग तभी की जा सकती है जब संस्था यह साबित करे कि ज़मीन उसी की है और उसने समय रहते आपत्ति की थी। लंबे समय तक चुप रहने से दावे की ताकत कम हो जाती है।
- सरकारी अधिकारियों के लिए: अदालत ने स्पष्ट किया कि भविष्य में किसी भी धार्मिक या ट्रस्ट संपत्ति के उपयोग से पहले लिखित सहमति लेनी चाहिए।
- आम जनता के लिए: जब कोई सड़क वर्षों से जनता के उपयोग में हो, तो अदालत उस सड़क को हटाने या बाधित करने का आदेश नहीं देती। जनता का सुविधा अधिकार भी उतना ही महत्वपूर्ण है।
- कानूनी दृष्टि से: यह फैसला बताता है कि जब मालिकाना हक तय न हुआ हो, तो मुआवज़ा देने का कोई प्रश्न नहीं उठता। पहले स्वामित्व साबित करना ज़रूरी है।
कानूनी मुद्दे और निर्णय
- मुद्दा 1: क्या मठ या उसके महंत को मुआवज़ा मिल सकता है जब ज़मीन पर बनी सड़क लगभग 18 साल से जनता द्वारा उपयोग में हो और ज़मीन की मालिकाना स्थिति ही विवादित हो?
➤ निर्णय: नहीं। पहले दीवानी अपील का निपटारा होना ज़रूरी है। - मुद्दा 2: क्या यह अपील मठ की ओर से होनी चाहिए थी न कि व्यक्तिगत रूप से महंत की ओर से?
➤ निर्णय: हाँ, अदालत ने कहा कि मुकदमा मठ के नाम से होना चाहिए था क्योंकि वही असली मालिक माना जाएगा यदि अपील में सफलता मिलती है। - मुद्दा 3: क्या इतने वर्षों की देरी और आपत्ति न करने से यह मान लिया जाए कि मठ ने सड़क निर्माण का विरोध नहीं किया?
➤ निर्णय: हाँ, इस मामले में अदालत ने माना कि 17–18 साल तक कोई आपत्ति नहीं की गई, इसलिए यह मानना तर्कसंगत है कि निर्माण को मठ ने स्वीकार किया या कम से कम विरोध नहीं किया। - मुद्दा 4: क्या प्रशासन ने अवैध रूप से कार्य किया जब उसने मुआवज़ा नहीं दिया?
➤ निर्णय: नहीं। जब तक ज़मीन का मालिकाना तय नहीं हो जाता, तब तक मुआवज़े का सवाल नहीं उठता।
पार्टियों द्वारा संदर्भित निर्णय
- उपलब्ध जानकारी में कोई विशेष निर्णय दर्ज नहीं है।
न्यायालय द्वारा उपयोग में लाए गए निर्णय
- अदालत ने मुख्य रूप से टाइटल सूट नं. 243/1987 के निर्णय का उल्लेख किया, जिसमें कहा गया था कि भूमि धार्मिक ट्रस्ट की है, मठ की निजी नहीं। वही निर्णय इस मामले की पृष्ठभूमि में सबसे अहम था।
मामले का शीर्षक
- मठ के महंत बनाम बिहार राज्य एवं अन्य (वास्तविक नाम गोपनीय रखे गए हैं)
केस नंबर
- लेटर्स पेटेंट अपील नं. 1/2020
- संबंधित C.W.J.C. नं. 12003/2019
- निर्णय दिनांक: 07 नवम्बर 2022
उद्धरण (Citation)
2023 (1) PLJR 9
न्यायमूर्ति गण का नाम
- माननीय श्री न्यायमूर्ति अशुतोष कुमार
- माननीय श्री न्यायमूर्ति नवनीत कुमार पांडेय
(मुख्य निर्णय माननीय श्री न्यायमूर्ति अशुतोष कुमार द्वारा)
वकीलों के नाम और किनकी ओर से पेश हुए
- अपीलकर्ता (मठ/महंत) की ओर से: श्री राजेन्द्र नारायण, वरिष्ठ अधिवक्ता; श्री दिनेश्वर प्रसाद सिंह, अधिवक्ता
- प्रतिवादी नं. 7 (बिहार राज्य धार्मिक ट्रस्ट बोर्ड) की ओर से: श्री गणपति त्रिवेदी, वरिष्ठ अधिवक्ता (अदालत के अनुरोध पर उपस्थित)
- राज्य सरकार की ओर से: श्री संजय प्रसाद, अधिवक्ता
निर्णय का लिंक
MyMxIzIwMjAjMSNO-Ouiq–ak1–ylr5jg=
यदि आपको यह जानकारी उपयोगी लगी और आप बिहार में कानूनी बदलावों से जुड़े रहना चाहते हैं, तो Samvida Law Associates को फॉलो कर सकते हैं।







