"औरंगाबाद दोहरे हत्याकांड: न्यायालय ने पुलिस जांच में खामियां पाई, अपीलकर्ताओं को बरी किया"

“औरंगाबाद दोहरे हत्याकांड: न्यायालय ने पुलिस जांच में खामियां पाई, अपीलकर्ताओं को बरी किया”

 

भूमिका:

यह मामला बिहार के औरंगाबाद जिले में हुई दोहरे हत्याकांड से संबंधित है, जिसमें अभियुक्तों (सुषील सिंह और राजू सिंह) को भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 302 और शस्त्र अधिनियम की धारा 27 के तहत आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई थी। पटना उच्च न्यायालय में इस फैसले को चुनौती दी गई थी, जिसमें अपीलकर्ताओं को न्यायालय ने दोषमुक्त कर दिया।


मामले की पृष्ठभूमि:

1. घटना का संक्षिप्त विवरण:

अभियोजन पक्ष के अनुसार, यह घटना 2 अक्टूबर 2012 को शाम 7:30 बजे औरंगाबाद जिले के अकौना गांव के पास हुई। मृतक टेगा यादव और उनके भतीजे दरोगा यादव जब गांव के देवी स्थान के पास पहुंचे, तो वहां पहले से ही कई लोग मौजूद थे, जिनमें आरोपी सुषील सिंह और राजू सिंह भी शामिल थे। अभियोजन के अनुसार, सुषील सिंह ने टेगा यादव पर गोली चलाई और राजू सिंह ने दरोगा यादव को गोली मारी, जिससे दोनों की मौके पर ही मृत्यु हो गई।

2. प्राथमिकी (FIR) का विवरण:

घटना के तुरंत बाद, मृतक के परिवार के सदस्य अजय यादव ने पुलिस को सूचना दी। इस आधार पर औरंगाबाद मुफस्सिल थाना कांड संख्या 151/2012 के तहत मामला दर्ज किया गया। FIR में कुल नौ आरोपियों के नाम दर्ज किए गए, जिनमें से केवल चार के खिलाफ चार्जशीट दायर की गई और उन्हीं पर मुकदमा चला।


ट्रायल कोर्ट का निर्णय:

औरंगाबाद के अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश-III ने 22 जून 2016 को दोनों अभियुक्तों (सुषील सिंह और राजू सिंह) को हत्या का दोषी ठहराया और 28 जून 2016 को उन्हें आजीवन कारावास और 10,000 रुपये के जुर्माने की सजा सुनाई गई।


अपील में प्रस्तुत प्रमुख तर्क:

1. बचाव पक्ष (अभियुक्तों) के तर्क:

  • स्वतंत्र गवाहों की अनुपस्थिति: बचाव पक्ष ने दलील दी कि जो गवाह अभियोजन पक्ष ने पेश किए, वे सभी मृतकों के रिश्तेदार थे, और कोई स्वतंत्र गवाह नहीं था।
  • एफआईआर में देरी: घटना 2 अक्टूबर 2012 को शाम 7:30 बजे हुई, लेकिन प्राथमिकी 3 अक्टूबर 2012 को रात 1:00 बजे दर्ज की गई, जो संदिग्ध है।
  • घटनास्थल और विवरण में विरोधाभास: अभियोजन पक्ष के गवाहों के बयान एक-दूसरे से मेल नहीं खाते थे। कुछ गवाहों ने घटना स्थल “देवी स्थान” बताया, जबकि कुछ ने “आहार बांध” बताया।
  • घटनास्थल से कोई हथियार या खोखा नहीं मिला: पुलिस ने घटनास्थल से न तो बंदूक की गोलियां बरामद कीं और न ही आरोपियों से हथियार।
  • अभियुक्त सुषील सिंह भी घायल थे: बचाव पक्ष ने दलील दी कि अभियुक्त सुषील सिंह को भी उसी दिन चोटें आई थीं, जिनका मेडिकल रिपोर्ट भी उपलब्ध था। इससे यह साबित होता है कि दोनों पक्षों के बीच झगड़ा हुआ था, जिसमें अभियुक्त ने आत्मरक्षा में कार्य किया हो सकता है।

2. अभियोजन पक्ष (सरकार और मृतकों के परिवार) के तर्क:

  • मौके पर मौजूद चश्मदीद गवाहों ने अभियुक्तों को पहचाना।
  • पोस्टमार्टम रिपोर्ट में पुष्टि हुई कि मृतकों की हत्या गोली लगने से हुई थी।
  • सभी गवाहों के बयान इस बिंदु पर स्पष्ट थे कि गोली अभियुक्तों ने चलाई थी।

पटना उच्च न्यायालय का निर्णय:

1. अदालत द्वारा किए गए अवलोकन:

  • एफआईआर में देरी का स्पष्टीकरण अपर्याप्त: अदालत ने कहा कि एफआईआर दर्ज करने में हुई देरी को सही तरीके से समझाया नहीं गया। पुलिस पहले ही घटनास्थल पर पहुंच चुकी थी, फिर भी एफआईआर दर्ज करने में छह घंटे की देरी क्यों हुई, यह संदिग्ध था।
  • गवाहों के बयान असंगत थे: कुछ गवाहों ने घटना का समय 5:30 बजे बताया, जबकि कुछ ने 7:30 बजे। इसके अलावा, घटना स्थल को लेकर भी भिन्नताएं थीं।
  • अभियुक्त सुषील सिंह के घायल होने की पुष्टि: अभियुक्त सुषील सिंह के मेडिकल रिपोर्ट से साबित हुआ कि उन्हें भी झगड़े में चोटें आई थीं, लेकिन अभियोजन पक्ष ने इस पर कोई सफाई नहीं दी।
  • प्रमाणिक साक्ष्यों की कमी: पुलिस ने घटनास्थल से कोई कारतूस या हथियार बरामद नहीं किया। इसके अलावा, जिस मोटरसाइकिल को जब्त किया गया, उस पर मामले की केस संख्या पहले से दर्ज थी, जबकि मामला उस समय दर्ज भी नहीं हुआ था।

2. अंतिम निर्णय:

इन सभी तथ्यों को ध्यान में रखते हुए, पटना उच्च न्यायालय ने 30 मार्च 2022 को निचली अदालत के फैसले को पलट दिया और दोनों अभियुक्तों को सभी आरोपों से बरी कर दिया।


निष्कर्ष:

यह मामला न्यायिक प्रक्रिया में निष्पक्षता और साक्ष्य की सटीकता के महत्व को दर्शाता है। उच्च न्यायालय ने पाया कि:

  • एफआईआर दर्ज करने में अनुचित देरी हुई।
  • गवाहों के बयान विरोधाभासी थे।
  • पुलिस जांच में गंभीर खामियां थीं।
  • बचाव पक्ष के तर्क अधिक ठोस और प्रमाणिक थे।

इसलिए, अदालत ने संदेह का लाभ देते हुए अभियुक्तों को बरी कर दिया।


महत्वपूर्ण सीख:

  1. गंभीर आपराधिक मामलों में पुलिस जांच का निष्पक्ष और सुव्यवस्थित होना आवश्यक है।
  2. प्रत्येक गवाह के बयान स्पष्ट और सुसंगत होने चाहिए, अन्यथा न्यायालय उन्हें स्वीकार नहीं करेगा।
  3. अभियुक्त को संदेह का लाभ दिया जाता है यदि अभियोजन पक्ष सबूतों को उचित रूप से स्थापित नहीं कर पाता।

यह निर्णय भारतीय न्यायपालिका में निष्पक्ष न्याय प्रक्रिया और उचित साक्ष्य पर आधारित फैसलों का एक महत्वपूर्ण उदाहरण है।

पूरा फैसला
पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें:

https://patnahighcourt.gov.in/viewjudgment/NSM3MzYjMjAxNiMxI04=-BAR7NkO3CZU=

Abhishek Kumar

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