"52 साल बाद अनुकंपा नियुक्ति की माँग – पटना हाई कोर्ट ने याचिका खारिज की"

“52 साल बाद अनुकंपा नियुक्ति की माँग – पटना हाई कोर्ट ने याचिका खारिज की”

 

परिचय

क्या किसी सरकारी कर्मचारी की मृत्यु के 52 साल बाद उसके पुत्र को अनुकंपा के आधार पर सरकारी नौकरी मिल सकती है?
पटना उच्च न्यायालय के समक्ष इसी तरह का एक असाधारण मामला आया, जिसमें रमणंद सिंह नामक व्यक्ति ने अपने पिता की मृत्यु के लगभग पांच दशक बाद अनुकंपा नियुक्ति की मांग की। यह मामला सिविल रिट न्याय क्षेत्रीय वाद संख्या 18313/2015 के रूप में दर्ज हुआ। इस केस का फैसला दिनांक 05 अक्टूबर 2023 को न्यायमूर्ति मोहित कुमार शाह ने सुनाया।


मामले की पृष्ठभूमि

याचिकाकर्ता रमणंद सिंह के पिता, जो बिहार सरकार के अधीन कार्यरत थे, 17 मई 1971 को सेवा में रहते हुए स्वर्गवास कर गए थे। उस समय याचिकाकर्ता नाबालिग था और अनुकंपा नियुक्ति के योग्य नहीं था।

सालों तक चुप्पी के बाद, याचिकाकर्ता ने 11 मई 2011 और फिर 24 जुलाई 2013 को अनुकंपा पर नियुक्ति की मांग को लेकर आवेदन दिया। जब कोई कार्रवाई नहीं हुई, तो उन्होंने 2015 में पटना हाई कोर्ट का दरवाजा खटखटाया।


याचिकाकर्ता की दलील

रमणंद सिंह का कहना था कि:

  • वे मृतक कर्मचारी के पुत्र हैं।

  • पिता की मृत्यु के समय वे नाबालिग थे, इसलिए आवेदन नहीं कर सके।

  • अब वे पूर्ण रूप से पात्र हैं और उन्हें “दफादार” के पद पर नियुक्त किया जाना चाहिए।

  • किसी अन्य व्यक्ति (प्रतिवादी संख्या 7) को अवैध रूप से उस पद पर नियुक्त कर दिया गया है।


राज्य सरकार का पक्ष

राज्य सरकार की ओर से पेश अधिवक्ता ने स्पष्ट रूप से निम्नलिखित तर्क रखे:

  1. मृत्यु के 5 वर्षों के भीतर आवेदन आवश्यक:
    अनुकंपा नियुक्ति से संबंधित नियमों के अनुसार कर्मचारी की मृत्यु के 5 वर्ष के भीतर आवेदन करना अनिवार्य है। जबकि याचिकाकर्ता ने यह आवेदन लगभग 40 साल बाद किया।

  2. आयु सीमा पार:
    2015 में जब याचिका दाखिल की गई, उस समय याचिकाकर्ता की उम्र 53 वर्ष थी। इस प्रकार, अब वे सेवानिवृत्ति की आयु (60 वर्ष) के करीब हैं। अतः उन्हें नियुक्त करने का कोई औचित्य नहीं है।

  3. नियमों की अवहेलना से नीति को ठेस:
    अगर इतने वर्षों बाद किसी को अनुकंपा नियुक्ति दे दी जाए, तो इसका असर समूची नीति और प्रशासनिक प्रक्रिया पर पड़ेगा। यह नीति केवल तत्कालीन संकट में फंसे परिवारों की मदद के लिए है, न कि दशकों बाद किसी को नौकरी देने के लिए।


न्यायालय का विश्लेषण

📌 न्यायालय ने निम्नलिखित बिंदुओं पर विचार किया:

  • समय की महत्ता:
    अनुकंपा नियुक्ति का उद्देश्य है—अचानक उत्पन्न आर्थिक संकट में परिवार की सहायता करना। यदि यह नियुक्ति इतने वर्षों बाद दी जाए, तो उसका उद्देश्य ही खत्म हो जाता है।

  • कानूनी सीमा का उल्लंघन:
    नियमों के अनुसार, नियुक्ति की मांग 5 वर्षों के भीतर होनी चाहिए। यहां लगभग 40 वर्षों के बाद आवेदन किया गया।

  • उम्र और योग्यता:
    याचिकाकर्ता की आयु अब सेवा में आने योग्य नहीं है। ऐसे में नियुक्ति देना एक व्यर्थ प्रयास होगा।

  • समान प्रकृति के मामले बढ़ने का खतरा:
    अगर कोर्ट इस याचिका को स्वीकार करता, तो अन्य कई मामलों में भी लोग वर्षों बाद नौकरी की मांग करने लगते, जिससे प्रशासनिक जटिलता उत्पन्न होती।


सुप्रीम कोर्ट के फैसले का उल्लेख

न्यायालय ने अपने निर्णय में सुप्रीम कोर्ट के प्रसिद्ध फैसले का भी उल्लेख किया:

“Umesh Kumar Nagpal v. State of Haryana & Ors., (1994) 4 SCC 138”
इस निर्णय में सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट किया था कि अनुकंपा नियुक्ति कोई अधिकार नहीं है, बल्कि यह प्रशासन की ओर से सहानुभूति पर आधारित विशेष सहूलियत होती है, जो केवल तत्कालीन कठिन परिस्थितियों में दी जाती है।


न्यायालय का निर्णय

न्यायालय ने पूरे मामले पर विचार करते हुए यह निष्कर्ष निकाला कि:

  • याचिकाकर्ता की मांग नियमों के अनुसार नहीं है।

  • इतनी अत्यधिक देरी के बाद अनुकंपा नियुक्ति देना न केवल नियमों का उल्लंघन होगा, बल्कि नीति का भी दुरुपयोग होगा।

  • याचिकाकर्ता की आयु अब सेवा के योग्य नहीं रही

इसलिए, न्यायालय ने याचिका को खारिज कर दिया।


न्यायिक टिप्पणियाँ: समझने योग्य रूप में

बिंदु विवरण
मामला अनुकंपा नियुक्ति की मांग
याचिकाकर्ता रमणंद सिंह
मृत्यु की तिथि 17 मई 1971
आवेदन की तिथि 2011 और 2013
आयु 2015 में 53 वर्ष
कोर्ट का निष्कर्ष नियुक्ति की मांग बहुत देर से की गई और आयु सीमा पार हो गई
निर्णय याचिका खारिज

निष्कर्ष

यह मामला एक महत्वपूर्ण उदाहरण है कि सहानुभूति पर आधारित योजनाओं का दुरुपयोग या विलंबित प्रयोग न्यायालयों द्वारा स्वीकार नहीं किया जाता। न्यायपालिका ने एक बार फिर यह स्पष्ट कर दिया कि कोई भी नीति अपने उद्देश्य से भटककर लागू नहीं की जा सकती।

🔔 यह फैसला उन सभी के लिए एक सख्त संदेश है जो वर्षों बाद किसी सरकारी लाभ की आशा रखते हैं – “न्याय नीति के भीतर ही मान्य होता है, भावनाओं के बाहर नहीं।”

पूरा फैसला
पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें:

https://patnahighcourt.gov.in/viewjudgment/MTUjMTgzMTMjMjAxNSMxI04=-Iffbi8umuiU=

Abhishek Kumar

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