पटना उच्च न्यायालय का निर्णय : विश्वविद्यालय परीक्षा में उत्तरपुस्तिका के पुनर्मूल्यांकन पर आदेश (2021)

पटना उच्च न्यायालय का निर्णय : विश्वविद्यालय परीक्षा में उत्तरपुस्तिका के पुनर्मूल्यांकन पर आदेश (2021)

निर्णय की सरल व्याख्या

इस मामले में कुछ विद्यार्थियों ने पटना उच्च न्यायालय का दरवाज़ा खटखटाया। उनकी शिकायत थी कि विश्वविद्यालय के कुलपति ने समय पर उनकी पुनर्मूल्यांकन/पुनर्गणना की अर्जी पर कोई ठोस फैसला नहीं लिया। जब मामला कोर्ट में आया, तो विश्वविद्यालय ने बताया कि एक शिकायत समिति ने उत्तरपुस्तिकाओं की जाँच कर ली है और उसमें किसी गड़बड़ी की बात नहीं पाई गई। इसके आधार पर कुलपति ने 15.09.2020 को अर्जी खारिज कर दी।

विद्यार्थियों ने कहा कि यह प्रक्रिया सिर्फ औपचारिक थी। उन्होंने सूचना का अधिकार (RTI) से अपनी कॉपियों की नकल निकाली और अदालत के सामने कुछ स्पष्ट गड़बड़ियाँ दिखाईं—जैसे आंतरिक मूल्यांकन का अंक दर्ज ही नहीं था, OMR शीट पर बिना हस्ताक्षर के अंक काटे–जोड़े गए थे, और एक मामले में तो सीधे–सीधे जोड़-घटाव की गलती थी। अदालत ने माना कि इनमें से कुछ खामियाँ सतह पर ही दिख रही थीं और इन्हें नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता।

विद्यार्थियों ने यह भी दलील दी कि मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया (MCI) के नियमों के अनुसार, मूल्यांकन कम से कम चार परीक्षकों से होना चाहिए, जिनमें से आधे बाहरी होने चाहिए। लेकिन विश्वविद्यालय ने कई विषयों की जाँच सिर्फ एक ही परीक्षक से करवाई। अदालत ने इस पर आपत्ति जताई, हालांकि उसने पूरा फैसला इस आधार पर पलटने से परहेज़ किया ताकि पूरे परीक्षा सत्र पर असर न पड़े। अदालत ने केवल भविष्य में इन नियमों के कड़ाई से पालन का निर्देश दिया।

पटना उच्च न्यायालय ने कहा कि आम तौर पर अदालतें कॉपियों का पुनर्मूल्यांकन नहीं करतीं क्योंकि यह शैक्षणिक विशेषज्ञों का क्षेत्र है। लेकिन अगर स्पष्ट और प्रत्यक्ष त्रुटियाँ दिखती हैं, तो अदालत दखल दे सकती है। अदालत ने सुप्रीम कोर्ट के कई फैसलों का हवाला दिया और कहा कि यहाँ मामला “स्पष्ट प्रक्रिया संबंधी चूक” का है, न कि शैक्षणिक मूल्यांकन पर राय का।

आख़िरकार, अदालत ने कुलपति को निर्देश दिया कि वह छात्रों की अर्जी दोबारा और सोच-समझकर देखें। अगर ज़रूरी लगे तो कॉपियों को पुनर्गणना या पुनर्मूल्यांकन के लिए समिति को भेजें। अगर कुलपति मानते हैं कि ज़रूरत नहीं है, तो वही अंतिम निर्णय माना जाएगा।

एक और व्यावहारिक समस्या पर भी अदालत ने ध्यान दिया—कुछ विद्यार्थी पहले ही दोबारा परीक्षा देकर पास हो चुके थे। इस स्थिति में दो परिणाम हो सकते हैं। अदालत ने कहा कि विश्वविद्यालय को सख़्त रवैया नहीं अपनाना चाहिए। अगर पुनर्मूल्यांकन में छात्र पास हो जाता है, तो वही अंक अंतिम होंगे। लेकिन अगर पुनर्मूल्यांकन में वह फेल होता है और बाद की परीक्षा में पास हो चुका है, तो उसे उस पास का लाभ मिलना चाहिए।

निर्णय का महत्व और इसका प्रभाव आम जनता या सरकार पर

  • छात्रों के लिए: यह फैसला बताता है कि अदालत तभी हस्तक्षेप करती है जब गड़बड़ियाँ स्पष्ट और सतही हों, जैसे जोड़-घटाव की गलती या बिना हस्ताक्षर के बदलाव। छात्र अगर शिकायत करें तो उन्हें ठोस सबूत दिखाने होंगे।
  • विश्वविद्यालयों के लिए: शिकायत या जाँच समितियों को सतर्क रहना होगा और सिर्फ औपचारिक जाँच नहीं करनी होगी। उन्हें सुनिश्चित करना होगा कि अंकगणना या हस्ताक्षर जैसी बुनियादी गलतियाँ न रहें।
  • नीति और नियामक संस्थाओं के लिए: अदालत ने संकेत दिया कि भविष्य में MCI के नियमों का पालन ज़रूरी है। इससे मूल्यांकन की प्रक्रिया बेहतर होगी और मुकदमों की संख्या कम होगी।
  • व्यावहारिक न्याय के लिए: अदालत ने यह भी कहा कि छात्रों के भविष्य को देखते हुए लचीला रवैया अपनाना चाहिए। अगर किसी छात्र ने बाद में परीक्षा पास कर ली है, तो पुराने विवाद के आधार पर उसे नुकसान नहीं होना चाहिए।

कानूनी मुद्दे और निर्णय

  • क्या अदालत उत्तरपुस्तिकाओं का पुनर्मूल्यांकन कर सकती है?
    • सामान्यतः नहीं, लेकिन अगर साफ़ गड़बड़ी दिखे तो अदालत हस्तक्षेप कर सकती है।
  • प्रक्रियात्मक त्रुटियाँ जैसे जोड़-घटाव की गलती या बिना हस्ताक्षर के बदलाव को कैसे देखा जाए?
    • यह शैक्षणिक राय का विषय नहीं बल्कि प्रशासनिक गलती है, जिसे सुधारा जाना चाहिए।
  • MCI नियमों के तहत न्यूनतम परीक्षकों की संख्या का पालन हुआ या नहीं?
    • अदालत ने पाया कि नियमों की गलत व्याख्या की गई थी। उसने भविष्य में पालन का निर्देश दिया।
  • जब छात्र ने पुनर्मूल्यांकन की अर्जी भी दी और बाद में दोबारा परीक्षा भी दी तो कौन सा परिणाम मान्य होगा?
    • अदालत ने कहा कि छात्रों को नुकसान न पहुँचे। अगर पुनर्मूल्यांकन से पास होता है तो वही मानें, और अगर उसमें फेल होता है पर बाद की परीक्षा से पास हो चुका है, तो उस पास का लाभ मिलना चाहिए।

न्यायालय द्वारा उपयोग में लाए गए निर्णय

  • Ranvijay Singh v. State of U.P., (2018) 2 SCC 357
  • Himachal Pradesh PSC v. Mukesh Thakur, (2010) 6 SCC 375
  • Kanpur University v. Samir Gupta, (1983) 4 SCC 309
  • Maharashtra State Board v. Paritosh Bhupeshkumar Sheth, (1984) 4 SCC 27
  • Pramod Kumar Srivastava v. BPSC, (2004) 6 SCC 714

मामले का शीर्षक

विद्यार्थी बनाम आर्यभट्ट ज्ञान विश्वविद्यालय एवं अन्य

केस नंबर

CWJC No. 7692 of 2020 (साथ में CWJC No. 7708/2020 और CWJC No. 7811/2020)

उद्धरण (Citation)

2021(2) PLJR 117

न्यायमूर्ति गण का नाम

माननीय श्री न्यायमूर्ति अशुतोष कुमार

वकीलों के नाम और किनकी ओर से पेश हुए

  • याचिकाकर्ताओं की ओर से (CWJC No. 7692/2020): श्री अनिल कुमार सिंह, सुश्री बेला सिंह, अधिवक्ता
  • प्रतिवादियों की ओर से (CWJC No. 7692/2020): श्री प्रियांक दीपक, अधिवक्ता
  • याचिकाकर्ताओं की ओर से (CWJC No. 7708/2020): श्री अनिल कुमार सिंह, सुश्री बेला सिंह, अधिवक्ता
  • प्रतिवादियों की ओर से (CWJC No. 7708/2020): श्री अवधेश कुमार, अधिवक्ता
  • याचिकाकर्ता की ओर से (CWJC No. 7811/2020): श्री संदीप कुमार, श्री आलोक कुमार @ आलोक कुमार शाही, अधिवक्ता
  • प्रतिवादियों की ओर से (CWJC No. 7811/2020): श्री अवधेश कुमार, अधिवक्ता

निर्णय का लिंक

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Aditya Kumar

Aditya Kumar is a dedicated and detail-oriented legal intern with a strong academic foundation in law and a growing interest in legal research and writing. He is currently pursuing his legal education with a focus on litigation, policy, and public law. Aditya has interned with reputed law offices and assisted in drafting legal documents, conducting research, and understanding court procedures, particularly in the High Court of Patna. Known for his clarity of thought and commitment to learning, Aditya contributes to Samvida Law Associates by simplifying complex legal topics for public understanding through well-researched blog posts.

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