निर्णय की सरल व्याख्या
पटना उच्च न्यायालय ने 16 मार्च 2021 को एक अहम फैसला दिया जिसमें यह कहा गया कि यदि कोई सरकारी अधिकारी अपने सरकारी कर्तव्यों के निर्वहन के दौरान कोई कार्य करता है, तो उसके खिलाफ आपराधिक मुकदमा दर्ज करने से पहले सरकार की पूर्व अनुमति (Sanction) लेना अनिवार्य है।
यह मामला एक याचिकाकर्ता द्वारा दायर फौजदारी रिट याचिका (Criminal Writ Jurisdiction Case No. 454 of 2019) से जुड़ा था। याचिकाकर्ता ने बिहार लोक सेवा आयोग (BPSC) की 47वीं संयुक्त प्रारंभिक परीक्षा (2004) में हुई कथित अनियमितताओं के खिलाफ कार्यवाही की मांग की थी।
याचिकाकर्ता का आरोप था कि परीक्षा में आरक्षण नीति (Bihar Reservation Act, 1991) का उल्लंघन किया गया, क्योंकि सामान्य और पिछड़े वर्ग के अभ्यर्थियों के लिए समान कटऑफ निर्धारित किया गया था। इससे ओबीसी अभ्यर्थियों को आरक्षण का लाभ नहीं मिल पाया।
उसका दावा था कि जब यह मामला विधानसभा में उठा, तो तत्कालीन मुख्यमंत्री और वरिष्ठ अधिकारियों ने सदन को यह कहकर गुमराह किया कि कोई उल्लंघन नहीं हुआ है। इसलिए उसने इन सभी अधिकारियों के खिलाफ आईपीसी की विभिन्न धाराओं और बिहार आरक्षण अधिनियम की धारा 12 के तहत आपराधिक मामला दर्ज कराने की मांग की।
निचली अदालत में कार्यवाही
मुख्य न्यायिक दंडाधिकारी (CJM), पटना ने पहले CrPC की धारा 156(3) के तहत प्राथमिकी दर्ज करने का निर्देश दिया था। लेकिन सचिवालय थाना प्रभारी ने रिपोर्ट दर्ज करने से इनकार करते हुए कहा कि आरोपित सभी लोक सेवक (Public Servants) हैं और उनके खिलाफ कार्यवाही शुरू करने से पहले धारा 197 CrPC के तहत सरकार की पूर्व अनुमति आवश्यक है।
जब याचिकाकर्ता ने इस फैसले को पहले Cr.W.J.C. No. 916/2017 में चुनौती दी, तो पटना उच्च न्यायालय ने थाना प्रभारी के निर्णय को सही ठहराया। बाद में सुप्रीम कोर्ट ने भी याचिकाकर्ता की विशेष अनुमति याचिका (SLP (Crl.) No. 1586/2018) खारिज कर दी।
इसके बावजूद, याचिकाकर्ता ने फिर से 2018 में CJM के समक्ष नई याचिका दायर की और कहा कि चूंकि कथित कृत्य सरकारी दायित्व का हिस्सा नहीं थे, इसलिए अनुमति की आवश्यकता नहीं है। लेकिन CJM ने 29 अक्टूबर 2018 को कहा कि सभी आरोपी अपने आधिकारिक कर्तव्यों के अंतर्गत कार्य कर रहे थे, इसलिए बिना अनुमति कोई मामला दर्ज नहीं किया जा सकता।
उच्च न्यायालय में तर्क
- याचिकाकर्ता का तर्क:
उन्होंने कहा कि मजिस्ट्रेट ने गलत तरीके से धारा 197 की अनुमति को अनिवार्य माना। उन्होंने Vinubhai Haribhai Malaviya v. State of Gujarat (2019) 17 SCC 1 का हवाला दिया और कहा कि जांच शुरू करने के लिए अनुमति की आवश्यकता नहीं होती। - राज्य सरकार का पक्ष:
राज्य की ओर से महाधिवक्ता (Advocate General) ने कहा कि यह मामला उन कार्यों से जुड़ा है जो अधिकारी अपने आधिकारिक दायित्वों के तहत कर रहे थे — जैसे विधानसभा में दिए गए बयान — जो संविधान के अनुच्छेद 194 (विधानमंडलीय विशेषाधिकार) के अंतर्गत सुरक्षित हैं। उन्होंने यह भी कहा कि यह शिकायत राजनीतिक उद्देश्य से प्रेरित थी और अधिकारियों की छवि खराब करने का प्रयास था।
न्यायालय के अवलोकन
माननीय न्यायमूर्ति राजीव रंजन प्रसाद ने विभिन्न सर्वोच्च न्यायालय के फैसलों का हवाला देते हुए कहा कि —
- धारा 197 CrPC सरकारी कर्मचारियों को उस स्थिति में सुरक्षा देती है जब आरोपित कार्य उनके आधिकारिक कर्तव्यों से संबंधित हो।
- यदि कार्य और कर्तव्य के बीच उचित संबंध (reasonable connection) है, तो पूर्व अनुमति आवश्यक है — चाहे वह कार्य सीमा से बाहर गया हो या गलतीपूर्ण हो।
- न्यायालय यह जांच सकता है कि अनुमति की आवश्यकता है या नहीं, लेकिन इस मामले में CJM ने सही पाया कि यह कार्य आधिकारिक दायरे में आते हैं।
न्यायालय ने Matajog Dobey v. H.C. Bhari (1956), Anil Kumar v. M.K. Aiyappa (2013), और D. Devaraja v. Owais Sabeer Hussain (2020) जैसे सुप्रीम कोर्ट के फैसलों का उल्लेख किया और कहा कि यह सुरक्षा सरकारी कर्मचारियों को मनमाने मुकदमों से बचाने के लिए है।
न्यायालय का निर्णय
पटना उच्च न्यायालय ने 29 अक्टूबर 2018 के CJM के आदेश को सही ठहराया और कहा कि—
- जिन कार्यों का आरोप लगाया गया, वे आधिकारिक कर्तव्यों के निर्वहन के दौरान किए गए थे।
- इसलिए CrPC की धारा 197 के तहत पूर्व अनुमति आवश्यक है।
- बिना अनुमति अभियोजन शुरू करना अवैध होगा।
इसलिए याचिका खारिज कर दी गई।
निर्णय का महत्व और प्रभाव
- सरकारी अधिकारियों के लिए सुरक्षा:
यह फैसला सरकारी कर्मचारियों को यह कानूनी संरक्षण देता है कि यदि उन्होंने अपने कर्तव्यों के तहत कोई निर्णय लिया है, तो उन्हें सीधे आपराधिक मुकदमे में नहीं घसीटा जा सकता। - झूठे मुकदमों से बचाव:
इस निर्णय से यह सुनिश्चित होता है कि किसी राजनीतिक या निजी द्वेष के कारण सार्वजनिक अधिकारियों के खिलाफ झूठे मुकदमे न चलें। - न्याय और प्रशासनिक संतुलन:
यह फैसला स्पष्ट करता है कि सरकारी अधिकारियों की जवाबदेही बनी रहनी चाहिए, परंतु साथ ही उन्हें बेवजह परेशान करने की छूट भी नहीं दी जा सकती। - नीति निर्माण और विधानमंडलीय प्रक्रिया की सुरक्षा:
न्यायालय ने माना कि विधानसभा में दिए गए बयान या नीतिगत उत्तर संविधान के अनुच्छेद 194 के तहत संरक्षित हैं। ऐसे कार्यों को लेकर आपराधिक मुकदमा दायर नहीं किया जा सकता।
कानूनी मुद्दे और न्यायालय का निर्णय
- प्रश्न 1: क्या सरकारी अधिकारी के खिलाफ अभियोजन से पहले अनुमति आवश्यक है?
उत्तर: हाँ। यदि कथित कार्य सरकारी कर्तव्य से जुड़ा है, तो धारा 197 CrPC के तहत पूर्व अनुमति जरूरी है। - प्रश्न 2: क्या मुख्यमंत्री या मंत्रियों द्वारा विधानसभा में दिए गए बयान के लिए अभियोजन चल सकता है?
उत्तर: नहीं। ऐसे कार्य अनुच्छेद 194 के तहत विशेषाधिकार के दायरे में आते हैं। - प्रश्न 3: क्या मजिस्ट्रेट का आदेश न्यायसंगत था?
उत्तर: हाँ। CJM ने सभी तथ्यों का मूल्यांकन कर सही निर्णय लिया कि यह कार्य सरकारी कर्तव्य के अंतर्गत थे, इसलिए अनुमति जरूरी थी।
न्यायालय द्वारा उपयोग में लाए गए प्रमुख निर्णय
- Matajog Dobey v. H.C. Bhari, AIR 1956 SC 44
- Anil Kumar v. M.K. Aiyappa, (2013) 10 SCC 705
- D. Devaraja v. Owais Sabeer Hussain, (2020) 7 SCC 695
- Vinubhai Haribhai Malaviya v. State of Gujarat, (2019) 17 SCC 1
मामले का शीर्षक
याचिकाकर्ता बनाम बिहार राज्य एवं अन्य
केस नंबर
Criminal Writ Jurisdiction Case No. 454 of 2019
(Complaint Case No. 3165(C)/2015 से संबंधित)
उद्धरण (Citation)
2021(2) PLJR 481
न्यायमूर्ति गण का नाम
माननीय न्यायमूर्ति राजीव रंजन प्रसाद
वकीलों के नाम और किनकी ओर से पेश हुए
- याचिकाकर्ता स्वयं उपस्थित
- श्री ललित किशोर, महाधिवक्ता (Advocate General), श्री प्रभु नारायण शर्मा के साथ — राज्य बिहार की ओर से
निर्णय का लिंक
MTYjNDU0IzIwMTkjMSNO-AycWMLxTLbU=
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