निर्णय की सरल व्याख्या
पटना हाई कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में पूर्णिया जिले के बहुचर्चित मामले में तीन अभियुक्तों को बरी कर दिया, जिन्हें निचली अदालत ने 2012 में एक नाबालिग बालिका की बलात्कार और हत्या के मामले में दोषी ठहराते हुए मृत्युदंड दिया था।
हाई कोर्ट ने कहा कि अभियोजन पक्ष (Prosecution) इस बात को संदेह से परे साबित नहीं कर सका कि वही तीनों व्यक्ति इस अपराध के लिए जिम्मेदार थे। न्यायालय ने स्पष्ट किया कि अपराध भले ही जघन्य था, लेकिन जब तक साक्ष्य (Evidence) कानूनी रूप से ठोस और भरोसेमंद न हो, तब तक किसी को सजा नहीं दी जा सकती—विशेष रूप से मृत्युदंड जैसी कठोर सजा।
मामला वर्ष 2012 का है। एक ग्रामीण क्षेत्र में 13 वर्षीया बालिका का शव मक्का के खेत में मिला था। परिवार ने पहले तो अज्ञात व्यक्तियों के खिलाफ एफआईआर दर्ज कराई। बाद में पुलिस जांच के आधार पर तीन युवकों को गिरफ्तार किया गया और उनके खिलाफ हत्या, सामूहिक बलात्कार और आपराधिक षड्यंत्र (Criminal Conspiracy) के आरोप लगाए गए।
पुर्णिया के सत्र न्यायालय ने वर्ष 2018 में इन्हें दोषी मानते हुए धारा 302/34, 376(2)(g) और 120-B आईपीसी के तहत सजा सुनाई—हत्या के लिए मृत्युदंड और अन्य धाराओं के लिए आजीवन कारावास।
परंतु, जब मामला पटना हाई कोर्ट में Death Reference (मृत्युदंड की पुष्टि के लिए स्वतः भेजा जाने वाला मामला) के रूप में आया, तो अदालत ने पूरे साक्ष्य दोबारा जांचे।
दो सदस्यीय पीठ—माननीय न्यायमूर्ति अश्विनी कुमार सिंह और माननीय न्यायमूर्ति अरविंद श्रीवास्तव—ने पाया कि अभियोजन पक्ष की कहानी पूरी तरह परिस्थितिजन्य साक्ष्य (Circumstantial Evidence) पर आधारित थी, और इस साक्ष्य की कड़ियाँ अधूरी थीं।
अदालत की प्रमुख टिप्पणियाँ
- कोई प्रत्यक्षदर्शी नहीं था। किसी गवाह ने यह नहीं कहा कि उसने बालिका को अभियुक्तों के साथ देखा था या उन्हें घटना स्थल के पास देखा गया था।
- “लास्ट सीन” का प्रमाण नहीं। किसी ने यह नहीं बताया कि पीड़िता को आखिरी बार किसने देखा था या वह किनके साथ थी।
- बाल साक्षी ने अदालत में बयान से मुकर गया। जांच के दौरान एक बाल साक्षी का बयान धारा 164 दं.प्र.सं. के तहत दर्ज हुआ था, लेकिन ट्रायल में उसने सबकुछ नकार दिया।
- पुलिस द्वारा दर्ज स्वीकारोक्ति (Confession) अविश्वसनीय मानी गई। अदालत ने कहा कि पुलिस के समक्ष दिए गए बयान कानूनन सबूत नहीं माने जा सकते जब तक वे अदालत में पुनः स्वीकार न किए जाएं।
- फॉरेंसिक रिपोर्ट अधूरी थी। मृतका के रक्त के नमूने नहीं लिए गए, जिससे खून के धब्बों की तुलना नहीं हो सकी। कपड़ों और बालों से मिले नमूने भी वैज्ञानिक रूप से पर्याप्त नहीं थे क्योंकि बालों में जड़ें नहीं थीं।
- षड्यंत्र का आरोप अनुमान पर आधारित था। यह केवल यह मान लेना कि कई लोग साथ थे, षड्यंत्र साबित नहीं करता।
अदालत ने कहा कि केवल संदेह या अनुमान के आधार पर किसी को दोषी नहीं ठहराया जा सकता। यदि साक्ष्य की हर कड़ी साफ़-साफ़ न जुड़ पाए तो आरोपी को लाभ देना न्याय का मूल सिद्धांत है।
इसलिए, हाई कोर्ट ने तीनों अपीलें मंज़ूर कीं, दोष सिद्धि और सज़ा को रद्द कर दिया तथा अभियुक्तों को बरी कर दिया। साथ ही, मृत्युदंड संदर्भ को अस्वीकार कर दिया गया।
निर्णय का महत्व और इसका प्रभाव आम जनता या सरकार पर
यह निर्णय जनता के लिए यह संदेश देता है कि कानून भावना से नहीं, सबूत से चलता है।
भले ही अपराध कितना भी नृशंस क्यों न हो, अदालतें केवल वैध और प्रमाणिक साक्ष्य के आधार पर ही दोष तय करती हैं। इससे यह सुनिश्चित होता है कि निर्दोष व्यक्ति को सज़ा न मिले।
इस फैसले का सरकारी अधिकारियों और जांच एजेंसियों पर भी बड़ा असर है।
- यह बताता है कि फॉरेंसिक जांच को पूरी तरह वैज्ञानिक और सावधानीपूर्वक करना आवश्यक है।
- मृतका के खून का नमूना न लेना और सबूतों की श्रृंखला (Chain of Custody) सुरक्षित न रखना, केस को कमजोर कर देता है।
- पुलिस को यह ध्यान रखना चाहिए कि अदालत केवल वही साक्ष्य मानेगी जो कानूनन स्वीकार्य हो।
निचली अदालतों के लिए भी यह फैसला एक मार्गदर्शन है कि वे किसी भी अभियुक्त को केवल संदेह के आधार पर दोषी घोषित न करें, विशेष रूप से जब मामला मृत्युदंड का हो। अदालत ने कहा कि न्याय में कठोरता नहीं, बल्कि निष्पक्षता सर्वोपरि है।
कानूनी मुद्दे और निर्णय
- क्या परिस्थितिजन्य साक्ष्य की श्रृंखला पूरी थी?
❌ नहीं। कोई प्रत्यक्ष साक्ष्य नहीं था, और वैज्ञानिक रिपोर्ट अधूरी थी। - क्या पुलिस द्वारा दर्ज स्वीकारोक्ति और बरामदगी पर्याप्त थी?
❌ नहीं। ये साक्ष्य कानूनन अपर्याप्त और अविश्वसनीय थे। - क्या षड्यंत्र और सामूहिक बलात्कार का आरोप सिद्ध हुआ?
❌ नहीं। न तो कोई ठोस गवाह था और न ही वैज्ञानिक प्रमाण जिससे यह साबित हो सके कि अभियुक्तों ने यह अपराध मिलकर किया। - क्या मृत्युदंड की पुष्टि की जानी चाहिए थी?
❌ नहीं। जब दोष सिद्धि ही टिक नहीं पाई, तो मृत्युदंड की पुष्टि का प्रश्न ही नहीं उठता।
पार्टियों द्वारा संदर्भित निर्णय
- Sharad Birdichand Sarda v. State of Maharashtra (1984) 4 SCC 116 — परिस्थितिजन्य साक्ष्य वाले मामलों में पाँच स्वर्णिम सिद्धांत।
- Shankarlal Gyarasilal Dixit v. State of Maharashtra, AIR 1981 SC 765 — केवल संदेह के आधार पर दोषसिद्धि नहीं की जा सकती।
- Subhash Chand v. State of Rajasthan, 2001 Supp (4) SCR 163 — प्रत्येक परिस्थिति को अलग-अलग प्रमाणित करना आवश्यक है।
न्यायालय द्वारा उपयोग में लाए गए निर्णय
- Sharad Birdichand Sarda v. State of Maharashtra (1984) 4 SCC 116 — अदालत ने इसका विस्तृत उल्लेख करते हुए कहा कि सभी परिस्थितियाँ आपस में जुड़कर केवल आरोपी की ओर इशारा करें, तभी दोषसिद्धि संभव है।
- Subhash Chand v. State of Rajasthan (2001 Supp (4) SCR 163) और Shankarlal Gyarasilal Dixit v. State of Maharashtra (AIR 1981 SC 765) — अदालत ने इन मामलों से यह सिद्धांत लिया कि “हो सकता है” और “जरूर हुआ है” के बीच की दूरी केवल पुख्ता सबूत से तय होती है।
मामले का शीर्षक
State v. Accused Persons (Sessions Trial No. 965/2012, arising out of Barhara P.S. Case No. 99/2012, Purnea District)
(Death Reference No. 2 of 2018; Criminal Appeal (DB) Nos. 301, 493, 501 of 2018)
केस नंबर
Death Reference No. 2 of 2018; Criminal Appeal (DB) Nos. 301, 493, 501 of 2018; arising out of Barhara P.S. Case No. 99 of 2012, District Purnea
उद्धरण (Citation)
2021(2) PLJR 497
न्यायमूर्ति गण का नाम
माननीय न्यायमूर्ति अश्विनी कुमार सिंह
माननीय न्यायमूर्ति अरविंद श्रीवास्तव
वकीलों के नाम और किनकी ओर से पेश हुए
- अभियुक्तों की ओर से: श्री अंसुल, श्री रामप्रवेश नाथ तिवारी, श्री अभिनव अशोक, सुश्री सागरिका, श्री आदित्य पांडे, श्री नवनीत श्रीवास्तव, श्री शुभम प्रकाश।
- राज्य की ओर से: श्री मयानंद झा, श्री अजय मिश्रा, सुश्री शशि बाला वर्मा (अपर लोक अभियोजक)।
- न्यायालय द्वारा नियुक्त अमिकस क्यूरी: श्री प्रतीक मिश्रा।
निर्णय का लिंक
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