निर्णय की सरल व्याख्या
पटना हाई कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसला देते हुए यह स्पष्ट किया कि सरकारी सेवकों के खिलाफ अनुशासनात्मक (departmental) कार्रवाई में आरोपों को साबित करने के लिए ठोस सबूत होना जरूरी है। केवल शक या जांच रिपोर्ट के आधार पर किसी को दोषी नहीं ठहराया जा सकता।
यह मामला एक सरकारी कर्मचारी से जुड़ा था, जिस पर आरोप था कि उसने डीज़ल अनुदान योजना (Diesel Subsidy Scheme) में गड़बड़ी की। जांच के बाद उसे निलंबित कर दिया गया और अनुशासनात्मक कार्रवाई शुरू हुई। बाद में उसे नौकरी से बर्खास्त कर दिया गया। कर्मचारी ने इस आदेश को अदालत में चुनौती दी।
इस योजना में किसानों को डीज़ल पर सब्सिडी देने का काम ग्राम सभा और पंचायत सचिव के माध्यम से किया जाता था। लेकिन आरोप ब्लॉक स्तर के अधिकारी (BDO) पर लगा दिया गया कि उसने अनुदान वितरण में गड़बड़ी की है।
जांच अधिकारी (Enquiry Officer) ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि अधिकारी ने सीधे तौर पर कोई गड़बड़ी नहीं की, लेकिन “निगरानी” (monitoring) नहीं करने के कारण वह अप्रत्यक्ष रूप से जिम्मेदार हो सकता है।
पटना हाई कोर्ट ने इसी बिंदु पर कहा कि—
“जब आरोप पत्र (charge-sheet) में केवल गबन या जालसाजी के आरोप लगे हैं, तो जांच अधिकारी नया आरोप जैसे ‘लापरवाही’ नहीं जोड़ सकता।”
अदालत ने यह भी पाया कि विभागीय अधिकारी (Presenting Officer) ने सबूत पेश करने की प्रक्रिया पूरी नहीं की थी। कोई गवाह नहीं बुलाया गया, दस्तावेज़ साबित नहीं किए गए, फिर भी यह कहा गया कि आरोप सिद्ध हैं।
विभाग ने केवल विजिलेंस रिपोर्ट और FIR के आधार पर सजा दी, जिसे अदालत ने अस्वीकार कर दिया। कोर्ट ने कहा कि:
“विजिलेंस रिपोर्ट या FIR खुद में सबूत नहीं हैं; इन्हें साबित करने के लिए गवाह और जिरह जरूरी है।”
फैसले में यह भी पाया गया कि जब कर्मचारी ने अपील दायर की, तो उसे गलती से “समीक्षा” (review) मानकर उसी अधिकारी ने खारिज कर दिया जिसने उसे बर्खास्त किया था। यह प्रक्रिया भी न्यायसंगत नहीं मानी गई।
जिला पदाधिकारी (District Magistrate) ने बाद में स्पष्ट किया कि विभागीय परिपत्रों के अनुसार, डीज़ल अनुदान योजना में सूची बनाना और वितरण करना पंचायत स्तर पर ग्राम सभा व सचिव का कार्य है, ब्लॉक कार्यालय का नहीं।
इन्हीं सभी तथ्यों को देखते हुए, हाई कोर्ट ने कर्मचारी की बर्खास्तगी को रद्द कर दिया और कहा कि उसे सभी सेवानिवृत्ति लाभ (retirement benefits) मिलेंगे। चूंकि वह अब सेवानिवृत्त हो चुका था, इसलिए कोर्ट ने यह भी कहा कि विभाग को इस मामले में फिर से जांच शुरू करने की अनुमति नहीं दी जाएगी।
निर्णय का महत्व और इसका प्रभाव आम जनता या सरकार पर
यह फैसला बिहार सरकार और अन्य सरकारी विभागों के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह बताता है कि:
- जांच अधिकारी की सीमा तय है। वह केवल उन्हीं आरोपों पर फैसला दे सकता है जो चार्जशीट में दर्ज हैं। नए आरोप जोड़ना या “अप्रत्यक्ष जिम्मेदारी” जैसे शब्दों से दोष तय करना अवैध है।
- सबूतों की वैधानिकता जरूरी है। कोई भी रिपोर्ट या एफआईआर तभी सबूत मानी जाएगी जब उसे गवाहों के माध्यम से साबित किया जाए।
- प्रशासनिक भूमिका स्पष्ट करनी चाहिए। योजनाओं के संचालन में किसका क्या दायित्व है, यह विभागों को लिखित रूप से तय करना चाहिए ताकि गलत व्यक्ति पर जिम्मेदारी न डाली जाए।
- सेवानिवृत्त कर्मचारियों की सुरक्षा। एक बार सेवा समाप्त होने के बाद उसी पुराने आरोप पर फिर से कार्रवाई नहीं की जा सकती।
- न्यायिक पारदर्शिता। अपील को समीक्षा में बदलना या उच्च अधिकारी द्वारा सही प्रक्रिया न अपनाना, न्याय के सिद्धांतों के विरुद्ध है।
इसलिए यह फैसला न केवल सरकारी कर्मचारियों के अधिकारों की रक्षा करता है, बल्कि विभागों को भी यह सिखाता है कि अनुशासनात्मक जांच न्यायपूर्ण और सबूत-आधारित होनी चाहिए।
कानूनी मुद्दे और निर्णय (बिंदुवार)
- क्या जांच अधिकारी आरोप पत्र से आगे जाकर “लापरवाही” जैसे नए आरोप पर फैसला दे सकता है?
❌ नहीं। कोर्ट ने कहा कि यह प्रक्रिया अवैध है। जांच अधिकारी केवल उन्हीं बिंदुओं पर निर्णय दे सकता है जो चार्जशीट में हैं। - क्या विजिलेंस रिपोर्ट और FIR को बिना गवाह बुलाए सबूत माना जा सकता है?
❌ नहीं। बिना प्रमाण और जिरह के ऐसे दस्तावेज़ केवल “संदेह” हैं, सबूत नहीं। - क्या विभाग आरोप साबित न होने के बावजूद सजा दे सकता है?
❌ नहीं। जब जांच अधिकारी ने आरोप सिद्ध नहीं माना, तो विभाग सजा नहीं दे सकता। - क्या ब्लॉक विकास पदाधिकारी डीज़ल अनुदान वितरण के लिए जिम्मेदार है?
❌ नहीं। अदालत ने स्पष्ट किया कि यह जिम्मेदारी पंचायत सचिव और ग्राम सभा की होती है। - क्या सेवानिवृत्त व्यक्ति पर फिर से वही कार्रवाई दोबारा हो सकती है?
❌ नहीं। अदालत ने कहा कि अब कोई नई जांच या कार्रवाई नहीं होगी।
न्यायालय द्वारा उपयोग में लाए गए निर्णय
- Union of India v. H.C. Goel, AIR 1964 SC 364 – संदेह को प्रमाण नहीं माना जा सकता।
- Narinder Mohan Arya v. United India Insurance Co. Ltd., (2006) 4 SCC 713 – बिना ठोस सबूत के निष्कर्ष अमान्य।
- Union of India v. Sardar Bahadur, (1972) 4 SCC 618 – गवाहों की गवाही आवश्यक।
- Roop Singh Negi v. Punjab National Bank, (2009) 2 SCC 570 – विजिलेंस रिपोर्ट या FIR स्वयं सबूत नहीं हैं।
- (2017) 2 SCC 308 और (2013) 4 SCC 301 – एक ही आरोप पर दोबारा जांच की अनुमति नहीं।
मामले का शीर्षक
Letters Patent Appeal No. 802 of 2019 in Civil Writ Jurisdiction Case No. 1012 of 2017
केस नंबर
LPA No. 802 of 2019; CWJC No. 1012 of 2017
उद्धरण (Citation)
2021(2) PLJR 618
न्यायमूर्ति गण
माननीय मुख्य न्यायाधीश एवं माननीय न्यायमूर्ति एस. कुमार
(मौखिक निर्णय : माननीय न्यायमूर्ति एस. कुमार)
निर्णय दिनांक : 24 फरवरी 2021
वकीलों के नाम और किनकी ओर से पेश हुए
- अपीलकर्ता की ओर से: श्री प्रभात रंजन, अधिवक्ता
- राज्य की ओर से: श्री अजय कुमार रस्तोगी, ए.ए.जी.-10
निर्णय का लिंक
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