निर्णय की सरल व्याख्या
पटना उच्च न्यायालय ने 25 मार्च 2021 को एक अत्यंत संवेदनशील और महत्वपूर्ण निर्णय सुनाया। इस फैसले में अदालत ने एक युवती को रिमांड होम (बालिका गृह) से तत्काल रिहा करने का आदेश दिया, जिसे एक साल से अधिक समय तक वहां रखा गया था, जबकि वह वयस्क (18 वर्ष से अधिक) हो चुकी थी।
इस मामले की सुनवाई माननीय न्यायमूर्ति राजीव रंजन प्रसाद ने की। उन्होंने इस बात पर गंभीर चिंता जताई कि कैसे एक युवती, जिसने स्वयं अपनी इच्छा से घर छोड़ा था और अपने नाना-नानी के साथ रहना चाहा था, उसे न्यायिक आदेश से बंद कर दिया गया।
अदालत ने कहा कि इस तरह के मामलों में न्यायिक संवेदनशीलता (judicial sensitivity) आवश्यक है। साथ ही, माननीय न्यायाधीश ने मुख्य न्यायाधीश, पटना उच्च न्यायालय से अनुरोध किया कि बिहार न्यायिक अकादमी (Bihar Judicial Academy) के माध्यम से सभी न्यायिक अधिकारियों को संवेदनशीलता और बाल संरक्षण कानूनों पर विशेष प्रशिक्षण दिया जाए।
मामले की पृष्ठभूमि
यह मामला बरह थाना कांड संख्या 57/2020 से जुड़ा था, जो भारतीय दंड संहिता की धारा 363 और 366(A) के तहत दर्ज हुआ था। शिकायतकर्ता (लड़की के पिता) ने आरोप लगाया था कि उनकी बेटी को एक युवक बहला-फुसलाकर ले गया।
पुलिस ने बाद में लड़की को बरामद किया और न्यायिक दंडाधिकारी, बरह के समक्ष उसकी धारा 164 दं.प्र.सं. (Cr.P.C.) के तहत बयान दर्ज कराया।
लड़की ने अपने बयान में स्पष्ट कहा:
- वह खुद अपनी इच्छा से घर से निकली थी, क्योंकि उसके माता-पिता उसकी शादी जबरन कराना चाहते थे।
- वह अपने माता-पिता के साथ नहीं रहना चाहती।
- वह अपनी नानी के साथ रहना चाहती है।
फिर भी अतिरिक्त मुख्य न्यायिक दंडाधिकारी (ACJM), बरह ने उसे 17 वर्ष की मानते हुए (हालांकि लड़की ने खुद 18 वर्ष बताई थी और वह बारहवीं कक्षा की छात्रा थी) उसे गायघाट, पटना सिटी के बालिका गृह में भेज दिया।
वह मार्च 2020 से वहां बंद थी। अंततः उसने क्रिमिनल रिट याचिका (Cr. WJC No. 408 of 2021) के माध्यम से अपनी रिहाई की मांग की।
याचिकाकर्ता (लड़की) का पक्ष
लड़की की ओर से अधिवक्ता श्री उपेंद्र कुमार सिंह ने तर्क दिया कि:
- दंडाधिकारी ने बिना किसी प्रमाणपत्र की जांच किए उम्र का गलत निर्धारण किया।
- उसने स्कूल प्रमाणपत्र नहीं देखा, जिसमें स्पष्ट रूप से उसकी उम्र 18 वर्ष थी।
- लड़की ने बार-बार कहा कि वह अपनी नानी के साथ रहना चाहती है, पर अदालत ने उसकी इच्छा की अनदेखी की।
- यह उसकी मौलिक स्वतंत्रता (Article 21) का उल्लंघन है, क्योंकि वह वयस्क है और अपनी इच्छा से कहीं भी रह सकती है।
राज्य और अभियुक्त पक्ष का जवाब
राज्य की ओर से श्री शिव शंकर प्रसाद (APP) और लड़की के पिता की ओर से वकील ने स्वीकार किया कि:
- लड़की अब वयस्क (major) है।
- उसे और अधिक समय तक रिमांड होम में रखना कानूनन गलत है।
- यदि वह अपने माता-पिता के साथ नहीं रहना चाहती, तो उसे अपनी नानी के साथ रहने दिया जाए।
न्यायालय के महत्वपूर्ण अवलोकन
माननीय न्यायमूर्ति राजीव रंजन प्रसाद ने अपने निर्णय में कई अहम बातें कहीं, जो आने वाले सभी समान मामलों के लिए मार्गदर्शक हैं:
- उम्र का सत्यापन अनिवार्य है
अदालत ने कहा कि दंडाधिकारी ने उम्र की पुष्टि किए बिना निर्णय लिया। रिकॉर्ड में लड़की की बारहवीं कक्षा में पढ़ाई का उल्लेख था, जिससे स्पष्ट था कि वह वयस्क थी। - लड़की की इच्छा को नजरअंदाज करना अनुचित
अदालत ने कहा कि यदि लड़की अपनी नानी के साथ रहना चाहती थी, तो यह सबसे सुरक्षित और मानवीय विकल्प था। - न्यायाधीश को संरक्षक की भूमिका निभानी चाहिए
अदालत ने “Parens Patriae (संरक्षक सिद्धांत)” का उल्लेख करते हुए कहा कि न्यायाधीशों को ऐसे मामलों में बच्चे या युवती के मानसिक और सामाजिक हितों को प्राथमिकता देनी चाहिए। - संस्थानिक बंदी (Institutionalization) अंतिम विकल्प होना चाहिए
अदालत ने दोहराया कि किसी लड़की या बच्चे को रिमांड होम में केवल तभी भेजा जाए जब उसके परिवार में कोई सुरक्षित विकल्प न हो। - वयस्क महिला की स्वतंत्रता सर्वोपरि
अदालत ने सुप्रीम कोर्ट के Shafin Jahan v. Asokan K.M. (2018) मामले का हवाला देते हुए कहा कि वयस्क लड़की को अपनी जिंदगी और निवास चुनने का पूरा अधिकार है। - न्यायिक प्रशिक्षण की आवश्यकता
अदालत ने कहा कि ऐसे मामलों में भविष्य में गलतियाँ न हों, इसके लिए बिहार न्यायिक अकादमी में विशेष प्रशिक्षण कार्यक्रम आयोजित किए जाएँ।
अंतिम आदेश
अदालत ने आदेश दिया कि:
- 20.03.2020 का आदेश (ACJM, बरह) रद्द किया जाता है।
- गायघाट बालिका गृह की अधीक्षिका को निर्देश दिया गया कि लड़की को तुरंत रिहा किया जाए।
- लड़की अपनी नानी या अपनी पसंद की जगह पर रह सकती है।
- उसकी मेडिकल रिपोर्ट (नवंबर 2020) उसे रिहाई के समय सौंप दी जाए।
- पिता को निर्देश दिया गया कि वह कोई दबाव या जोर-जबर्दस्ती न करें।
- साथ ही, मुख्य न्यायाधीश से अनुरोध किया गया कि सभी न्यायिक अधिकारियों को संवेदनशीलता प्रशिक्षण दिया जाए।
निर्णय का महत्व और प्रभाव
यह निर्णय न केवल इस युवती के लिए बल्कि पूरे राज्य और देश के लिए एक महत्वपूर्ण मिसाल है।
- अदालत ने यह स्पष्ट कर दिया कि वयस्क महिलाओं को उनकी इच्छा के विरुद्ध हिरासत में नहीं रखा जा सकता।
- संस्थानिक देखभाल (Observation Home) को अंतिम विकल्प माना जाना चाहिए।
- यह फैसला न्यायिक प्रक्रिया में मानवीय दृष्टिकोण और संवेदनशीलता को प्राथमिकता देता है।
- अब बिहार में सभी न्यायिक अधिकारियों को ऐसे मामलों में बाल संरक्षण और संवेदनशीलता प्रशिक्षण दिया जाएगा।
- यह निर्णय महिलाओं की स्वतंत्रता, गरिमा और आत्मनिर्णय के अधिकार को और मजबूत बनाता है।
कानूनी मुद्दे और निर्णय
- क्या दंडाधिकारी ने उम्र का गलत निर्धारण किया?
✔ हाँ। अदालत ने कहा कि स्कूल प्रमाणपत्र की जाँच किए बिना उम्र तय करना गलती थी। - क्या वयस्क लड़की को रिमांड होम में रखा जा सकता है?
❌ नहीं। यह उसके मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है। - क्या पारिवारिक विकल्प प्राथमिक होने चाहिए?
✔ हाँ। रिमांड होम केवल अंतिम उपाय के रूप में इस्तेमाल हो।
न्यायालय द्वारा उपयोग में लाए गए निर्णय
- Shafin Jahan v. Asokan K.M., AIR 2018 SC 1933
- Based on News Item on Bar & Bench v. State of Bihar, 2018 SCC OnLine Pat 1179
मामले का शीर्षक
Khushi Kumari v. The State of Bihar & Ors.
केस नंबर
Criminal Writ Jurisdiction Case No. 408 of 2021
उद्धरण (Citation)
2021(2) PLJR 862
न्यायमूर्ति गण का नाम
माननीय न्यायमूर्ति राजीव रंजन प्रसाद
वकीलों के नाम और किनकी ओर से पेश हुए
श्री उपेंद्र कुमार सिंह — याचिकाकर्ता की ओर से
श्री शिव शंकर प्रसाद (APP) — राज्य की ओर से
निर्णय का लिंक
MTYjNDA4IzIwMjEjMyNO-p8s2jbFalS0=
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