पटना हाई कोर्ट का फैसला: "सिविल डेथ" घोषित कर्मचारी के बाद दया नियुक्ति का दावा अस्वीकार – 2021

पटना हाई कोर्ट का फैसला: “सिविल डेथ” घोषित कर्मचारी के बाद दया नियुक्ति का दावा अस्वीकार – 2021

निर्णय की सरल व्याख्या

पटना उच्च न्यायालय ने 28 जून 2021 को एक महत्वपूर्ण फैसला सुनाया, जिसमें यह कहा गया कि किसी लापता कर्मचारी की “सिविल डेथ” घोषित होने के कई साल बाद दया नियुक्ति (Compassionate Appointment) का दावा स्वीकार नहीं किया जा सकता।

यह मामला एक ऐसी महिला स्वास्थ्यकर्मी से जुड़ा था जो 2001 से लापता थी, और लगभग 12 साल बाद उसकी “सिविल डेथ” घोषित की गई। उसके कथित दत्तक पुत्र ने सरकारी नौकरी की मांग की, लेकिन समिति ने यह कहकर इनकार कर दिया कि दावे में देरी और दस्तावेजों की कमी के कारण मामला उचित नहीं है।

यह निर्णय माननीय न्यायमूर्ति चक्रधारी शरण सिंह ने वर्चुअल सुनवाई के दौरान दिया।

मामले की पृष्ठभूमि

मामले की शुरुआत तब हुई जब याचिकाकर्ता ने जिला दया नियुक्ति समिति, गोपालगंज द्वारा 17 अक्टूबर 2019 को लिए गए निर्णय (पत्रांक 877 दिनांक 20.12.2019) को चुनौती दी।

याचिकाकर्ता ने कहा कि एक महिला स्वास्थ्यकर्मी — कमलावती देवी, जो प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र, गोपालगंज में कार्यरत थीं, उनकी दत्तक माता थीं।

उनका कहना था कि कमलावती देवी जनवरी 2001 में अचानक लापता हो गईं। सात साल बाद (2008 में) उन्होंने उत्तराधिकार वाद संख्या 27/2008 दायर किया और अदालत से 2013 में “सिविल डेथ” (Civil Death) घोषित करवाया।

इस आधार पर उन्हें कमलावती देवी की बकाया राशि तो मिल गई, लेकिन जब उन्होंने नौकरी के लिए दया नियुक्ति का आवेदन किया, तो समिति ने उसे अस्वीकार कर दिया।

घटनाक्रम का संक्षिप्त विवरण

  1. 2001 – कमलावती देवी लापता हुईं।
  2. 2008 – याचिकाकर्ता ने अदालत में उत्तराधिकार वाद दायर किया।
  3. 2013 – अदालत ने “सिविल डेथ” घोषित की।
  4. 2016 – पहली बार दया नियुक्ति का आवेदन किया गया, जिसे अस्वीकार किया गया।
  5. 2017 – याचिकाकर्ता ने पटना हाई कोर्ट में याचिका (CWJC No. 4100/2017) दायर की, अदालत ने पुनर्विचार का आदेश दिया।
  6. 2019 – जिला समिति ने दोबारा विचार कर याचिकाकर्ता का दावा पुनः खारिज कर दिया।

समिति द्वारा दावे को अस्वीकार करने के कारण

दया नियुक्ति समिति ने कहा कि—

  • याचिकाकर्ता ने दावा किया कि उन्हें 1987 में गोद लिया गया था, परंतु किसी भी शैक्षणिक प्रमाणपत्र या सरकारी दस्तावेज़ में यह नहीं लिखा है कि उनकी माता कमलावती देवी हैं।
  • उनके सभी दस्तावेज़ों में पिता का नाम “छोटन प्रसाद श्रीवास्तव” है।
  • याचिकाकर्ता ने गोद लिए जाने का कोई वैध प्रमाण (adoption deed) प्रस्तुत नहीं किया।
  • उन्होंने यह भी साबित नहीं किया कि कमलावती देवी अपने पति से अलग रहती थीं या उनका कोई पारिवारिक संबंध विच्छेद हुआ था।
  • उनका आवेदन “सिविल डेथ” घोषित होने के वर्षों बाद दिया गया, जो दया नियुक्ति की मूल भावना के विरुद्ध है।

इसलिए समिति ने दावे को खारिज कर दिया।

न्यायालय का विश्लेषण

माननीय न्यायालय ने विस्तार से सभी पहलुओं की समीक्षा की और पाया कि याचिकाकर्ता का दावा कानूनी रूप से टिकाऊ नहीं है।

  1. गोद लिए जाने का कोई प्रमाण नहीं:
    याचिकाकर्ता ने यह साबित नहीं किया कि उन्हें वैध रूप से गोद लिया गया था। न तो कोई दस्तावेज़ और न ही कोई गवाह प्रस्तुत किया गया।
  2. देरी और निष्क्रियता:
    कमलावती देवी के लापता होने की जानकारी 2001 में थी, लेकिन रिपोर्ट या कार्यवाही 2008 में हुई — यानी 7 साल की देरी।
  3. दया नियुक्ति का उद्देश्य:
    अदालत ने कहा कि दया नियुक्ति का उद्देश्य किसी परिवार को उस आकस्मिक आर्थिक संकट से राहत देना है जो परिवार के मुखिया की अकाल मृत्यु से होता है।
    अगर मामला 10-12 साल बाद लाया जाए, तो उस समय “आपातकालीन आवश्यकता” नहीं रह जाती।
  4. सिविल डेथ और नियुक्ति का अंतर:
    अदालत ने कहा कि “सिविल डेथ” केवल उत्तराधिकार या संपत्ति के अधिकार तय करने के लिए होती है, न कि सरकारी नौकरी पाने के लिए।
  5. वित्तीय संकट का अभाव:
    याचिकाकर्ता को पहले ही कमलावती देवी के बकाया वेतन और लाभ मिल चुके थे। इसलिए तत्काल आर्थिक संकट का प्रश्न ही नहीं था।

न्यायालय का निर्णय

न्यायालय ने पाया कि दया नियुक्ति समिति का निर्णय पूर्णतः उचित था और उसमें कोई कानूनी त्रुटि नहीं थी।

अतः याचिका खारिज कर दी गई।

अदालत ने कहा —

“दया नियुक्ति कोई वैकल्पिक रोजगार का साधन नहीं है। यह केवल उन्हीं मामलों में दी जाती है जहाँ परिवार अचानक आर्थिक तंगी में फँस जाता है।”

निर्णय का महत्व और प्रभाव

यह फैसला बिहार में दया नियुक्ति से जुड़े कई मामलों के लिए मार्गदर्शक है।

  • लंबे अंतराल के बाद दावा अमान्य: वर्षों बाद किया गया आवेदन दया नियुक्ति के उद्देश्य को समाप्त कर देता है।
  • कानूनी गोद लेने का प्रमाण आवश्यक: केवल मौखिक रूप से गोद लेने का दावा स्वीकार नहीं किया जा सकता।
  • “सिविल डेथ” से नौकरी का अधिकार नहीं बनता: यह केवल संपत्ति या वित्तीय अधिकारों के लिए लागू है।
  • दया नियुक्ति कोई अधिकार नहीं: यह केवल एक मानवीय (humanitarian) नीति है, जिसे सरकार की विवेकाधीन शक्ति के तहत दिया जाता है।

यह निर्णय उन सभी लोगों के लिए एक स्पष्ट संदेश है जो वर्षों बाद दया नियुक्ति का दावा करते हैं — “विलंबित दावा, न्यायसंगत नहीं।”

कानूनी मुद्दे और निर्णय

  • मुद्दा 1: क्या “सिविल डेथ” घोषित कर्मचारी के आश्रित को दया नियुक्ति मिल सकती है?
    • निर्णय: केवल तभी जब गोद लेना कानूनी रूप से सिद्ध हो और आश्रितता (dependency) साबित हो।
  • मुद्दा 2: क्या लंबे समय बाद दया नियुक्ति दी जा सकती है?
    • निर्णय: नहीं। यह केवल तत्काल संकट की स्थिति में दी जाती है।
  • मुद्दा 3: क्या उत्तराधिकार प्रमाणपत्र (succession certificate) से नौकरी का अधिकार बनता है?
    • निर्णय: नहीं। यह केवल वित्तीय लाभ के लिए है, नौकरी के लिए नहीं।

उद्धृत न्यायिक निर्णय

  • Umesh Kumar Nagpal v. State of Haryana, (1997) 8 SCC 85
  • State of Haryana v. Rani Devi, (1996) 5 SCC 308

मामले का शीर्षक

अतुल कुमार श्रीवास्तव बनाम बिहार राज्य एवं अन्य

केस नंबर

Civil Writ Jurisdiction Case No. 3653 of 2020

उद्धरण (Citation)

2021(3) PLJR 8

न्यायमूर्ति गण का नाम

माननीय न्यायमूर्ति चक्रधारी शरण सिंह

वकीलों के नाम और किनकी ओर से पेश हुए

  • याचिकाकर्ता की ओर से: श्री जितेन्द्र प्रसाद सिंह, अधिवक्ता
  • प्रतिवादी की ओर से: श्री अजय बिहारी सिन्हा (सरकारी अधिवक्ता – 8)

निर्णय का लिंक

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Aditya Kumar

Aditya Kumar is a dedicated and detail-oriented legal intern with a strong academic foundation in law and a growing interest in legal research and writing. He is currently pursuing his legal education with a focus on litigation, policy, and public law. Aditya has interned with reputed law offices and assisted in drafting legal documents, conducting research, and understanding court procedures, particularly in the High Court of Patna. Known for his clarity of thought and commitment to learning, Aditya contributes to Samvida Law Associates by simplifying complex legal topics for public understanding through well-researched blog posts.

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