पटना उच्च न्यायालय का फैसला: विभागीय बर्खास्तगी में "स्पीकिंग ऑर्डर" और सबूत का मानक – 2021

पटना उच्च न्यायालय का फैसला: विभागीय बर्खास्तगी में “स्पीकिंग ऑर्डर” और सबूत का मानक – 2021

निर्णय की सरल व्याख्या

पटना उच्च न्यायालय ने यह दोहराया कि विभागीय अनुशासनात्मक कार्रवाई (departmental inquiry) केवल एक औपचारिकता नहीं हो सकती। प्रत्येक दंड आदेश में कारण (reasons) स्पष्ट होने चाहिए — यानी यह एक “speaking order” होना चाहिए। अदालत ने एक सरकारी कर्मचारी की बर्खास्तगी को रद्द करते हुए मामला विभागीय प्राधिकारी को पुनः सुनवाई के लिए भेज दिया, ताकि उसे उचित अवसर और निष्पक्ष सुनवाई मिल सके।

यह फैसला 22 जून 2021 को माननीय न्यायमूर्ति अनिल कुमार उपाध्याय द्वारा दिया गया।

मामले में याचिकाकर्ता ने अपनी बर्खास्तगी को चुनौती दी थी। उनके तर्क तीन प्रमुख बिंदुओं पर आधारित थे:

  1. बर्खास्तगी का आदेश “speaking order” नहीं था — यानी उसमें कोई ठोस कारण नहीं बताए गए थे।
  2. आरोप अस्पष्ट थे और साक्ष्य के बिना साबित किए गए।
  3. विभागीय जांच में न तो कोई गवाह बुलाया गया, न ही दस्तावेजों को विधिवत प्रमाणित किया गया।

याचिकाकर्ता के वकील ने यह भी कहा कि जांच अधिकारी का निष्कर्ष “perverse” था — यानी बिना साक्ष्य के मनमाना निष्कर्ष निकाला गया। यहां तक कि अपील आदेश भी केवल औपचारिकता मात्र था।

अदालत ने इस बात पर जोर दिया कि अनुशासनात्मक कार्यवाही एक वास्तविक प्रक्रिया है, न कि महज़ रस्म। इसमें साक्ष्य, तर्क और उचित अवसर — तीनों का होना अनिवार्य है।

अदालत ने संविधान पीठ के निर्णय Union of India v. H.C. Goel (AIR 1964 SC 364) का उल्लेख करते हुए कहा कि “सिर्फ शक (suspicion) को सबूत (evidence) नहीं माना जा सकता।” निर्णय में इस सुप्रीम कोर्ट के उद्धरण को भी शामिल किया गया, जिसमें कहा गया था कि यद्यपि विभागीय जांच में फौजदारी मुकदमों जैसी कठोर तकनीकी प्रक्रिया आवश्यक नहीं, लेकिन “निर्दोष व्यक्ति को दंडित न किया जाए” — यह सिद्धांत समान रूप से लागू होता है।

अदालत ने यह भी स्पष्ट किया कि विभागीय मामलों में साक्ष्य का मानक “preponderance of probability” होता है, न कि “beyond reasonable doubt” जैसा कि आपराधिक मुकदमों में होता है। अर्थात, साक्ष्य के आधार पर यह संभावना अधिक होनी चाहिए कि कर्मचारी ने कदाचार किया, लेकिन फिर भी प्रक्रिया निष्पक्ष और सुनवाई वास्तविक होनी चाहिए।

तथ्यों के आधार पर, अदालत ने पाया कि जांच और आदेश दोनों ही कानून के अनुसार नहीं थे। चूंकि अन्य समान मामलों में भी अदालत ने पहले ऐसा ही दृष्टिकोण अपनाया था, इसलिए इस मामले में भी दंड आदेश (Annexure 6) और अपील आदेश दोनों को रद्द कर दिया गया।

अदालत ने विभागीय प्राधिकारी को निर्देश दिया कि वह सुप्रीम कोर्ट के निर्णय Managing Director, ECIL v. B. Karunakar (1993) 4 SCC 727 के अनुसार आगे की कार्यवाही करे। इस फैसले में कहा गया था कि “जांच अधिकारी की रिपोर्ट की प्रति कर्मचारी को दी जानी चाहिए और दंड देने से पहले उसकी आपत्ति का अवसर मिलना चाहिए।”

इसका सीधा अर्थ यह है कि —

  • वर्तमान में कर्मचारी की बर्खास्तगी समाप्त हो गई है।
  • मामला विभाग को लौटाया गया है।
  • विभाग को अब पुनः जांच कर, उचित अवसर देकर, नया और कारणयुक्त आदेश पारित करना होगा।

यह निर्णय सरकारी विभागों के लिए एक सशक्त संदेश है कि विभागीय जांच केवल औपचारिक प्रक्रिया नहीं बल्कि न्यायपूर्ण ढंग से की जानी चाहिए।

निर्णय का महत्व और इसका प्रभाव आम जनता या सरकार पर

यह फैसला सरकारी कर्मचारियों और बिहार सरकार, दोनों के लिए महत्वपूर्ण है:

  • निष्पक्ष प्रक्रिया का महत्व: विभागीय जांच में साक्ष्य और गवाहों की वास्तविक जांच आवश्यक है। केवल कागजी कार्रवाई या संदेह के आधार पर निर्णय अमान्य है।
  • “स्पीकिंग ऑर्डर” की आवश्यकता: प्रत्येक आदेश में यह दिखना चाहिए कि अधिकारी ने सबूत और तर्क पर विचार किया है।
  • साक्ष्य का मानक: विभागीय कार्यवाही में “संभावना का पलड़ा” ही पर्याप्त है, परंतु प्रक्रिया पूरी तरह न्यायसंगत होनी चाहिए।
  • कर्मचारी का अधिकार: जांच अधिकारी की रिपोर्ट की प्रति और जवाब देने का अवसर देना अनिवार्य है (Karunakar केस का पालन)।
  • सरकार के लिए सबक: यदि प्रक्रिया में पारदर्शिता नहीं होगी, तो न्यायालय हस्तक्षेप कर सकता है और आदेश रद्द कर सकता है।

कानूनी मुद्दे और निर्णय

  • क्या विभागीय जांच केवल औपचारिकता मानी जा सकती है?
    ▪ नहीं। जांच वास्तविक और साक्ष्य आधारित होनी चाहिए।
  • क्या केवल संदेह के आधार पर कर्मचारी को दोषी ठहराया जा सकता है?
    ▪ नहीं। सुप्रीम कोर्ट (H.C. Goel केस) ने कहा कि “संदेह सबूत नहीं होता।”
  • विभागीय मामलों में साक्ष्य का मानक क्या है?
    ▪ “Preponderance of probability” यानी जहां संभावना अधिक हो, लेकिन निष्पक्ष प्रक्रिया आवश्यक है।
  • क्या बिना कारण बताए गए दंड आदेश वैध हैं?
    ▪ नहीं। ऐसे “non-speaking orders” को अदालत रद्द कर सकती है।
  • क्या कर्मचारी को जांच रिपोर्ट देना जरूरी है?
    ▪ हां। ECIL v. Karunakar के अनुसार रिपोर्ट देना और जवाब का अवसर देना अनिवार्य है।

पार्टियों द्वारा संदर्भित निर्णय

  • Union of India v. H.C. Goel, AIR 1964 SC 364 – “संदेह सबूत नहीं होता” का सिद्धांत।

न्यायालय द्वारा उपयोग में लाए गए निर्णय

  • Union of India v. H.C. Goel, AIR 1964 SC 364 – विभागीय जांच में न्यायिक सिद्धांतों का अनुपालन आवश्यक।
  • Managing Director, ECIL, Hyderabad v. B. Karunakar, (1993) 4 SCC 727 – जांच रिपोर्ट की प्रति देना और सुनवाई का अवसर देना जरूरी।

मामले का शीर्षक

Ram Nandan Pandit बनाम State of Bihar & Ors.

केस नंबर

Civil Writ Jurisdiction Case No. 2185 of 2017

उद्धरण (Citation)

2021(3) PLJR 10

न्यायमूर्ति गण का नाम

माननीय न्यायमूर्ति अनिल कुमार उपाध्याय

वकीलों के नाम और किनकी ओर से पेश हुए

  • याचिकाकर्ता की ओर से: अधिवक्ता अवधेश कुमार मिश्रा
  • प्रतिवादी राज्य की ओर से: एएजी-3 प्रभात कुमार वर्मा

निर्णय का लिंक

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Aditya Kumar

Aditya Kumar is a dedicated and detail-oriented legal intern with a strong academic foundation in law and a growing interest in legal research and writing. He is currently pursuing his legal education with a focus on litigation, policy, and public law. Aditya has interned with reputed law offices and assisted in drafting legal documents, conducting research, and understanding court procedures, particularly in the High Court of Patna. Known for his clarity of thought and commitment to learning, Aditya contributes to Samvida Law Associates by simplifying complex legal topics for public understanding through well-researched blog posts.

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