निर्णय की सरल व्याख्या
पटना हाई कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में कोचाधामन प्रखंड (किशनगंज) में तैनात तत्कालीन आपूर्ति पदाधिकारी की सेवा से बर्खास्तगी को रद्द कर दिया है। कोर्ट ने पाया कि भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों के बावजूद विभागीय जांच में कोई भी साक्ष्य प्रस्तुत नहीं किया गया और अधिकारी को प्राकृतिक न्याय से वंचित किया गया।
यह मामला तब शुरू हुआ जब कुछ पीडीएस (सार्वजनिक वितरण प्रणाली) डीलरों की शिकायत पर अधिकारी के आवास पर छापेमारी की गई। अधिकारियों ने दावा किया कि छापे में ₹25,000 और कुछ रजिस्टर बरामद हुए। इसके आधार पर एफआईआर दर्ज कर दी गई और अधिकारी को 4 जुलाई 2015 को निलंबित कर दिया गया।
याचिकाकर्ता ने कहा कि यह पूरा मामला साजिश है। पीडीएस डीलर उनके अनुशासनात्मक रवैये से नाराज़ थे और उन्हें झूठे मामले में फंसा दिया गया। उन्होंने कहा कि केवल ₹1320 उनके पास व्यक्तिगत रूप से मिला था, बाकी रकम कहीं और से बरामद हुई थी। न ही जब्ती सूची पर उनके हस्ताक्षर लिए गए और न ही कोर्ट में कोई गवाह पेश हुआ।
जांच पदाधिकारी ने दो बार रिपोर्ट सौंपी – एक 2016 में और दूसरी 2019 में – और दोनों बार स्पष्ट किया कि कोई आरोप सिद्ध नहीं हुआ। रिपोर्ट में यह भी बताया गया कि छापे में विधिक प्रक्रिया का पालन नहीं हुआ और इसमें राजनीतिक हस्तक्षेप की संभावना है।
इसके बावजूद, विभागीय अधिकारी ने जांच रिपोर्ट को नजरअंदाज करते हुए एक नहीं बल्कि दो बार “दूसरा कारण बताओ नोटिस” जारी किया और अंततः 16 अगस्त 2019 को अधिकारी को सेवा से बर्खास्त कर दिया।
पटना हाई कोर्ट ने कहा कि:
- शिकायतकर्ता या किसी भी गवाह को जांच में पेश नहीं किया गया।
- कोई मौखिक या लिखित साक्ष्य नहीं रखा गया।
- जब्ती सूची में याचिकाकर्ता के हस्ताक्षर नहीं थे।
- जांच रिपोर्टों को बिना कोई ठोस कारण बताए खारिज कर दिया गया।
कोर्ट ने इसे “बिलकुल भी साक्ष्य नहीं” (No Evidence) वाला मामला माना और कहा कि इस प्रकार की कार्रवाई न्याय के बुनियादी सिद्धांतों के खिलाफ है।
कोर्ट ने बर्खास्तगी आदेश को रद्द कर दिया और याचिकाकर्ता को सभी लाभ सहित सेवा में पुनर्स्थापित माना। चूंकि वे इस दौरान सेवानिवृत्त हो चुके हैं, कोर्ट ने राज्य को उनके पेंशन और अन्य लाभ तय समय में देने का आदेश दिया।
निर्णय का महत्व और इसका प्रभाव आम जनता या सरकार पर
यह फैसला सरकारी कर्मचारियों के लिए एक बड़ी राहत है और यह सुनिश्चित करता है कि:
- बिना साक्ष्य के कोई अनुशासनात्मक कार्रवाई मान्य नहीं है, खासकर जब मामला भ्रष्टाचार से जुड़ा हो।
- प्राकृतिक न्याय का उल्लंघन करके लिया गया कोई भी प्रशासनिक निर्णय न्यायिक समीक्षा में टिक नहीं सकता।
- जांच अधिकारी की रिपोर्ट को नजरअंदाज करना तभी उचित होता है जब वैध और ठोस कारण दिए जाएं।
यह फैसला स्थानीय स्तर पर काम करने वाले अधिकारियों को मनोबल देगा और साथ ही सरकार को चेतावनी देता है कि राजनीतिक दबाव या बिना साक्ष्य के कार्रवाई न की जाए।
कानूनी मुद्दे और निर्णय (बुलेट में)
- क्या विभागीय जांच के आधार पर बर्खास्तगी वैध थी?
❌ नहीं, क्योंकि जांच में कोई साक्ष्य पेश नहीं किया गया। - क्या विभाग ने प्राकृतिक न्याय का पालन किया?
❌ नहीं, क्योंकि याचिकाकर्ता की बातों को अनदेखा कर जांच रिपोर्ट को खारिज कर दिया गया। - क्या हाई कोर्ट इस मामले में हस्तक्षेप कर सकता है, जब अपील का विकल्प मौजूद है?
✔ हाँ, क्योंकि मामला न्याय के बुनियादी अधिकारों से जुड़ा था और साक्ष्य का पूर्ण अभाव था। - क्या याचिकाकर्ता सेवा में बहाल माने जाएंगे?
✔ हाँ, कोर्ट ने बर्खास्तगी को रद्द कर पुनर्स्थापन और सेवानिवृत्ति लाभ का आदेश दिया।
पार्टियों द्वारा संदर्भित निर्णय
- रूप सिंह नेगी बनाम पंजाब नेशनल बैंक, (2009) 2 SCC 570
- उत्तर प्रदेश राज्य बनाम सरोज कुमार सिन्हा, (2010) 2 SCC 772
- पॉपकॉर्न एंटरटेनमेंट बनाम CIDCO, (2007) 9 SCC 593
- व्हर्लपूल बनाम ट्रेड मार्क्स रजिस्ट्रार, (1998) 8 SCC 1
- ऑरिक्स फिशरीज बनाम भारत संघ, (2010) 13 SCC 427
- पंजाब नेशनल बैंक बनाम कुंज बिहारी मिश्र, (1998) 7 SCC 84
न्यायालय द्वारा उपयोग में लाए गए निर्णय
- भारत संघ बनाम ज्ञानचंद चत्तर, (2009) 12 SCC 78
- पुलिस कमिश्नर बनाम जय भगवान, (2011) 6 SCC 376
मामले का शीर्षक
उपेन्द्र प्रसाद मंडल बनाम बिहार राज्य एवं अन्य
केस नंबर
CWJC No. 22251 of 2018
उद्धरण (Citation)
2021(1)PLJR 111
न्यायमूर्ति गण का नाम
माननीय न्यायमूर्ति श्री चक्रधारी शरण सिंह
वकीलों के नाम और किनकी ओर से पेश हुए
• श्री वाई.वी. गिरी (वरिष्ठ अधिवक्ता), श्री संजय कुमार गिरी एवं श्री प्रत्युष प्रताप सिंह – याचिकाकर्ता की ओर से
• श्री एस. रजा अहमद (AAG-5) एवं श्री आलोक रंजन – राज्य सरकार की ओर से
निर्णय का लिंक
https://patnahighcourt.gov.in/viewjudgment/MTUjMjIyNTEjMjAxOCMxI04=-PxNU5uyWl0I=
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