निर्णय की सरल व्याख्या
पटना हाईकोर्ट ने हाल ही में एक महत्वपूर्ण फैसला सुनाया है जिसमें एक सरकारी कैशियर की सेवा से बर्खास्तगी को सही ठहराया गया है। यह मामला बिहार सरकार के जल संसाधन विभाग के अंतर्गत सोन नहर डिवीजन, आरा में सरकारी धन की भारी गड़बड़ी से जुड़ा था।
मृतक कर्मचारी (जिन्हें हम यहां “मूल प्रतिवादी” कहेंगे) पर ₹2.66 लाख की राशि को कोषागार में जमा न करने और नकद बही, चेक बुक, तथा अन्य जरूरी दस्तावेजों को विभाग के सुपुर्द न करने का आरोप था। इसके चलते उनके खिलाफ एफआईआर दर्ज की गई और विभागीय जांच शुरू हुई।
जांच में यह सामने आया कि सरकारी धन में बड़ी हेराफेरी हुई थी। इसके बाद कर्मचारी को निलंबित कर दिया गया और फिर सेवा से बर्खास्त कर दिया गया। इस बर्खास्तगी के खिलाफ कर्मचारी ने उच्च न्यायालय में याचिका दायर की, जिसे शुरू में इस आधार पर मंजूर किया गया कि वह उस समय जेल में थे और जांच में भाग नहीं ले सके थे।
कोर्ट के आदेश के अनुसार फिर से जांच की गई और सारे दस्तावेज प्रतिवादी को सौंपे गए। इसके बाद फिर से उन्हें दोषी पाया गया और दोबारा सेवा से बर्खास्त कर दिया गया। इस आदेश को भी उन्होंने कोर्ट में चुनौती दी।
एकल पीठ ने यह माना कि आरोप गंभीर हैं और दस्तावेजी साक्ष्यों के आधार पर सिद्ध भी हुए हैं। लेकिन उन्होंने बर्खास्तगी को अत्यधिक कठोर सजा बताया और मामले को फिर से सजा के निर्धारण के लिए विभाग को लौटा दिया।
बाद में इस फैसले को राज्य सरकार ने दो जजों की खंडपीठ के सामने चुनौती दी। खंडपीठ ने माना कि एकल पीठ ने स्वयं यह माना कि विभागीय कार्यवाही वैध थी और आरोपों के समर्थन में पर्याप्त प्रमाण थे। ऐसे में कोर्ट को दंड के निर्धारण में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए था।
निर्णय का महत्व और इसका प्रभाव आम जनता या सरकार पर
यह फैसला सरकारी विभागों में अनुशासन और ईमानदारी बनाए रखने के संदर्भ में अत्यंत महत्वपूर्ण है। इससे यह स्पष्ट होता है कि अगर किसी सरकारी कर्मचारी पर वित्तीय अनियमितताओं के गंभीर आरोप सिद्ध होते हैं, तो न्यायालय अनुशासनात्मक प्राधिकरण के निर्णयों में हस्तक्षेप नहीं करेगा जब तक कि सजा अत्यधिक अनुचित न हो।
इससे सरकारी अधिकारियों को यह स्पष्ट संकेत मिलता है कि सरकारी धन के दुरुपयोग को किसी भी सूरत में बर्दाश्त नहीं किया जाएगा। आम जनता के लिए यह विश्वास का संकेत है कि न्यायपालिका वित्तीय जवाबदेही को गंभीरता से लेती है।
कानूनी मुद्दे और निर्णय (बुलेट में)
- क्या बर्खास्तगी की सजा वैध थी?
✔ हाँ, जांच के बाद दोबारा सुनवाई में बर्खास्तगी को उचित ठहराया गया। - क्या विभागीय जांच प्रक्रिया में कोई त्रुटि थी?
❌ नहीं, जांच प्रक्रिया कानूनी और संतुलित पाई गई। - क्या अदालत सजा की गंभीरता पर पुनर्विचार कर सकती थी?
❌ नहीं, जब तक सजा “न्याय के मापदंडों के खिलाफ” न हो, कोर्ट को हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। - क्या एकल पीठ ने गलत तरीके से सजा को कम करने की कोशिश की?
✔ हाँ, डिवीजन बेंच ने माना कि एकल पीठ को ऐसा नहीं करना चाहिए था।
न्यायालय द्वारा उपयोग में लाए गए निर्णय
- B.C. Chaturvedi v. Union of India, (1995) 6 SCC 749
- Union of India v. G. Ganayutham, (1997) 4 SCC 436
मामले का शीर्षक
The State of Bihar & Others v. Heirs of Deceased Government Employee
केस नंबर
LPA No. 1358 of 2017 in CWJC No. 17091 of 2008
उद्धरण (Citation)
2020 (1) PLJR 156
न्यायमूर्ति गण का नाम
माननीय न्यायमूर्ति अश्विनी कुमार सिंह
माननीय न्यायमूर्ति अनिल कुमार सिन्हा
वकीलों के नाम और किनकी ओर से पेश हुए
श्री कुनाल तिवारी — राज्य सरकार की ओर से
वरिष्ठ अधिवक्ता श्री हेमेन्द्र प्रसाद सिंह, श्री सुरज बंश राय — उत्तरदाताओं की ओर से
निर्णय का लिंक
https://patnahighcourt.gov.in/viewjudgment/MyMxMzU4IzIwMTcjMSNO-ZxUB2z–ak1–Y7hU=
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