पटना हाई कोर्ट का फैसला: गारंटर के खिलाफ वसूली की कार्यवाही वैध, लिमिटेशन एक्ट बाधक नहीं

पटना हाई कोर्ट का फैसला: गारंटर के खिलाफ वसूली की कार्यवाही वैध, लिमिटेशन एक्ट बाधक नहीं

निर्णय की सरल व्याख्या

पटना हाई कोर्ट ने एक अहम फैसले में यह स्पष्ट किया है कि यदि किसी गारंटर (guarantor) ने किसी कंपनी के लिए ऋण लेने में गारंटी दी है और वह गारंटी continuing guarantee है, तो उधारी की राशि की वसूली उस गारंटर से की जा सकती है, भले ही कई वर्ष बीत चुके हों, बशर्ते गारंटर से वसूली की मांग उचित समय पर की गई हो।

इस मामले में याचिकाकर्ता एक कंपनी “पटना रोलिंग मिल्स प्राइवेट लिमिटेड” के प्रमोटर और निदेशक थे। इस कंपनी ने बिहार राज्य वित्त निगम (BSFC) और बिहार स्टेट क्रेडिट एंड इन्वेस्टमेंट कॉर्पोरेशन (BICICO) से कर्ज लिया था। याचिकाकर्ता ने इस कर्ज के लिए गारंटी दी थी।

कंपनी ऋण चुकाने में असफल रही, और 2002 में BICICO ने कंपनी की संपत्तियों को जब्त कर नीलाम कर दिया। नीलामी के बावजूद कुछ ऋण राशि बाकी रह गई। उसी वर्ष BSFC ने याचिकाकर्ता को गारंटी के आधार पर वसूली नोटिस जारी किया। याचिकाकर्ता ने इसे चुनौती दी, यह कहते हुए कि यह कार्यवाही लिमिटेशन एक्ट के तहत समय-सीमा के बाहर है।

हालांकि, एकल न्यायाधीश ने उनकी याचिका खारिज कर दी थी। अब इस फैसले को चुनौती देते हुए यह अपील उच्च न्यायालय की डिवीजन बेंच के समक्ष प्रस्तुत की गई।

कोर्ट ने भारतीय अनुबंध अधिनियम, 1872 की धारा 124 से 137 का विस्तार से विश्लेषण करते हुए यह स्पष्ट किया कि continuing guarantee की स्थिति में गारंटर की जिम्मेदारी तब तक बनी रहती है जब तक ऋण पूरा नहीं चुका दिया जाता या गारंटी को वैध रूप से वापस नहीं लिया जाता।

महत्वपूर्ण बात यह रही कि कोर्ट ने कहा कि लिमिटेशन (सीमा अवधि) की गणना तब से शुरू होती है जब गारंटर से वसूली की मांग की जाती है और वह भुगतान करने से मना करता है—ना कि उस दिन से जब कंपनी डिफॉल्ट करती है।

इस मामले में, गारंटर को सितंबर 2002 में नोटिस दिया गया था, और कंपनी की संपत्ति की नीलामी 2005 में पूरी हुई थी। अतः वसूली की प्रक्रिया समय के भीतर की गई मानी गई और इसे वैध करार दिया गया।

निर्णय का महत्व और इसका प्रभाव आम जनता या सरकार पर

यह फैसला कई स्तरों पर महत्वपूर्ण है:

  • यह वित्तीय संस्थानों को यह स्पष्ट करता है कि continuing guarantee के तहत वे गारंटर से वसूली कर सकते हैं, भले ही मूल कर्ज पर कार्यवाही पहले ही हो चुकी हो।
  • गारंटी देने वाले व्यक्तियों को यह समझने की जरूरत है कि उनकी जिम्मेदारी केवल नाममात्र की नहीं होती, बल्कि वह कानूनी रूप से बंधनकारी होती है जब तक उसे औपचारिक रूप से वापस नहीं लिया जाए।
  • यह फैसला बैंकों और राज्य वित्त निगमों के लिए राहत है क्योंकि यह स्पष्ट करता है कि वसूली की प्रक्रिया कानूनन सीमा में है अगर मांग सही समय पर की जाए।

कानूनी मुद्दे और निर्णय (बुलेट में)

  • क्या Section 32G के तहत गारंटर के खिलाफ कार्यवाही लिमिटेशन एक्ट के तहत समयसीमा से बाहर थी?
    • न्यायालय का निर्णय: नहीं, यह कार्यवाही समयसीमा के भीतर की गई थी क्योंकि गारंटी “continuing guarantee” थी और सीमा अवधि गारंटर के इनकार के समय से गिनी जाती है।
  • क्या गारंटी समाप्त मानी जाती है जब कंपनी की संपत्ति नीलाम हो जाती है?
    • न्यायालय का निर्णय: नहीं, जब तक ऋण पूरा नहीं चुका दिया जाता या गारंटी औपचारिक रूप से समाप्त नहीं होती, तब तक गारंटी जारी रहती है।
  • क्या लंबे समय बाद कार्यवाही करने से गारंटर की जिम्मेदारी खत्म हो जाती है?
    • न्यायालय का निर्णय: नहीं, यदि गारंटी वैध है और कोई विधिक रद्दीकरण नहीं हुआ है, तो गारंटर जिम्मेदार रहता है।
  • क्या अनुबंध अधिनियम, लिमिटेशन एक्ट पर प्राथमिकता रखता है इस प्रकार के मामलों में?
    • न्यायालय का निर्णय: हाँ, जब गारंटी की शर्तें और अनुबंध अधिनियम लागू होते हैं, तो लिमिटेशन की गणना उसी आधार पर की जाती है।

पार्टियों द्वारा संदर्भित निर्णय

  • New Delhi Municipal Committee v. Kalu Ram, (1976) 3 SCC 407
  • State of Kerala v. V.R. Kalliyanikutty, (1999) 3 SCC 657
  • Syndicate Bank v. Channaveerappa Beleri, (2006) 11 SCC 506

न्यायालय द्वारा उपयोग में लाए गए निर्णय

  • Delhi Financial Corporation v. Rajiv Anand, (2004) 11 SCC 625
  • Karnataka State Financial Corporation v. N. Narasimahaiah, (2008) 5 SCC 176
  • Raghunath Rai Bareja v. Punjab National Bank, (2007) 2 SCC 230
  • Mrs. Margaret Lalita Samuel v. Indo Commercial Bank Ltd., (1979) 2 SCC 396
  • Deepak Bhandari v. H.P. State Industrial Development Corporation, (2015) 5 SCC 518
  • Jagdish Rai v. Haryana Financial Corporation, AIR 2008 P&H 50

मामले का शीर्षक

Hari Narayan Sinha v. State of Bihar & Ors.

केस नंबर

LPA No. 417 of 2010

उद्धरण (Citation)

2021(1) PLJR 409

न्यायमूर्ति गण का नाम

  • माननीय मुख्य न्यायाधीश श्री संजय करोल
  • माननीय श्री न्यायमूर्ति एस. कुमार

वकीलों के नाम और किनकी ओर से पेश हुए

  • याचिकाकर्ता की ओर से: श्री माणिक वेदसेन, श्री सुभाष चंद्र बोस
  • प्रतिवादियों की ओर से: श्री निखिल कुमार अग्रवाल

निर्णय का लिंक

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Aditya Kumar

Aditya Kumar is a dedicated and detail-oriented legal intern with a strong academic foundation in law and a growing interest in legal research and writing. He is currently pursuing his legal education with a focus on litigation, policy, and public law. Aditya has interned with reputed law offices and assisted in drafting legal documents, conducting research, and understanding court procedures, particularly in the High Court of Patna. Known for his clarity of thought and commitment to learning, Aditya contributes to Samvida Law Associates by simplifying complex legal topics for public understanding through well-researched blog posts.

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