उत्तराधिकार से मिली जमीन पर जबरन कब्जा रोकने के लिए उत्तराधिकारी को राहत – पटना हाई कोर्ट का अहम फैसला

उत्तराधिकार से मिली जमीन पर जबरन कब्जा रोकने के लिए उत्तराधिकारी को राहत – पटना हाई कोर्ट का अहम फैसला

निर्णय की सरल व्याख्या

पटना हाई कोर्ट ने उत्तराधिकार अधिनियम, 1925 की धारा 192 की व्याख्या करते हुए एक महत्वपूर्ण फैसला सुनाया है। यह मामला बक्सर जिले की पुश्तैनी जमीन से जुड़ा है, जिसमें याचिकाकर्ता ने यह आशंका जताई थी कि कुछ लोग उनकी जमीन पर जबरन कब्जा कर सकते हैं, जबकि वह जमीन उन्हें पैतृक संपत्ति के रूप में उत्तराधिकार से मिली है।

इस विवाद की जड़ उस संपत्ति से जुड़ी है जो याचिकाकर्ता के दादा और पिता की थी। उनके परिवार ने इस जमीन को लेकर पहले सुप्रीम कोर्ट तक मुकदमा लड़ा था और सुप्रीम कोर्ट ने 1962 में यह निर्णय दिया कि वह जमीन याचिकाकर्ता के पूर्वजों की है।

इसके बावजूद, विपक्षी पक्ष ने 1978 में एक महिला से यह जमीन खरीदी थी, जिसका दावा पहले ही सुप्रीम कोर्ट में खारिज हो चुका था। अब विपक्षी पक्ष इस जमीन पर जबरदस्ती कब्जा करने की कोशिश कर रहा था।

इस स्थिति को देखते हुए, याचिकाकर्ता ने बक्सर के जिला न्यायाधीश के समक्ष उत्तराधिकार अधिनियम की धारा 192 के तहत याचिका दायर की और जमीन पर अपने कब्जे की रक्षा की मांग की। लेकिन जिला न्यायाधीश ने यह कहते हुए याचिका प्रारंभिक चरण में ही खारिज कर दी कि याचिकाकर्ता पहले से जमीन पर काबिज है और इस समय कोई प्रत्यक्ष विवाद नहीं है, इसलिए यह याचिका योग्य नहीं है।

याचिकाकर्ता ने इस आदेश को पटना हाई कोर्ट में चुनौती दी। हाई कोर्ट ने पाया कि जिला न्यायालय ने कानून की गलत व्याख्या की। न्यायालय ने कहा कि धारा 192 स्पष्ट रूप से यह कहती है कि अगर किसी उत्तराधिकारी को इस बात की वास्तविक आशंका हो कि कोई व्यक्ति बिना वैध अधिकार के उसकी संपत्ति पर जबरन कब्जा करने वाला है, तो वह कोर्ट से सुरक्षा की मांग कर सकता है।

हाई कोर्ट ने यह भी कहा कि धारा 193 के अनुसार, ऐसी याचिका पर सुनवाई से पहले न्यायाधीश को आवेदनकर्ता की शपथ पर पूछताछ करनी चाहिए और यह जांच करनी चाहिए कि आवेदनकर्ता का दावा वास्तविक और ईमानदार है या नहीं। लेकिन जिला न्यायाधीश ने यह प्रक्रिया पूरी किए बिना ही याचिका खारिज कर दी, जो कानून के विरुद्ध है।

अंततः, हाई कोर्ट ने जिला न्यायाधीश का आदेश रद्द कर दिया और मामला दोबारा सुनवाई के लिए वापस भेज दिया ताकि सभी पक्षों की बात सुनी जा सके और मामले का निर्णय कानून के अनुसार किया जा सके।

निर्णय का महत्व और इसका प्रभाव आम जनता या सरकार पर

यह फैसला उत्तराधिकार कानून के तहत उत्तराधिकारियों के अधिकारों की रक्षा करता है। यह स्पष्ट करता है कि केवल कब्जा होने से किसी उत्तराधिकारी को कानूनी संरक्षण की ज़रूरत नहीं होती — अगर ज़बरन कब्जे की आशंका हो तो भी अदालत की शरण ली जा सकती है।

साधारण नागरिकों के लिए यह संदेश है कि यदि किसी को अपनी पुश्तैनी संपत्ति पर खतरा महसूस हो रहा है, तो वे अदालत की मदद ले सकते हैं, भले ही वे अभी कब्जे में हों। वहीं, सरकार और निचली अदालतों के लिए यह फैसला यह निर्देश देता है कि उत्तराधिकार कानून की सही व्याख्या की जाए और मामलों को बिना जांच के खारिज न किया जाए।

कानूनी मुद्दे और निर्णय (बुलेट में)

  • क्या धारा 192 के तहत याचिका तब भी दायर की जा सकती है जब याचिकाकर्ता पहले से जमीन पर काबिज हो?
    • हाँ, अगर जबरन कब्जे की आशंका हो तो याचिका योग्य है।
  • क्या जिला न्यायाधीश ने याचिका बिना जांच के खारिज कर दी?
    • हाँ, हाई कोर्ट ने इसे गलत ठहराया और दोबारा सुनवाई के लिए मामला वापस भेजा।
  • क्या विपक्षी पक्ष की बिक्री वैध मानी जा सकती है, जब विक्रेता का अधिकार पहले ही सुप्रीम कोर्ट ने खारिज कर दिया हो?
    • नहीं, ऐसी बिक्री का कोई कानूनी आधार नहीं होता।

पार्टियों द्वारा संदर्भित निर्णय

  • सिविल अपील संख्या 426/1959 (सुप्रीम कोर्ट द्वारा 1962 में निर्णय)

न्यायालय द्वारा उपयोग में लाए गए निर्णय

  • कोई विशेष निर्णय नहीं

मामले का शीर्षक
Dinesh Prasad Sinha v. Shiv Nath Yadav & Ors.

केस नंबर
Miscellaneous Appeal No. 389 of 2014

उद्धरण (Citation)
2020 (1) PLJR 82

न्यायमूर्ति गण का नाम
माननीय न्यायमूर्ति एस. कुमार

वकीलों के नाम और किनकी ओर से पेश हुए

  • अपीलकर्ता की ओर से: श्री अंबुज नयन चौबे
  • प्रतिवादीगण की ओर से: श्री दिवाकर प्रसाद सिंह

निर्णय का लिंक
https://patnahighcourt.gov.in/viewjudgment/MiMzODkjMjAxNCMxI04=-asxToYE7paU=

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Aditya Kumar

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