निर्णय की सरल व्याख्या
पटना उच्च न्यायालय ने 22 जून 2021 को एक महत्वपूर्ण निर्णय दिया जिसमें यह स्पष्ट किया गया कि किसी सरकारी या सार्वजनिक क्षेत्र के कर्मचारी को बिना विभागीय जांच के “लोकहित” के नाम पर जबरन सेवानिवृत्त (Compulsory Retirement) नहीं किया जा सकता।
यह मामला बिहार राज्य विद्युत होल्डिंग कंपनी लिमिटेड (BSPHCL) के एक वरिष्ठ अधिकारी से जुड़ा था, जिन्हें 2013 में बिना जांच पूरी किए सेवा से जबरन सेवानिवृत्त कर दिया गया था। न्यायालय ने इसे प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों (Principles of Natural Justice) का उल्लंघन बताते हुए पूरी तरह अवैध ठहराया।
मामले की पृष्ठभूमि
याचिकाकर्ता बिहार राज्य विद्युत वितरण कंपनी (South Bihar Power Distribution Company) में पदस्थ थे।
29 मार्च 2013 को उन्हें कार्य में लापरवाही और अनुशासनहीनता के आरोपों पर कारण बताओ नोटिस (Show-Cause Notice) दिया गया।
इसके कुछ दिन बाद, 4 अप्रैल 2013 को उन्हें निलंबित (Suspended) कर दिया गया।
लेकिन विभागीय जांच पूरी करने के बजाय, कंपनी ने 31 जुलाई 2013 को उन्हें बिहार राज्य विद्युत बोर्ड सेवा विनियम, 1976 की धारा 74(क) के तहत जबरन सेवानिवृत्त कर दिया। कंपनी ने यह कहते हुए ऐसा किया कि “लोकहित में” उनकी सेवा समाप्त की जा रही है और उन्हें तीन माह का वेतन अग्रिम दिया गया।
याचिकाकर्ता ने अपील की, लेकिन अपीलीय प्राधिकारी ने केवल एक “दूसरा कारण बताओ नोटिस” भेजकर पहले वाले निर्णय को ही बरकरार रखा।
इसके बाद याचिकाकर्ता ने हाई कोर्ट का दरवाज़ा खटखटाया।
याचिकाकर्ता और प्रतिवादी के तर्क
याचिकाकर्ता की ओर से:
- जब विभागीय जांच लंबित थी, तो “लोकहित” के नाम पर सेवानिवृत्ति देना कानून के खिलाफ है।
- यह सेवानिवृत्ति वास्तव में एक दंडात्मक कार्रवाई थी, जिसे “लोकहित” का नाम देकर लागू किया गया।
- इस प्रकार की कार्रवाई कर्मचारी के निष्पक्ष सुनवाई के अधिकार का उल्लंघन है।
प्रतिवादी (कंपनी) की ओर से:
- कर्मचारी को लोकहित में हटाया गया, यह कोई सज़ा नहीं है।
- अपील के दौरान दूसरा कारण बताओ नोटिस भेजा गया, इसलिए प्रक्रिया का पालन हुआ।
- संबंधित अधिकारी “अकर्मण्य” (deadwood) थे, इसलिए प्रशासनिक विवेक से उन्हें हटाया गया।
न्यायालय का विश्लेषण
माननीय न्यायमूर्ति अनिल कुमार उपाध्याय ने कंपनी के सभी तर्कों को खारिज करते हुए कहा कि यह निर्णय कानूनी दृष्टि से पूरी तरह त्रुटिपूर्ण (misconceived) है।
मुख्य निष्कर्ष इस प्रकार हैं—
- कोई विभागीय जांच नहीं हुई:
- अधिकारी को पहले निलंबित किया गया और आरोप लगाए गए, पर जांच पूरी नहीं की गई।
- बिना जांच के जबरन सेवानिवृत्ति देना मनमाना कदम है।
- प्राकृतिक न्याय का उल्लंघन:
- अपील में भेजा गया “दूसरा कारण बताओ नोटिस” मूल विभागीय जांच का विकल्प नहीं हो सकता।
- बिना उचित सुनवाई के दिया गया आदेश अवैध है।
- लोकहित का गलत प्रयोग:
- “लोकहित” का प्रावधान केवल अक्षम या अकर्मण्य कर्मचारियों पर लागू होता है,
न कि उन पर जिन पर अनुशासनिक जांच लंबित हो।
- “लोकहित” का प्रावधान केवल अक्षम या अकर्मण्य कर्मचारियों पर लागू होता है,
- दंडात्मक प्रक्रिया से बचने की कोशिश:
- कंपनी ने जांच से बचने के लिए “लोकहित” का सहारा लिया, जो कि सेवा नियमों का दुरुपयोग है।
न्यायालय का निर्णय
न्यायालय ने याचिकाकर्ता को पूरा न्याय देते हुए आदेश दिया कि:
- जबरन सेवानिवृत्ति का आदेश रद्द किया जाता है।
- याचिकाकर्ता को उसकी सेवानिवृत्ति की निर्धारित आयु (जनवरी 2021) तक निरंतर सेवा में माना जाएगा।
- उसे सभी वेतन, पेंशन और अन्य लाभ मिलेंगे, जिनका वह पात्र है।
- यदि तीन महीने के भीतर भुगतान नहीं किया जाता है, तो उसे 9% वार्षिक ब्याज सहित राशि दी जाएगी।
इस प्रकार अदालत ने स्पष्ट किया कि “लोकहित” के नाम पर बिना जांच की गई जबरन सेवानिवृत्ति पूरी तरह अवैध है।
निर्णय का महत्व और प्रभाव
यह फैसला सरकारी व सार्वजनिक क्षेत्र के कर्मचारियों के अधिकारों की रक्षा करने वाला है।
- जांच के बिना हटाना अवैध: विभागीय जांच लंबित रहते हुए जबरन सेवानिवृत्ति नहीं दी जा सकती।
- प्राकृतिक न्याय की अनदेखी नहीं: हर कर्मचारी को सुनवाई का पूरा अवसर मिलना चाहिए।
- लोकहित का सही अर्थ: यह प्रावधान केवल उन कर्मचारियों पर लागू होता है जिनकी कार्यक्षमता समाप्त हो गई हो।
- दुरुपयोग पर रोक: यह निर्णय प्रशासनिक विवेक के गलत प्रयोग को रोकने का एक मजबूत उदाहरण है।
यह फैसला बिहार सरकार और सार्वजनिक उपक्रमों के लिए यह संदेश देता है कि किसी कर्मचारी को दंड देने के लिए शॉर्टकट नहीं अपनाया जा सकता।
कानूनी मुद्दे और न्यायालय का निर्णय
- मुद्दा 1: क्या विभागीय जांच के बिना जबरन सेवानिवृत्ति दी जा सकती है?
- निर्णय: नहीं, यह अवैध है।
- मुद्दा 2: क्या अपील में दिया गया “दूसरा कारण बताओ नोटिस” मूल त्रुटि को ठीक कर सकता है?
- निर्णय: नहीं, यह विभागीय जांच का विकल्प नहीं है।
- मुद्दा 3: क्या “लोकहित” का प्रयोग दंडात्मक मामलों में किया जा सकता है?
- निर्णय: नहीं, यह नियमों का दुरुपयोग है।
न्यायालय द्वारा उद्धृत या अपनाए गए सिद्धांत
- Baikuntha Nath Das v. Chief District Medical Officer, (1992) 2 SCC 299
- Union of India v. Col. J.N. Sinha, (1970) 2 SCC 458
मामले का शीर्षक
राजेन्द्र प्रसाद बनाम बिहार स्टेट पावर होल्डिंग कंपनी लिमिटेड एवं अन्य
केस नंबर
Civil Writ Jurisdiction Case No. 14816 of 2015
उद्धरण (Citation)
2021(3) PLJR 5
न्यायमूर्ति गण का नाम
माननीय न्यायमूर्ति अनिल कुमार उपाध्याय
वकीलों के नाम और किनकी ओर से पेश हुए
- याचिकाकर्ता की ओर से: श्री बजरंगी लाल, अधिवक्ता
- प्रतिवादी की ओर से: श्री विनय कीर्ति सिंह, वरिष्ठ अधिवक्ता
निर्णय का लिंक
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