पटना उच्च न्यायालय का फैसला: तीन लोगों की मौत के मामले में गैर-जमानती वारंट को चुनौती खारिज — 2021

पटना उच्च न्यायालय का फैसला: तीन लोगों की मौत के मामले में गैर-जमानती वारंट को चुनौती खारिज — 2021

निर्णय की सरल व्याख्या

पटना उच्च न्यायालय ने 18 मई 2021 को एक महत्वपूर्ण फैसला सुनाया, जिसमें दो याचिकाओं (Cr. Misc. No. 24550/2020 और 24626/2020) को खारिज कर दिया गया। इन याचिकाओं में याचिकाकर्ताओं ने न्यायिक दंडाधिकारी, कटिहार द्वारा जारी गैर-जमानती वारंट (Non-Bailable Warrant) को रद्द करने की मांग की थी।

यह मामला कटिहार मुफस्सिल थाना कांड संख्या 57/2020 से जुड़ा था, जिसमें पुलिस ने भारतीय दंड संहिता की धारा 306 (आत्महत्या के लिए उकसाना) और धारा 120B/34 (षड्यंत्र और समान अभिप्राय) के तहत मामला दर्ज किया था।

इस मामले में एक ही परिवार के तीन सदस्य — एक व्यक्ति, उसकी पत्नी और चार साल का बेटा — अपने किराए के मकान में मृत पाए गए। घर से एक सुसाइड नोट (आत्महत्या-पत्र) मिला, जिसमें पूरे घटनाक्रम और मौत के कारणों का उल्लेख था। शुरुआत में यह केस अज्ञात व्यक्तियों के खिलाफ दर्ज किया गया था।

बाद में जांच के दौरान मृतक के आत्महत्या-पत्र में कुछ स्थानीय लोगों के नाम आए, जिनमें याचिकाकर्ता भी शामिल थे। उन पर आरोप था कि वे सूदखोरी (उच्च ब्याज पर कर्ज) का काम करते थे और मृतक को बार-बार अपमानित और प्रताड़ित करते थे, जिससे उसने आत्महत्या कर ली।

पुलिस की रिपोर्ट पर न्यायिक दंडाधिकारी ने एफआईआर दर्ज होने के केवल छह दिन बाद ही याचिकाकर्ताओं के खिलाफ गैर-जमानती वारंट जारी कर दिया।

याचिकाकर्ताओं के तर्क

याचिकाकर्ताओं के वकील का कहना था कि –

  • उनके नाम एफआईआर में नहीं थे, केवल आत्महत्या-पत्र में अस्पष्ट रूप से लिखे गए थे।
  • उनके खिलाफ कोई सीधा या परोक्ष सबूत नहीं था जो उन्हें आत्महत्या के लिए उकसाने से जोड़ता हो।
  • उन्होंने सिर्फ मृतक को पैसे उधार दिए थे, जो कोई अपराध नहीं है।
  • मजिस्ट्रेट ने बिना ठोस आधार या कारण लिखे वारंट जारी किया।
  • उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के “अर्नब गोस्वामी बनाम महाराष्ट्र राज्य (2020)” वाले फैसले का हवाला दिया, जिसमें कहा गया था कि धारा 306 आईपीसी तभी लागू होती है जब किसी व्यक्ति ने जानबूझकर आत्महत्या के लिए उकसाया हो।

अभियोजन और शिकायतकर्ता के तर्क

दूसरी ओर, मृतक के भाई (शिकायतकर्ता) की ओर से कहा गया कि –

  • याचिकाकर्ता और उनके साथी अत्यधिक ब्याज पर पैसे उधार देते थे
  • जब मृतक पैसा नहीं लौटा सका, तो उन्होंने उसे सार्वजनिक रूप से अपमानित और परेशान किया।
  • उनसे खाली कागज़ और चेक पर हस्ताक्षर भी करवा लिए।
  • यह सब मानसिक दबाव मृतक पर इतना बढ़ा कि उसने अपनी पत्नी और बच्चे के साथ आत्महत्या कर ली।
  • कॉल डिटेल रिकॉर्ड (CDR) से पता चला कि घटना के दिन मृतक और याचिकाकर्ताओं के बीच बात हुई थी।
  • पोस्टमॉर्टम और इनक्वेस्ट रिपोर्ट में पाया गया कि मृतक और उसकी पत्नी के हाथ पीछे बंधे थे — यानी यह संभवतः हत्या का मामला भी हो सकता है, न कि आत्महत्या।
  • इसके अलावा, धारा 82 सीआरपीसी के तहत इन दोनों के खिलाफ घोषणा प्रक्रिया (Proclamation) भी जारी की जा चुकी थी, जिससे यह याचिका निरर्थक हो गई थी।

अदालत का निष्कर्ष

माननीय न्यायमूर्ति प्रभात कुमार सिंह ने सभी पक्षों की दलीलें सुनने और रिकॉर्ड देखने के बाद यह कहा कि:

  • मजिस्ट्रेट ने केस डायरी और साक्ष्यों को देखकर ही गैर-जमानती वारंट जारी किया था।
  • कानून यह नहीं कहता कि मजिस्ट्रेट को हर कारण विस्तार से लिखना जरूरी है; पर्याप्त है कि उसने उपलब्ध तथ्यों पर विचार किया हो।
  • याचिकाकर्ताओं द्वारा जिन फैसलों का हवाला दिया गया था, वे इस मामले पर लागू नहीं होते, क्योंकि:
    • अर्नब गोस्वामी केस में केवल जमानत और एफआईआर रद्द करने के मुद्दे पर विचार हुआ था, न कि वारंट जारी करने पर।
    • अन्य फैसले धारा 82 और 83 सीआरपीसी (फरार आरोपी की संपत्ति जब्ती) से संबंधित थे, न कि गिरफ्तारी वारंट से।

इसलिए अदालत ने कहा कि मजिस्ट्रेट का आदेश कानूनी और उचित था और इसमें किसी प्रकार की त्रुटि नहीं है।
अंततः, दोनों याचिकाएं खारिज कर दी गईं

निर्णय का महत्व और प्रभाव

यह फैसला स्पष्ट करता है कि गैर-जमानती वारंट (NBW) जारी करने का अधिकार मजिस्ट्रेट के पास है, और यदि वह रिकॉर्ड में मौजूद तथ्यों को देखकर ऐसा करता है, तो अदालत उस आदेश में हस्तक्षेप नहीं करेगी।

आम जनता के लिए, यह निर्णय यह संदेश देता है कि यदि किसी आत्महत्या या आर्थिक विवाद में आपका नाम बाद में सामने आता है, तो अदालत पहले जांच की प्रक्रिया को पूरा होने देगी। केवल यह तर्क कि “नाम एफआईआर में नहीं था” हमेशा राहत नहीं देता।

कानून प्रवर्तन एजेंसियों के लिए, यह फैसला बताता है कि यदि प्रारंभिक साक्ष्य किसी व्यक्ति को अपराध से जोड़ते हैं, तो गिरफ्तारी के लिए वारंट जारी करना न्यायोचित है।

इसके अलावा, यह फैसला बिहार के ग्रामीण और कस्बाई इलाकों में बढ़ते सूदखोरी और आर्थिक शोषण के मामलों पर भी रोशनी डालता है — जहाँ ऐसी गतिविधियाँ कई बार गंभीर सामाजिक त्रासदियों का कारण बनती हैं।

कानूनी मुद्दे और निर्णय

  • क्या मजिस्ट्रेट द्वारा गैर-जमानती वारंट जारी करना गलत था?
    ❌ नहीं। अदालत ने कहा कि मजिस्ट्रेट ने रिकॉर्ड के आधार पर वैधानिक तरीके से आदेश दिया।
  • क्या केवल आत्महत्या-पत्र में नाम आने से अपराध बनता है?
    ⚖️ यह तथ्यात्मक प्रश्न है, जो ट्रायल के दौरान तय होगा। इस स्तर पर न्यायालय इसमें नहीं जा सकता।
  • क्या अर्नब गोस्वामी केस लागू होता है?
    ❌ नहीं। वह मामला अलग संदर्भ (जमानत) से जुड़ा था।
  • अंतिम परिणाम:
    ✅ दोनों याचिकाएं खारिज। वारंट आदेश वैध ठहराया गया।

केस नंबर

Criminal Misc. Nos. 24550/2020 और 24626/2020
(कटिहार मुफस्सिल थाना कांड संख्या 57/2020 से संबंधित)

उद्धरण (Citation)

2021(2) PLJR 714

न्यायमूर्ति गण का नाम

माननीय न्यायमूर्ति प्रभात कुमार सिंह
निर्णय की तिथि: 18 मई 2021

वकीलों के नाम और किनकी ओर से पेश हुए

  • याचिकाकर्ता की ओर से: श्री राघवेन्द्र कुमार सिंह, अधिवक्ता
  • अभियोजन पक्ष की ओर से: अपर लोक अभियोजक (A.P.P.)
  • शिकायतकर्ता की ओर से: श्री अरुण कुमार मंडल, अधिवक्ता

निर्णय का लिंक

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Aditya Kumar

Aditya Kumar is a dedicated and detail-oriented legal intern with a strong academic foundation in law and a growing interest in legal research and writing. He is currently pursuing his legal education with a focus on litigation, policy, and public law. Aditya has interned with reputed law offices and assisted in drafting legal documents, conducting research, and understanding court procedures, particularly in the High Court of Patna. Known for his clarity of thought and commitment to learning, Aditya contributes to Samvida Law Associates by simplifying complex legal topics for public understanding through well-researched blog posts.

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