निर्णय की सरल व्याख्या
पटना उच्च न्यायालय ने 26 मार्च 2021 को दिए एक महत्वपूर्ण फैसले में यह स्पष्ट किया कि नगर परिषद या स्थानीय निकाय किसी भवन निर्माण को केवल भूमि के स्वामित्व विवाद के आधार पर नहीं रोक सकते।
मामला दानापुर (पटना) नगर परिषद क्षेत्र से जुड़ा था। याचिकाकर्ता ने अपनी भूमि पर बहुमंज़िला इमारत बनाने की अनुमति नगर परिषद से 2016 में प्राप्त की थी। भवन निर्माण का नक्शा स्वीकृत था और निर्माण कार्य लगभग पूरा हो चुका था।
लेकिन एक अन्य व्यक्ति (प्रतिवादी संख्या 10) ने दावा किया कि यह भूमि वास्तव में उसके पिता की है, क्योंकि साल 1971 में दो रजिस्ट्री कागज कोलकाता रजिस्ट्री ऑफिस में दर्ज हुए थे। उसने नगर परिषद में शिकायत की कि याचिकाकर्ता ने भूमि स्वामित्व छिपाकर नकली तरीके से निर्माण की अनुमति प्राप्त की है।
इस शिकायत पर नगर परिषद, दानापुर के सिटी एक्जीक्यूटिव ऑफिसर ने 4 सितंबर 2020 को आदेश दिया कि “जब तक सक्षम सिविल न्यायालय स्वामित्व का निर्णय नहीं देता, तब तक भवन निर्माण कार्य रोक दिया जाए।”
इसी आदेश को याचिकाकर्ता ने पटना उच्च न्यायालय में चुनौती दी।
याचिकाकर्ता का पक्ष
याचिकाकर्ता का कहना था कि —
- उसने भवन निर्माण पूर्णतः स्वीकृत नक्शे के अनुसार किया है।
- न तो किसी कानून का उल्लंघन हुआ है, न ही बिना स्वीकृति निर्माण हुआ।
- नगर परिषद को “स्वामित्व विवाद” पर निर्णय देने का कोई अधिकार नहीं है, क्योंकि यह विषय सिविल कोर्ट के अधिकार क्षेत्र में आता है।
- अधिकारी ने बिना अधिकार (Without Jurisdiction) आदेश पारित किया, जिससे वैध निर्माण रुक गया और भारी नुकसान हो रहा है।
प्रतिवादी का पक्ष
प्रतिवादी संख्या 10 (शिकायतकर्ता) का कहना था कि —
- याचिकाकर्ता के नाना ने पहले ही 1971 में भूमि बेच दी थी, इसलिए 1984 में की गई गिफ्ट डीड (दानपत्र) अमान्य है।
- नक्शा स्वीकृति के समय इस तथ्य को छिपाया गया, जो धोखाधड़ी (fraud) है।
- जब कोई व्यक्ति झूठ या फर्जीवाड़े पर अधिकार मांगता है, तो अदालत को उसे राहत नहीं देनी चाहिए।
- Ritesh Tewari v. State of U.P. (AIR 2010 SC 3823) जैसे निर्णयों का हवाला देते हुए कहा गया कि धोखाधड़ी पर आधारित व्यक्ति को न्यायिक राहत नहीं मिल सकती।
न्यायालय का विश्लेषण
माननीय न्यायमूर्ति मधुरेश प्रसाद ने पूरा मामला सुनने के बाद बिहार नगरपालिका अधिनियम, 2007 की धारा 323 का परीक्षण किया।
इस धारा के अनुसार, नगर आयुक्त या सिटी एक्जीक्यूटिव ऑफिसर तभी निर्माण रोक सकते हैं जब —
- निर्माण बिना स्वीकृति के हो, या
- स्वीकृति के विपरीत हो, या
- कानून/नियम का उल्लंघन करता हो।
न्यायालय ने पाया कि अधिकारी ने इनमें से कोई भी बात अपने आदेश में नहीं कही है। उसने खुद माना कि यह मामला भूमि स्वामित्व विवाद का है।
इसलिए, जब उसने यह स्वीकार कर लिया कि यह सिविल विवाद है, तो उसके पास निर्माण रोकने का कोई अधिकार नहीं था।
अतः यह आदेश अधिकार से परे (without jurisdiction) और कानूनी रूप से अस्थिर (legally unsustainable) है।
न्यायालय ने यह भी कहा कि “केवल इसलिए कि वैकल्पिक उपाय (appeal) उपलब्ध है, उच्च न्यायालय अपना अधिकार नहीं खोता।”
जब आदेश बिना अधिकार का हो या जब वैधानिक अपीलीय ट्रिब्यूनल काम नहीं कर रहा हो, तब उच्च न्यायालय हस्तक्षेप कर सकता है।
संबंधित पूर्व निर्णयों का उल्लेख
न्यायालय ने अपने ही पिछले निर्णय Nagendra Prasad Gupta v. State of Bihar (CWJC No. 8769 of 2020) का हवाला देते हुए बताया कि writ jurisdiction निम्न परिस्थितियों में प्रयोग किया जा सकता है —
- जब मौलिक अधिकारों का हनन हो,
- जब प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत का उल्लंघन हो,
- जब आदेश बिना अधिकार (without jurisdiction) दिया गया हो, या
- जब किसी कानून की वैधता (constitutionality) पर प्रश्न हो।
यह मामला तीसरे प्रकार का था, इसलिए हस्तक्षेप उचित था।
न्यायालय का निष्कर्ष
न्यायालय ने कहा कि —
- नगर परिषद के अधिकारी का आदेश 04.09.2020 कानूनी अधिकार से बाहर था।
- उसने खुद माना कि विवाद भूमि स्वामित्व का है, लेकिन फिर भी निर्माण रोक दिया, जो नियमों के विपरीत है।
- इसलिए आदेश को रद्द किया जाता है।
हालाँकि, न्यायालय ने यह भी स्पष्ट किया कि दोनों पक्षों को सिविल कोर्ट में जाकर स्वामित्व का निर्णय प्राप्त करने की स्वतंत्रता है।
निर्णय का महत्व और इसका प्रभाव आम जनता या सरकार पर
यह फैसला बिहार के सभी नगर निकायों और आम नागरिकों के लिए एक अहम दिशा-निर्देश है।
- नगर परिषद या नगरपालिका का अधिकार सीमित है।
वे केवल यह देख सकते हैं कि निर्माण नक्शे के अनुसार है या नहीं, कानून का पालन हुआ या नहीं।
लेकिन अगर मामला भूमि स्वामित्व या रजिस्ट्री के विवाद से जुड़ा है, तो वह केवल सिविल कोर्ट तय कर सकती है। - निर्माण रोकने की कार्रवाई सीमित परिस्थितियों में ही की जा सकती है।
अगर निर्माण वैध नक्शे पर आधारित है और कोई अनियमितता नहीं पाई गई, तो उसे रोका नहीं जा सकता। - डेवलपर्स और मकान मालिकों को सुरक्षा मिली।
अब कोई भी प्रतिद्वंदी व्यक्ति, केवल विवाद दिखाकर, नगर परिषद से निर्माण बंद नहीं करवा सकेगा। - सरकार और प्रशासन के लिए सबक:
अधिकारियों को अपने अधिकारों की सीमा में रहकर ही कार्रवाई करनी चाहिए।
किसी सिविल विवाद में हस्तक्षेप करने से न केवल न्यायिक प्रक्रिया बाधित होती है, बल्कि नागरिकों का भरोसा भी कमजोर होता है।
यह निर्णय स्थानीय निकायों की कार्यप्रणाली में कानूनी अनुशासन और जवाबदेही की भावना को मजबूत करता है।
कानूनी मुद्दे और निर्णय
- क्या नगर परिषद अधिकारी के पास भूमि स्वामित्व विवाद में निर्माण रोकने का अधिकार था?
❌ निर्णय: नहीं। धारा 323 केवल उन्हीं मामलों में लागू होती है जहां निर्माण बिना अनुमति या नियमों के विपरीत हो। - क्या उच्च न्यायालय वैकल्पिक उपाय (अपील) होते हुए भी हस्तक्षेप कर सकता है?
✅ निर्णय: हाँ। क्योंकि अपीलीय ट्रिब्यूनल काम नहीं कर रहा था और आदेश अधिकारविहीन था, इसलिए उच्च न्यायालय का हस्तक्षेप उचित था। - क्या न्यायालय ने किसी पक्ष के स्वामित्व पर राय दी?
❌ निर्णय: नहीं। न्यायालय ने कहा कि दोनों पक्ष सिविल कोर्ट में जाकर अपने अधिकार सिद्ध कर सकते हैं।
पार्टियों द्वारा संदर्भित निर्णय
- Ritesh Tewari v. State of U.P., AIR 2010 SC 3823
- Suraj Lamp & Industries (P) Ltd. v. State of Haryana, (2009) 7 SCC 363
- AIR 1956 SC 44 (Estoppel by Deed का सिद्धांत)
न्यायालय द्वारा उपयोग में लाए गए निर्णय
- Nagendra Prasad Gupta v. State of Bihar (CWJC No. 8769 of 2020)
- Union of India v. Tantia Construction (P) Ltd., (2011) 5 SCC 697
- M.P. State Agro Industries Dev. Corp. Ltd. v. Jahan Khan, (2007) 10 SCC 88
- L.K. Verma v. H.M.T. Ltd., (2006) 2 SCC 269
मामले का शीर्षक
याचिकाकर्ता बनाम बिहार राज्य एवं अन्य
केस नंबर
Civil Writ Jurisdiction Case No. 10857 of 2020
उद्धरण (Citation)
2021(2) PLJR 694
न्यायमूर्ति गण का नाम
माननीय श्री न्यायमूर्ति मधुरेश प्रसाद
वकीलों के नाम और किनकी ओर से पेश हुए
- याचिकाकर्ता की ओर से: श्री करनदीप कुमार, अधिवक्ता
- राज्य की ओर से: श्री ज़की हैदर, सहायक अधिवक्ता जनरल
- प्रतिवादी संख्या 8 और 9 की ओर से: श्री संदीप कुमार एवं श्री जय राम सिंह, अधिवक्ता
- प्रतिवादी संख्या 10 की ओर से: वरिष्ठ अधिवक्ता श्री के.एन. चौबे एवं श्री अंबुज नयन चौबे
निर्णय का लिंक
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