निर्णय की सरल व्याख्या
पटना हाईकोर्ट ने एक अहम फैसले में अर्यभट्ट नॉलेज यूनिवर्सिटी द्वारा एमबीबीएस के कुछ छात्रों के परिणाम रद्द करने और उन्हें आगे की परीक्षा से वंचित करने के फैसले को खारिज कर दिया। विश्वविद्यालय ने छात्रों पर परीक्षा में अनुचित साधनों (unfair means) का उपयोग करने का आरोप लगाया था, लेकिन कोर्ट ने पाया कि विश्वविद्यालय के पास इन आरोपों को साबित करने के लिए कोई ठोस प्रमाण नहीं था।
मामला उन छात्रों से जुड़ा था जो एमबीबीएस की सेकंड सेमेस्टर की परीक्षा दे रहे थे। आरोप था कि कुछ छात्रों के पास मोबाइल फोन थे या उन्होंने कागज की चिट से नकल की। लेकिन परीक्षा केंद्र पर मौजूद निगरानीकर्ता (Invigilator) ने न तो मोबाइल या चिट ज़ब्त की और न ही छात्रों को परीक्षा रोकने के लिए कहा। शिकायत परीक्षा समाप्त होने के बाद दर्ज की गई।
विश्वविद्यालय की अनुचित साधन समिति (Unfair-Means Committee) ने केवल इसी शिकायत के आधार पर छात्रों का परिणाम रद्द कर दिया और उन्हें अगले सत्र की परीक्षा में बैठने से भी रोक दिया। समिति ने यह नहीं बताया कि विश्वविद्यालय के किस नियम के तहत कार्रवाई की गई और न ही यह बताया कि किस छात्र ने कौन सा नियम तोड़ा।
पटना हाईकोर्ट के एकल पीठ (Single Judge) ने यह फैसला पहले ही रद्द कर दिया था और विश्वविद्यालय को निर्देश दिया था कि छात्रों का परिणाम प्रकाशित किया जाए। विश्वविद्यालय ने इसके खिलाफ अपील की, लेकिन डिवीजन बेंच ने भी एकल पीठ के फैसले को सही ठहराया।
कोर्ट ने कहा कि:
- केवल मौखिक आरोपों पर किसी छात्र का करियर बर्बाद नहीं किया जा सकता।
- अनुचित साधन समिति को ठोस और व्यक्तिगत कारण बताने चाहिए कि किस छात्र ने क्या गलती की।
- यह तर्क कि छात्रों को पकड़ने से परीक्षा केंद्र में हंगामा हो सकता था, कोई वैध कारण नहीं है।
कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि यह फैसला किसी भी तरह से नकल को बढ़ावा नहीं देता, बल्कि यह सुनिश्चित करता है कि छात्रों के साथ बिना सबूत के अन्याय न हो।
निर्णय का महत्व और इसका प्रभाव आम जनता या सरकार पर
यह निर्णय शिक्षा व्यवस्था में न्याय और पारदर्शिता को बढ़ावा देता है। अगर किसी छात्र पर गंभीर आरोप लगाए जाते हैं, तो उस पर उचित जांच होनी चाहिए। सिर्फ संदेह या एकतरफा बयान के आधार पर परीक्षा परिणाम रद्द करना न केवल छात्र के भविष्य को नुकसान पहुंचाता है, बल्कि पूरे सिस्टम की विश्वसनीयता पर भी सवाल खड़े करता है।
यह फैसला उन हजारों छात्रों के लिए राहत भरा है जो परीक्षा में गलत तरीके से फंस जाते हैं। यह विश्वविद्यालयों और अन्य शैक्षणिक संस्थानों के लिए एक चेतावनी भी है कि किसी भी छात्र पर आरोप लगाने से पहले उचित प्रक्रिया अपनाई जाए और सबूत इकट्ठा किए जाएं।
कानूनी मुद्दे और निर्णय (बुलेट में)
- क्या सिर्फ निगरानीकर्ता की देरी से दी गई शिकायत के आधार पर परीक्षा परिणाम रद्द किया जा सकता है?
➤ नहीं। ठोस और तत्कालीन सबूत की आवश्यकता है। - क्या समिति ने विश्वविद्यालय के नियमों का सही पालन किया?
➤ नहीं। समिति ने स्पष्ट नहीं किया कि कौन सा नियम किस छात्र द्वारा तोड़ा गया। - क्या छात्रों को परीक्षा पूरी करने देना आरोपों को कमजोर करता है?
➤ हाँ। अगर छात्र सच में दोषी होते, तो उन्हें वहीं रोकना चाहिए था। - क्या “परीक्षा में हंगामा हो सकता है” कहकर कार्रवाई न करना सही है?
➤ नहीं। यह लापरवाही है और इसे बहाना नहीं माना जा सकता।
पार्टियों द्वारा संदर्भित निर्णय
- Board of High School and Intermediate Education, U.P. Allahabad & Anr. v. Bagleshwar Prasad, AIR 1966 SC 875
- Prem Parkash Kaluniya v. Punjab University, (1973) 3 SCC 424
- Controller of Examinations v. G.S. Sunder, 1993 Supp (3) SCC 82
न्यायालय द्वारा उपयोग में लाए गए निर्णय
(उपरोक्त सभी निर्णयों का उल्लेख कोर्ट ने किया, लेकिन इनसे सहमति नहीं जताई)
मामले का शीर्षक
Arayabhatta Knowledge University & Ors. बनाम [कई छात्र – नाम गुप्त रखे गए हैं]
केस नंबर
LPA Nos. 227, 226, 237, 241, 244, 247, और 252 of 2020
न्यायमूर्ति गण का नाम
माननीय श्री न्यायमूर्ति अशुतोष कुमार
माननीय श्री न्यायमूर्ति जितेन्द्र कुमार
वकीलों के नाम और किनकी ओर से पेश हुए
- श्री आनंद कुमार ओझा – विश्वविद्यालय की ओर से
- श्री प्रियांक दीपक – विश्वविद्यालय की ओर से (कुछ मामलों में)
- श्री अवधेश कुमार – विश्वविद्यालय की ओर से (कुछ मामलों में)
- प्रतिवादी छात्रों की ओर से पेश वकीलों का उल्लेख नहीं किया गया
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