निर्णय की सरल व्याख्या
पटना हाईकोर्ट ने एक अहम फैसले में भागलपुर सिविल कोर्ट के एक नाजिर (Nazir) को सेवा से बर्खास्त किए जाने का आदेश रद्द कर दिया। न्यायालय ने कहा कि विभागीय जांच और दंड का कोई ठोस आधार नहीं था। इसलिए कर्मचारी को पूर्ण वेतन (Full Back Wages) और सेवा की निरंतरता (Continuity of Service) के साथ लाभ देने का निर्देश दिया गया।
यह फैसला माननीय न्यायमूर्ति मोहित कुमार शाह ने 13 अगस्त 2020 को सुनाया।
मामला क्या था?
याचिकाकर्ता उस समय सिविल कोर्ट, भागलपुर में नाजिर इंचार्ज के पद पर कार्यरत थे। उन्हें अदालत के आदेश पर एक दुकान की कब्जा सुपुर्दगी (Delivery of Possession) कराने की जिम्मेदारी दी गई थी। यह आदेश टाइटल एग्जीक्यूशन केस नंबर 17/1999 में पारित हुआ था।
14 दिसंबर 2003 को नाजिर मौके पर गए लेकिन पुलिस बल न पहुँचने के कारण कब्जा दिलाया नहीं जा सका। उन्होंने इस बात की रिपोर्ट कोर्ट में जमा की।
इसके बावजूद जिला जज ने उन पर दो गंभीर आरोप लगाए —
- उन्होंने जानबूझकर पुलिस की व्यवस्था नहीं की ताकि आदेश का पालन न हो।
- उनके कहने पर अदालत के तीन प्यून (peon) ने ₹20,000 की रिश्वत मांगी।
जांच और कार्रवाई
विभागीय जांच के लिए एक अतिरिक्त जिला एवं सत्र न्यायाधीश को जांच अधिकारी बनाया गया।
जांच अधिकारी ने पाया कि रिश्वत मांगने का आरोप पूरी तरह गलत था, लेकिन उन्होंने नाजिर को लापरवाही (negligence) का दोषी बताया क्योंकि उन्होंने बिना पुलिस बल के कब्जा दिलाने की कोशिश की। हालांकि उन्होंने यह भी सुझाव दिया कि इतनी कठोर सजा (dismissal) उचित नहीं है।
इसके बावजूद जिला जज, भागलपुर ने 11 जुलाई 2005 को बर्खास्तगी का आदेश जारी कर दिया।
अपील में भी यह आदेश 7 अगस्त 2006 को बिना कारण बताए खारिज कर दिया गया।
याचिकाकर्ता का पक्ष
याचिकाकर्ता के वरिष्ठ वकील ने अदालत को बताया कि —
- 9 दिसंबर 2003 को उन्होंने पुलिस बल और कार्यपालक दंडाधिकारी (Executive Magistrate) की मांग करते हुए पत्र भेजा था।
- 13 दिसंबर 2003 को एसडीओ, भागलपुर ने आदेश पारित किया था जिसमें दोनों की नियुक्ति की गई थी।
- न्यायालय के आदेश दिनांक 20 दिसंबर 2003 में खुद यह माना गया था कि रिपोर्ट बोना फाइड (सच्ची) है।
- गवाह प्रीति श्री ने भी कहा कि उसके पिता (डिक्री होल्डर) बीमार थे और उस दिन भोगलपुर में मौजूद नहीं थे।
इसलिए याचिकाकर्ता ने कहा कि उसने अपनी ड्यूटी पूरी ईमानदारी से निभाई थी और कोई लापरवाही नहीं की।
प्रतिवादियों का तर्क
पटना हाईकोर्ट प्रशासन की ओर से कहा गया कि नाजिर ने ठीक से सूचना नहीं दी और पुलिस की व्यवस्था सुनिश्चित नहीं की। इससे आदेश का पालन नहीं हो पाया। उन्होंने यह भी कहा कि विभागीय जांच पूरी प्रक्रिया के अनुसार हुई थी और अदालत को पुनः साक्ष्य की जांच नहीं करनी चाहिए।
अदालत का विश्लेषण
माननीय न्यायमूर्ति मोहित कुमार शाह ने विस्तार से सभी रिकॉर्ड और सुप्रीम कोर्ट के फैसले देखे —
जैसे B.C. Chaturvedi v. Union of India (1995), Union of India v. P. Gunasekaran (2015), और M.V. Bijlani v. Union of India (2006)।
कोर्ट ने कहा कि न्यायिक समीक्षा (Judicial Review) का उद्देश्य यह देखना है कि
- जांच सही तरीके से हुई या नहीं, और
- क्या निष्कर्ष किसी सबूत पर आधारित हैं।
अदालत ने पाया कि
- रिश्वत का आरोप जांच अधिकारी ने खुद खारिज कर दिया था।
- नाजिर ने पुलिस बल और मजिस्ट्रेट की मांग के दस्तावेज जमा किए थे।
- प्रतिवादी की ओर से दाखिल हलफनामे में भी यह बात स्वीकार की गई कि उन्होंने 9 दिसंबर 2003 को पत्र भेजा था।
इसलिए अदालत ने कहा कि “लापरवाही का आरोप बिना सबूत के है और पूरी तरह मनगढ़ंत है।”
अंतिम निर्णय
- जांच रिपोर्ट (22 मार्च 2005) को अदालत ने रद्द किया।
- बर्खास्तगी आदेश (11 जुलाई 2005) और अपील खारिजी आदेश (7 अगस्त 2006) भी निरस्त किए।
- अदालत ने कहा कि यह मामला “गलत बर्खास्तगी (wrongful termination)” का है।
राहत
कोर्ट ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले Deepali Gundu Surwase v. Kranti Junior Adhyapak Mahavidyalaya (2013) के आधार पर कहा कि
“जहाँ बर्खास्तगी गलत पाई जाती है, वहाँ कर्मचारी को पुनःस्थापन (reinstatement) और पूर्ण वेतन के साथ सेवा की निरंतरता देना सामान्य नियम है।”
अदालत ने आदेश दिया कि —
- याचिकाकर्ता को 23 सितंबर 2004 से लेकर सेवानिवृत्ति की तारीख तक पूरा वेतन और सभी लाभ दिए जाएँ।
- यह भुगतान दो महीने के भीतर किया जाए।
निर्णय का महत्व और इसका प्रभाव आम जनता या सरकार पर
- विभागीय जांच में सबूत का महत्व: बिना ठोस साक्ष्य के दी गई सजा टिक नहीं सकती।
- न्यायिक समीक्षा की सीमाएँ: कोर्ट जांच दोहराएगा नहीं, लेकिन यदि निष्कर्ष “बिना सबूत” हों तो हस्तक्षेप करेगा।
- कर्मचारियों के अधिकारों की रक्षा: अधीनस्थ न्यायालयों के कर्मचारियों को झूठे या मनमाने आरोपों से बचाव का अधिकार है।
- पूर्ण वेतन का अधिकार: जब बर्खास्तगी गलत पाई जाए, तब कर्मचारी को पूरा वेतन और सेवा लाभ मिलना चाहिए।
कानूनी मुद्दे और निर्णय
- क्या लापरवाही का आरोप साबित हुआ? ❌ नहीं। अदालत ने कहा कि सभी आवश्यक पत्राचार के प्रमाण मौजूद थे।
- क्या बर्खास्तगी उचित थी? ❌ नहीं। निर्णय “बिना सबूत” पर आधारित था।
- क्या अदालत पुनः साक्ष्य देख सकती है? ✅ केवल तब जब निर्णय मनमाना या बिन प्रमाण हो।
- क्या पूर्ण वेतन दिया जा सकता है? ✅ हाँ, क्योंकि यह गलत बर्खास्तगी का मामला था।
पार्टियों द्वारा संदर्भित निर्णय
- B.C. Chaturvedi v. Union of India, (1995) 6 SCC 749
- Bank of India v. Degala Suryanarayana, (1999) 5 SCC 762
- Union of India v. H.C. Goel, AIR 1964 SC 364
- Lalit Popli v. Canara Bank, (2003) 3 SCC 583
- M.V. Bijlani v. Union of India, (2006) 5 SCC 88
- Union of India v. P. Gunasekaran, (2015) 2 SCC 610
- Deepali Gundu Surwase v. Kranti Junior Adhyapak Mahavidyalaya, (2013) 10 SCC 324
न्यायालय द्वारा उपयोग में लाए गए निर्णय
मुख्य रूप से Union of India v. P. Gunasekaran (2015) और Deepali Gundu Surwase (2013) पर भरोसा किया गया।
मामले का शीर्षक
Ajit Kumar Mishra v. The Registrar (Administration), Patna High Court & Ors.
केस नंबर
Civil Writ Jurisdiction Case No. 13158 of 2006
उद्धरण (Citation)
2021(3) PLJR 51
न्यायमूर्ति गण का नाम
माननीय श्री न्यायमूर्ति मोहित कुमार शाह
वकीलों के नाम और किनकी ओर से पेश हुए
- याचिकाकर्ता की ओर से — श्री जे.एस. अरोड़ा (वरिष्ठ अधिवक्ता), श्री मनोज कुमार, श्री मुकुंद जी
- उच्च न्यायालय प्रशासन की ओर से — श्री पीयूष लाल
निर्णय का लिंक
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