निर्णय की सरल व्याख्या
पटना उच्च न्यायालय ने अपने एक महत्वपूर्ण निर्णय में एक सेवानिवृत्त जिला एवं सत्र न्यायाधीश पर लगाए गए अनुशासनात्मक दंड को रद्द कर दिया। न्यायालय ने कहा कि यह दंड एक दोषपूर्ण विभागीय जांच के आधार पर दिया गया था जिसमें आवश्यक साक्ष्य और गवाही की भारी कमी थी।
यह मामला दो अलग-अलग दंडों से जुड़ा था। एक मामले में न्यायिक अधिकारी को “सुपर टाइम स्केल” वेतनमान को एक वर्ष तक टालने की सजा दी गई थी और दूसरे में “फटकार” (censure) दी गई थी। याचिकाकर्ता ने दोनों आदेशों को चुनौती दी और उच्च वेतनमान का लाभ देने की मांग की।
मुख्य आरोप था कि याचिकाकर्ता ने 11 फरवरी 2004 को “करंट ड्यूटी” (current duty) के नाम पर पटना उच्च न्यायालय में आयोजित शपथ ग्रहण समारोह में बिना अनुमति के भाग लिया और बाद में गैर-हाजिरी में तैयार आदेशों पर हस्ताक्षर किए।
याचिकाकर्ता ने यह स्पष्ट किया कि उनकी वृद्ध मां उस दिन बीमार हो गई थीं, और वे Patna आए थे। उन्होंने सुबह 7 बजे ही “करंट ड्यूटी” की अनुमति की अर्जी दी थी और यह अर्जी एडीजे-1 को भी सूचित कर दी गई थी। बाद में, वे शपथ समारोह के बाद संबंधित जज को सूचित करने गए और दोपहर में जहानाबाद लौट आए जहां उन्होंने लोक अदालत में भाग लिया।
महत्वपूर्ण बात यह थी कि विभागीय जांच में न तो कोई गवाह पेश किया गया, न ही आवश्यक दस्तावेज विधिवत प्रस्तुत किए गए। खुद याचिकाकर्ता ने दो गवाह पेश किए — एक डॉक्टर जिन्होंने मां की बीमारी की पुष्टि की, और एक स्टेनोग्राफर जो उस दिन की प्रक्रिया के गवाह थे।
कोर्ट ने यह पाया कि “करंट ड्यूटी” के नियमों के उल्लंघन का कोई स्पष्ट प्रमाण नहीं था, और जांच रिपोर्ट केवल अनुमान पर आधारित थी। कोर्ट ने यह भी कहा कि विभागीय जांच में दस्तावेजों और गवाहों की अनुपस्थिति एक न्यायिक अधिकारी के खिलाफ सजा को असंवैधानिक बना देती है।
हालाँकि, दूसरे मामले में जहाँ याचिकाकर्ता ने एक अस्वीकार्य याचिका में स्थगन आदेश पारित किया था, वहां उन्हें “फटकार” दी गई थी। चूंकि यह एक “माइनर पेनल्टी” थी और प्रक्रिया के तहत शो-कॉज नोटिस और जवाब माँगा गया था, इसलिए कोर्ट ने इसे बरकरार रखा।
निर्णय का महत्व और इसका प्रभाव आम जनता या सरकार पर
यह निर्णय यह स्पष्ट करता है कि न्यायिक अधिकारियों के खिलाफ कोई भी अनुशासनिक कार्रवाई केवल ठोस साक्ष्यों और उचित प्रक्रिया के आधार पर ही की जानी चाहिए। यह फैसला बिहार की न्यायिक व्यवस्था में पारदर्शिता और प्रक्रिया की गंभीरता को पुनः स्थापित करता है।
सभी सरकारी कर्मचारियों के लिए यह एक महत्वपूर्ण संदेश है कि बिना गवाहों और स्पष्ट दस्तावेजों के दंड देना अवैध हो सकता है। साथ ही, न्यायपालिका के लिए यह एक चेतावनी भी है कि प्रशासनिक निर्णयों में कानूनी प्रक्रियाओं का पालन अनिवार्य है।
कानूनी मुद्दे और निर्णय (बुलेट में)
- क्या विभागीय जांच बिना गवाहों के वैध मानी जा सकती है?
- ❌ नहीं, कोर्ट ने कहा कि यह प्राकृतिक न्याय का उल्लंघन है।
- क्या “करंट ड्यूटी” के दौरान दूसरे न्यायिक अधिकारी को काम सौंपा जा सकता है?
- ✅ हां, जब तक इसका कोई स्पष्ट निषेध नहीं हो।
- क्या बिना विभागीय जांच के “फटकार” दी जा सकती है?
- ✅ हां, क्योंकि यह “माइनर पेनल्टी” है।
पार्टियों द्वारा संदर्भित निर्णय
- Devendra Prasad v. State of Bihar, LPA No. 1302/2017
- Roop Singh Negi v. Punjab National Bank, (2009) 2 SCC 570
न्यायालय द्वारा उपयोग में लाए गए निर्णय
- Roop Singh Negi v. Punjab National Bank, (2009) 2 SCC 570
- Nirmala J Jhala v. State of Gujarat, (2013) 4 SCC 301
- State of U.P. v. Saroj Kumar Sinha, (2010) 2 SCC 772
- Satyendra Singh v. State of U.P., SLP (Civil) No. 29758 of 2018
मामले का शीर्षक
Sudhansu Kumar Lal v. The High Court of Judicature at Patna & Anr.
केस नंबर
CWJC Nos. 14897 और 14896 of 2011
उद्धरण (Citation)– 2025 (1) PLJR 121
न्यायमूर्ति गण का नाम
माननीय मुख्य न्यायाधीश के. विनोद चंद्रन
माननीय न्यायमूर्ति पार्थ सारथी
वकीलों के नाम और किनकी ओर से पेश हुए
- श्री जितेंद्र सिंह, वरिष्ठ अधिवक्ता — याचिकाकर्ता (CWJC No. 14897)
- श्री हर्ष सिंह, अधिवक्ता — याचिकाकर्ता (CWJC No. 14896)
- श्री संजीव कुमार, स्थायी अधिवक्ता — पटना उच्च न्यायालय
- श्री मोहम्मद एन. होदा खान — राज्य सरकार (CWJC No. 14897)
- श्री मोहम्मद हारून कुरैशी एवं श्री मोहम्मद इर्शाद — सहायक अधिवक्ता
- श्री कुमार आलोक — राज्य सरकार (CWJC No. 14896)
निर्णय का लिंक
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