निर्णय की सरल व्याख्या
पटना उच्च न्यायालय ने नवंबर 2022 में एक महत्वपूर्ण फैसला दिया जो सिविल मामलों में वादपत्र (plaint) में संशोधन से संबंधित था। यह फैसला इस सवाल पर केंद्रित था कि — क्या किसी पक्षकार को मुकदमे के ट्रायल शुरू होने के बाद भी अपने दावे में नई संपत्तियाँ जोड़ने की अनुमति दी जा सकती है?
यह मामला कैमूर जिले के भभुआ न्यायालय से संबंधित था। यहाँ एक महिला (वादिनी) ने पारिवारिक संपत्ति के बंटवारे के लिए मुकदमा (Title Suit No. 261/2007) दायर किया था। उसके अनुसार, वह अपने दिवंगत पति की विधवा है और उसे संयुक्त पारिवारिक संपत्ति में आधा हिस्सा मिलना चाहिए।
मुकदमे में प्रतिवादीगण (यानि वर्तमान याचिकाकर्ता) ने इस दावे का जोरदार विरोध किया। उनका कहना था कि वादिनी उनके पिता की पत्नी नहीं थी, बल्कि वह एक impostor (जालसाज) है, जो असली पत्नी “गिरिजा देवी” बनकर पेश आ रही है। उन्होंने यह भी कहा कि परिवार की संपत्ति पहले ही बँट चुकी है और जो ज़मीनें उनके नाम दर्ज हैं, वे उनकी व्यक्तिगत संपत्ति हैं, न कि संयुक्त परिवार की।
वादिनी का संशोधन आवेदन
वादिनी ने मुकदमे की सुनवाई के दौरान एक आवेदन दिया (दिनांक 25 जनवरी 2018), जिसमें उसने कहा कि उसे हाल ही में दो और खाता संख्याओं (खाता संख्या 143 और 219) से संबंधित सर्वे खातियान के बारे में जानकारी मिली है। इन खातों की ज़मीनें भी संयुक्त परिवार की हैं, और उनका नाम भी उन खातों में दर्ज है। इसलिए उसने आग्रह किया कि इन दोनों खातों की ज़मीनों को भी मुकदमे की अनुसूची (Schedule-A) में जोड़ा जाए।
निचली अदालत (उप न्यायाधीश-II, भभुआ) ने 16 अप्रैल 2018 को यह संशोधन आवेदन मंजूर कर लिया। अदालत ने कहा कि इससे मुकदमे की प्रकृति नहीं बदलेगी और यह जरूरी है ताकि मामले का पूरा और निष्पक्ष निर्णय हो सके।
प्रतिवादीगण इस आदेश से असंतुष्ट होकर पटना उच्च न्यायालय पहुँचे (Civil Miscellaneous No. 892/2018), और कहा कि यह संशोधन बहुत देर से किया गया है और नियमों के विरुद्ध है।
याचिकाकर्ताओं (प्रतिवादियों) का पक्ष
- विलंब और लापरवाही का आरोप:
उनका तर्क था कि संशोधन आवेदन मुकदमे के ट्रायल शुरू होने के बाद दायर किया गया है, जबकि सिविल प्रक्रिया संहिता (CPC) के आदेश 6 नियम 17 में यह स्पष्ट है कि ट्रायल शुरू होने के बाद संशोधन तभी हो सकता है जब पक्ष यह दिखा सके कि उसने “उचित परिश्रम” (due diligence) के बाद भी पहले यह बात नहीं जान पाई। - व्यक्तिगत संपत्ति का दावा:
याचिकाकर्ताओं का कहना था कि जिन दो खातों की ज़मीनें जोड़ी जा रही हैं, वे प्रतिवादी संख्या 1 (देव शरण सिंह) की निजी संपत्ति हैं, जो उन्हें 1961 में हुए समझौता डिक्री (Title Suit No. 66/1961) के तहत मिली थी। - वाद की प्रकृति बदलना:
उनका कहना था कि नई संपत्तियाँ जोड़ने से मुकदमे का दायरा पूरी तरह बदल जाएगा और यह अनुमति अनुचित है। - पूर्ववर्ती निर्णयों पर भरोसा:
उन्होंने कई फैसलों का हवाला दिया, जिनमें कहा गया कि देर से किया गया संशोधन स्वीकार नहीं किया जा सकता:- Vidyabai v. Padmalatha, (2009) 2 SCC 409
- Sanjay Kumar v. State of Bihar, 2011 (4) PLJR 515
- Brahmanand Choudhary v. Narayani Devi, 2015 (3) PLJR 448
- Sayed Hasibuddin v. Syed Md. Akram Hussain, 2006 (4) PLJR 260
उत्तरदाता (वादिनी) का पक्ष
वादिनी की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता ने कहा कि:
- यह मुकदमा पारिवारिक संपत्ति के बंटवारे से जुड़ा है, और इसमें अंतिम डिक्री आने तक यह तय नहीं होता कि कौन सी ज़मीन किसके हिस्से में जाएगी।
- इस प्रकार के मामलों में नई संपत्तियाँ जोड़ने से मुकदमे की प्रकृति नहीं बदलती।
- अगर यह संशोधन न दिया जाए, तो वादिनी को फिर से एक नया मुकदमा दायर करना पड़ेगा — जिससे समय और संसाधनों की बर्बादी होगी।
- उसे इन ज़मीनों की जानकारी हाल ही में मिली है, इसलिए इसमें कोई जानबूझकर देरी नहीं की गई।
वादिनी ने अपने तर्कों को समर्थन देने के लिए इन दो निर्णयों का हवाला दिया:
- Chander Kanta Bansal v. Rajinder Singh Anand, (2008) 5 SCC 117
- Maksoodan Khatoon v. Akhtari Begum, 2005 (4) PLJR 618
न्यायालय का विश्लेषण
माननीय न्यायमूर्ति अनिल कुमार सिन्हा ने इस बात पर विचार किया कि अदालत को संशोधन की अनुमति देने में किन सिद्धांतों का पालन करना चाहिए।
उन्होंने कहा कि यद्यपि CPC की धारा 6 नियम 17 में यह कहा गया है कि ट्रायल शुरू होने के बाद संशोधन तभी हो सकता है जब पक्ष यह दिखाए कि उसने उचित परिश्रम किया है, लेकिन अदालतों के पास फिर भी पर्याप्त विवेकाधिकार (discretion) है ताकि न्याय हो सके।
सुप्रीम कोर्ट के निर्णय Chander Kanta Bansal (2008) का हवाला देते हुए उन्होंने कहा कि —
“संशोधन का उद्देश्य न्याय करना है, मुकदमे को लंबा करना नहीं। अगर संशोधन से मुकदमे की प्रकृति नहीं बदलती और यह विवाद के निवारण में सहायक है, तो उसे स्वीकार किया जा सकता है।”
न्यायालय ने यह भी कहा कि:
- पारिवारिक बंटवारे के मुकदमों की प्रकृति ऐसी होती है कि नई संपत्तियों को जोड़ना अक्सर आवश्यक होता है ताकि सभी संपत्तियों का समुचित विभाजन हो सके।
- संशोधन से प्रतिवादियों को कोई वास्तविक हानि नहीं होगी, क्योंकि उन्हें अतिरिक्त लिखित बयान (additional written statement) दाखिल करने का अवसर मिलेगा।
- यह संशोधन न्याय के हित में है और इससे मुकदमों की संख्या घटेगी, बढ़ेगी नहीं।
अंतिम निर्णय
पटना उच्च न्यायालय ने पाया कि निचली अदालत ने सही विवेकाधिकार का प्रयोग किया है। संशोधन से न तो मुकदमे की प्रकृति बदली और न ही कोई पूर्वाग्रह (prejudice) उत्पन्न हुआ।
अदालत ने कहा:
“कुछ अतिरिक्त प्लॉटों को जोड़ने से प्रतिवादियों को कोई नुकसान नहीं होगा, बल्कि इससे न्यायिक प्रक्रिया अधिक प्रभावी और संपूर्ण होगी।”
इसलिए, उच्च न्यायालय ने याचिका (Civil Misc. No. 892/2018) को खारिज करते हुए निचली अदालत का आदेश बरकरार रखा। हालांकि, प्रतिवादियों को यह अनुमति दी गई कि वे चाहें तो संशोधित वादपत्र के अनुसार नया लिखित बयान दाखिल कर सकते हैं।
निर्णय का महत्व और इसका प्रभाव
- संशोधन पर लचीलापन:
इस निर्णय से स्पष्ट हुआ कि पारिवारिक बंटवारे के मामलों में नई संपत्तियाँ जोड़ने की अनुमति दी जा सकती है, ताकि पूरी संपत्ति का न्यायपूर्ण विभाजन हो सके। - “Due Diligence” का व्यावहारिक अर्थ:
अदालत ने कहा कि “उचित परिश्रम” का अर्थ यह नहीं कि पक्ष को हर संभावना का अनुमान लगाना होगा। यदि गलती ईमानदारी से हुई है, तो संशोधन की अनुमति दी जा सकती है। - मुकदमों की संख्या घटाने की दिशा में कदम:
अगर ऐसी स्थिति में संशोधन न दिया जाए, तो नए मुकदमे दाखिल करने पड़ेंगे, जिससे न्यायिक संसाधनों की बर्बादी होगी। - निचली अदालतों के लिए मार्गदर्शन:
यह फैसला बताता है कि अदालतों को संशोधन के मामलों में उदार दृष्टिकोण अपनाना चाहिए, ताकि न्याय हो सके। - दोनों पक्षों के अधिकारों की रक्षा:
अदालत ने सुनिश्चित किया कि प्रतिवादियों को भी अपनी बात रखने का पूरा अवसर मिले।
कानूनी मुद्दे और निर्णय
- क्या ट्रायल शुरू होने के बाद भी संशोधन हो सकता है?
✔️ हाँ, अगर अदालत को लगता है कि यह न्याय के लिए आवश्यक है और मुकदमे की प्रकृति नहीं बदलेगी। - क्या वादिनी ने उचित परिश्रम दिखाया?
✔️ हाँ, अदालत ने माना कि उसे नई जानकारी हाल ही में मिली थी। - क्या संशोधन से प्रतिवादियों को नुकसान हुआ?
❌ नहीं, क्योंकि उन्हें नया बयान दाखिल करने की अनुमति दी गई।
पार्टियों द्वारा संदर्भित निर्णय
- Vidyabai v. Padmalatha, (2009) 2 SCC 409
- Sanjay Kumar v. State of Bihar, 2011 (4) PLJR 515
- Brahmanand Choudhary v. Narayani Devi, 2015 (3) PLJR 448
- Sayed Hasibuddin v. Syed Md. Akram Hussain, 2006 (4) PLJR 260
- Chander Kanta Bansal v. Rajinder Singh Anand, (2008) 5 SCC 117
- Maksoodan Khatoon v. Akhtari Begum, 2005 (4) PLJR 618
मामले का शीर्षक
(प्रतिवादीगण बनाम वादिनी — पारिवारिक संपत्ति के बंटवारे से संबंधित मामला, कैमूर, बिहार)
केस नंबर
Civil Miscellaneous Jurisdiction No. 892 of 2018
arising from Title Suit No. 261 of 2007
उद्धरण (Citation)
2023 (1) PLJR 5
न्यायमूर्ति गण का नाम
माननीय श्री न्यायमूर्ति अनिल कुमार सिन्हा
वकीलों के नाम और किनकी ओर से पेश हुए
- याचिकाकर्ताओं की ओर से: श्री अशुतोष नाथ, श्री कुनाल आर्यन, श्री बिनोद कुमार, अधिवक्ता।
- उत्तरदाता की ओर से: श्री जे. एस. अरोड़ा, वरिष्ठ अधिवक्ता; सुश्री शशि बाला वर्मा, अधिवक्ता।
निर्णय का लिंक
NDQjODkyIzIwMTgjMSNO-1MCwAIIph6I=
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