निर्णय की सरल व्याख्या
पटना उच्च न्यायालय ने एक महत्वपूर्ण निर्णय में यह स्पष्ट किया कि किसी भी आजीवन कारावास प्राप्त कैदी की समय से पहले रिहाई (Premature Release) पर विचार करते समय उसकी “रिमिशन अवधि” यानी सजा में दी गई छूट की अवधि को सही ढंग से जोड़ा जाना आवश्यक है।
इस मामले में याचिकाकर्ता ने अदालत से आग्रह किया कि उसके पिता की समयपूर्व रिहाई पर विचार किया जाए क्योंकि उन्होंने जेल में 14 वर्ष की वास्तविक सजा और 20 वर्ष की सजा रिमिशन सहित पूरी कर ली है। रिमिशन नीति के अनुसार, इतनी अवधि पूरी होने के बाद राज्य सरकार को कैदी की रिहाई पर विचार करना चाहिए।
मामला गया ज़िले के एक पुराने आपराधिक मुकदमे से जुड़ा था। दोषसिद्ध व्यक्ति को सत्र न्यायालय ने 1997 में आजीवन कारावास की सजा दी थी। बाद में उच्च न्यायालय ने अपील में उसे बरी कर दिया। लेकिन मुकदमे के सूचक (informant) ने इस फैसले को उच्चतम न्यायालय में चुनौती दी। सुप्रीम कोर्ट ने अपील मंजूर कर ली और व्यक्ति को फिर से 29 अगस्त 2011 को जेल में आत्मसमर्पण करना पड़ा।
उसने कई बार जेल प्रशासन और राज्य रिमिशन बोर्ड से रिहाई के लिए आवेदन दिया। पहले दायर की गई एक रिट याचिका 2019 में इस आधार पर खारिज हुई कि उस समय आवश्यक सजा अवधि पूरी नहीं हुई थी।
राज्य सरकार ने इस याचिका में बताया कि 15 मार्च 2021 तक कैदी ने 15 वर्ष 4 माह 20 दिन की वास्तविक सजा और 19 वर्ष 3 माह 11 दिन की सजा रिमिशन सहित पूरी की थी। यानी रिमिशन मिलाकर 20 वर्ष की आवश्यक अवधि 4 दिसंबर 2021 को पूरी होनी थी।
लेकिन याचिकाकर्ता ने तर्क दिया कि जेल विभाग ने रिमिशन की गणना में तीन साल की अवधि (21 दिसंबर 1997 से 19 अगस्त 2000) नहीं जोड़ी है। यह वह समय था जब कैदी दोषसिद्धि के बाद जेल में था, लेकिन बाद में बरी हुआ। यदि इस अवधि की रिमिशन भी जोड़ी जाए तो कुल 353 दिन की अतिरिक्त छूट बनती है, जिससे 20 वर्ष की पूरी अवधि पूरी हो जाती है।
राज्य ने कहा कि उस समय का “रिमिशन कार्ड” नष्ट कर दिया गया है क्योंकि बिहार जेल मैनुअल, 1927 के नियम 740(8) के अनुसार, किसी “रिहा कैदी” का रिमिशन कार्ड उसकी रिहाई के एक वर्ष बाद तक ही सुरक्षित रखा जाता है।
न्यायालय ने इस तर्क को अस्वीकार कर दिया। अदालत ने कहा कि जब व्यक्ति 2000 में जेल से बाहर आया था, वह “रिमिशन पर” नहीं बल्कि “उच्च न्यायालय द्वारा बरी किए जाने” के कारण रिहा हुआ था। इसलिए उस समय जेल प्रशासन को रिमिशन कार्ड नष्ट नहीं करना चाहिए था, खासकर जब मामला सुप्रीम कोर्ट में लंबित था।
न्यायालय ने यह भी पाया कि राज्य सरकार यह प्रमाण नहीं दे सकी कि रिमिशन कार्ड विधिवत तरीके से नष्ट किया गया था। अदालत ने कहा कि ऐसा अस्पष्ट जवाब न्यायसंगत नहीं है। कोई भी प्रशासनिक कमी या रिकॉर्ड का अभाव नागरिक के मौलिक अधिकार (Article 21) को प्रभावित नहीं कर सकता।
इसलिए अदालत ने आदेश दिया कि राज्य सरकार को 21 दिसंबर 1997 से 19 अगस्त 2000 तक की रिमिशन अवधि की गणना करनी होगी और याचिकाकर्ता द्वारा बताए गए 353 दिनों की अवधि को जोड़कर देखना होगा।
अदालत ने यह भी निर्देश दिया कि वर्ष 2019 और 2020 की विशेष रिमिशन (I.G. Prison द्वारा दी जाने वाली) तीन सप्ताह के भीतर दी जाए। पूरी गणना चार सप्ताह में पूरी कर याचिकाकर्ता का आवेदन छह सप्ताह में निर्णय किया जाए। यदि पात्रता पाई जाती है, तो कैदी को तुरंत रिहा किया जाए।
इस निर्णय ने यह सुनिश्चित किया कि किसी कैदी को केवल इस वजह से रिहाई से वंचित नहीं किया जा सकता कि प्रशासनिक रिकॉर्ड नष्ट हो गए या अनुपलब्ध हैं।
निर्णय का महत्व और इसका प्रभाव आम जनता या सरकार पर
यह फैसला आम जनता के लिए बेहद महत्वपूर्ण है क्योंकि यह “न्याय और प्रशासनिक जिम्मेदारी” दोनों के बीच संतुलन की मिसाल पेश करता है।
सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों ने बार-बार कहा है कि किसी भी व्यक्ति का “व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार” (Right to Life and Personal Liberty) संविधान के अनुच्छेद 21 द्वारा सुरक्षित है। इसलिए अगर किसी कैदी को नियमों के तहत छूट (रिमिशन) मिलनी चाहिए, तो उसे केवल इस वजह से नहीं रोका जा सकता कि दस्तावेज़ नहीं हैं।
इस फैसले ने सरकार और जेल प्रशासन को यह चेतावनी दी है कि उन्हें सभी कैदियों के रिमिशन रिकॉर्ड ठीक से संभालकर रखने चाहिए, खासकर तब जब मामला किसी ऊँची अदालत में लंबित हो।
न्यायालय ने यह भी स्पष्ट किया कि बिहार जेल मैनुअल का नियम 740(8) केवल सामान्य परिस्थितियों में लागू होता है — जब कोई कैदी रिमिशन पाकर रिहा होता है। लेकिन जब रिहाई बरी होने के कारण होती है, और मामला आगे अपील में लंबित है, तब रिकॉर्ड नष्ट करना अनुचित है।
यह निर्णय न केवल कैदियों के अधिकारों की रक्षा करता है बल्कि प्रशासनिक पारदर्शिता और जिम्मेदारी को भी मजबूत करता है।
कानूनी मुद्दे और निर्णय
- क्या रिमिशन कार्ड की अनुपलब्धता के आधार पर कैदी को रिमिशन का लाभ देने से मना किया जा सकता है?
निर्णय: नहीं। अदालत ने कहा कि राज्य का यह तर्क अन्यायपूर्ण है। जब कैदी की रिहाई बरी होने के कारण हुई थी और सुप्रीम कोर्ट में अपील लंबित थी, तब रिमिशन रिकॉर्ड को नष्ट नहीं किया जाना चाहिए था। राज्य सरकार यह साबित नहीं कर सकी कि रिकॉर्ड विधिवत नष्ट हुआ। इसलिए अदालत ने आदेश दिया कि 1997 से 2000 की अवधि की रिमिशन की गणना की जाए और याचिकाकर्ता द्वारा बताए गए 353 दिन जोड़े जाएं। - क्या राज्य सरकार को वर्ष 2019 और 2020 की विशेष रिमिशन देनी चाहिए?
निर्णय: हाँ। अदालत ने कहा कि विशेष रिमिशन तीन सप्ताह के भीतर दी जाए और इसमें देरी अनुचित है। - समय-सीमा संबंधी आदेश:
अदालत ने चार सप्ताह में रिमिशन की गणना, तीन सप्ताह में विशेष रिमिशन देने और छह सप्ताह में निर्णय पारित करने का निर्देश दिया। पात्रता मिलने पर कैदी को तुरंत रिहा किया जाए।
पार्टियों द्वारा संदर्भित निर्णय
- State of Haryana v. Jagdish (2010) 4 SCC – याचिकाकर्ता ने इस निर्णय का हवाला दिया, जिसमें कहा गया है कि रिमिशन नीति वही लागू होगी जो सजा सुनाए जाने की तारीख पर प्रभावी थी।
न्यायालय द्वारा उपयोग में लाए गए निर्णय
- कोई विशेष निर्णय उद्धृत नहीं किया गया; न्यायालय ने मुख्य रूप से बिहार जेल मैनुअल, 1927 के नियम 740 और संविधान के अनुच्छेद 21 की व्याख्या पर भरोसा किया।
मामले का शीर्षक
याचिकाकर्ता बनाम बिहार राज्य एवं अन्य
केस नंबर
Criminal Writ Jurisdiction Case No. 289 of 2020
उद्धरण (Citation)
2021(2) PLJR 688
न्यायमूर्ति गण का नाम
माननीय श्री न्यायमूर्ति राजीव रंजन प्रसाद
वकीलों के नाम और किनकी ओर से पेश हुए
- याचिकाकर्ता की ओर से: श्री मनीष कुमार नं. 2, अधिवक्ता
- राज्य की ओर से: श्री सरोज कुमार शर्मा, सहायक अधिवक्ता जनरल-3
निर्णय का लिंक
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