निर्णय की सरल व्याख्या
पटना उच्च न्यायालय ने एक महत्वपूर्ण फैसला देते हुए दो याचिकाएँ खारिज कर दीं, जो आपराधिक प्रक्रिया संहिता (CrPC) की धारा 482 के तहत दायर की गई थीं। इन याचिकाओं में वर्ष 2015 में लिए गए संज्ञान आदेश को रद्द करने की मांग की गई थी। मामला पटना जिले के बिहटा थाना क्षेत्र के सोन नदी के रेत घाट से जुड़ा था, जहाँ एक किशोर की रहस्यमय तरीके से मौत हो गई थी।
इस मामले में यह आरोप था कि किशोर घाट पर काम करता था और एक दिन अचानक गायब हो गया। पुलिस जांच में पाया गया कि वहाँ JCB मशीनों से रेत लोडिंग का काम चल रहा था। याचिकाकर्ताओं का कहना था कि लड़का गलती से JCB की बाल्टी की चपेट में आ गया और उसकी मौत हो गई। डर की वजह से मजदूरों ने शव को पास के किनारे फेंक दिया, जिसे बाद में बाढ़ के पानी ने बहा दिया होगा।
दूसरी ओर, पीड़ित के पिता (सूचक) का आरोप था कि उसके बेटे की हत्या की गई और सबूत मिटाने की कोशिश की गई। जब वह मौके पर पहुँचा तो देखा कि मशीनें बंद थीं, काम रुक गया था और वहाँ मौजूद लोग अजीब व्यवहार कर रहे थे। उसके बेटे का कोई पता नहीं था। इसी आधार पर उसने साजिश और हत्या का शक जताया।
जांच के दौरान दो JCB चालक गिरफ्तार हुए और उनके बयान लिए गए। पुलिस ने कुछ आरोपितों के खिलाफ धारा 304A, 287, 281 और 120B IPC के तहत आरोपपत्र दाखिल किया, लेकिन बाकी लोगों के खिलाफ जांच जारी रखी। बावजूद इसके, दानापुर के अतिरिक्त मुख्य न्यायिक दंडाधिकारी ने 7 अक्टूबर 2015 को सभी आरोपितों के खिलाफ धारा 302 और 201/34 IPC के तहत संज्ञान ले लिया।
याचिकाकर्ताओं ने इस आदेश को चुनौती देते हुए कहा कि—
- कुछ आरोपितों के खिलाफ पुलिस ने अभी जांच पूरी नहीं की थी, फिर भी न्यायालय ने उनके खिलाफ संज्ञान ले लिया।
- मजिस्ट्रेट ने ‘प्रोटेस्ट पिटीशन’ पर विचार नहीं किया, जिससे प्रक्रिया त्रुटिपूर्ण हुई।
उन्होंने अपने तर्क को मज़बूत करने के लिए सर्वोच्च न्यायालय के फैसले Abhinandan Jha v. Dinesh Mishra (AIR 1968 SC 117) का हवाला दिया, जिसमें कहा गया है कि अगर मजिस्ट्रेट पुलिस रिपोर्ट से असहमत है, तो उसे “शिकायत के रूप में” आगे बढ़ना चाहिए, न कि सीधे आरोपपत्र दाखिल करने का आदेश देना चाहिए।
सरकारी पक्ष और पीड़ित के वकील ने इसका विरोध किया। उनका कहना था कि मुकदमे की सुनवाई पहले ही शुरू हो चुकी है, आरोप तय हो चुके हैं और दो गवाहों की गवाही भी हो चुकी है। इसलिए अब संज्ञान आदेश को रद्द करना न्यायसंगत नहीं होगा। उन्होंने यह भी कहा कि केस डायरी में पर्याप्त साक्ष्य हैं, जिनसे हत्या और शव छिपाने की बात का संदेह बनता है।
न्यायालय ने रिकॉर्ड का परीक्षण करते हुए पाया कि—
- घटना स्थल पर मौजूद लोगों का आचरण संदिग्ध था।
- शव कभी बरामद नहीं हुआ।
- किसी ने घटना को प्रत्यक्ष नहीं देखा, चाहे वह दुर्घटना हो या हत्या।
इन परिस्थितियों को देखते हुए अदालत ने माना कि हत्या और सबूत मिटाने का शक स्वाभाविक है।
कानूनी दृष्टि से न्यायालय ने स्पष्ट किया कि CrPC की धारा 190 के अनुसार मजिस्ट्रेट किसी शिकायत, पुलिस रिपोर्ट, अन्य व्यक्ति की सूचना या स्वयं के ज्ञान के आधार पर संज्ञान ले सकता है। यदि प्रोटेस्ट पिटीशन के आधार पर कार्रवाई करनी हो, तो उसे “शिकायत मामले” की प्रक्रिया अपनानी होगी।
यहाँ कुछ आरोपितों के खिलाफ अभी पुलिस रिपोर्ट दाखिल नहीं हुई थी, फिर भी संज्ञान ले लिया गया। अदालत ने कहा कि यह “कानूनी रूप से उचित नहीं” था, परंतु यह केवल एक “अनियमितता” (irregularity) है, जो CrPC की धारा 460 के तहत सुधार योग्य है। चूँकि केस डायरी में पर्याप्त साक्ष्य मौजूद थे और मुकदमे की कार्यवाही पहले से शुरू हो चुकी थी, इसलिए इस तकनीकी गलती के आधार पर पूरा मामला रद्द नहीं किया जा सकता।
अंततः अदालत ने दोनों याचिकाएँ खारिज कर दीं और कहा कि मुकदमे की सुनवाई जारी रहेगी।
निर्णय का महत्व और इसका प्रभाव आम जनता या सरकार पर
- तकनीकी त्रुटियों से मुकदमा खत्म नहीं होता – अगर मजिस्ट्रेट ने कुछ आरोपितों के खिलाफ जांच पूरी होने से पहले ही संज्ञान ले लिया, तो यह एक सुधार योग्य गलती है, जब तक कि केस डायरी में पर्याप्त साक्ष्य हों और सुनवाई आगे बढ़ चुकी हो।
- मजिस्ट्रेट की शक्ति का दायरा स्पष्ट हुआ – न्यायालय ने बताया कि मजिस्ट्रेट कई स्रोतों से संज्ञान ले सकता है, लेकिन उसे सही प्रक्रिया का पालन करना जरूरी है।
- उच्च न्यायालय का विवेकाधिकार सीमित है – जब मुकदमा सुनवाई के अंतिम चरण में हो, आरोप तय हो चुके हों और गवाहों की गवाही शुरू हो चुकी हो, तो उच्च न्यायालय आमतौर पर हस्तक्षेप नहीं करता।
यह निर्णय पुलिस, मजिस्ट्रेट और अभियोजन पक्ष को यह संदेश देता है कि प्रक्रिया संबंधी गलतियाँ तब तक घातक नहीं होतीं जब तक वे न्याय के मूल तत्व को प्रभावित नहीं करतीं।
कानूनी मुद्दे और निर्णय
- क्या मजिस्ट्रेट द्वारा जांच अधूरी रहते संज्ञान लेना सही था?
✔ निर्णय: तकनीकी रूप से गलत था, पर यह एक “अनियमितता” थी, जो CrPC की धारा 460 के तहत सुधारी जा सकती है। - क्या परिस्थितिजन्य साक्ष्य हत्या के संदेह को उचित ठहराते हैं?
✔ निर्णय: हाँ। रेत घाट पर मशीनें बंद थीं, शव नहीं मिला और गवाहों के बयान विरोधाभासी थे, इसलिए हत्या और सबूत मिटाने का शक उचित था। - क्या मुकदमे की प्रगति के बाद उच्च न्यायालय को दखल देना चाहिए था?
✔ निर्णय: नहीं। जब ट्रायल में गवाहों की गवाही शुरू हो चुकी है, तो संज्ञान आदेश रद्द नहीं किया जाना चाहिए।
पार्टियों द्वारा संदर्भित निर्णय
- Abhinandan Jha & Ors. v. Dinesh Mishra, AIR 1968 SC 117
- Nahar Singh v. State of Uttar Pradesh & Anr., (2022) 5 SCC 295
- State of Gujarat v. Afroz Mohammed Hasanfatta, AIR 2019 SC 2499
- Bhushan Kumar & Anr. v. State (NCT of Delhi) & Anr., (2012) 5 SCC 424
न्यायालय द्वारा उपयोग में लाए गए निर्णय
- Abhinandan Jha (AIR 1968 SC 117) – केवल आंशिक रूप से लागू पाया गया।
- अन्य सुप्रीम कोर्ट के निर्णयों को केवल सामान्य सिद्धांतों के संदर्भ में उद्धृत किया गया।
मामले का शीर्षक
Criminal Miscellaneous Petitions under Section 482 CrPC: Ram Agya Singh @ Ram Adya Singh and Ors v. State of Bihar & Another
केस नंबर
Criminal Miscellaneous No. 53947 of 2015 (साथ में Criminal Miscellaneous No. 55695 of 2015)
उद्धरण (Citation)
2025 (1) PLJR 807
न्यायमूर्ति गण का नाम
माननीय न्यायमूर्ति शैलेन्द्र सिंह
वकीलों के नाम और किनकी ओर से पेश हुए
- याचिकाकर्ता की ओर से: श्री संजय कुमार, अधिवक्ता
- राज्य की ओर से: श्री बिनोद कुमार (APP) एवं श्री राम सुमिरन राय (APP)
- प्रतिवादी संख्या 2 की ओर से: वरिष्ठ अधिवक्ता श्री राजेन्द्र नारायण एवं श्री अनिल कुमार, अधिवक्ता
निर्णय का लिंक
NiM1Mzk0NyMyMDE1IzEjTg==-eVhpYNLGEks=
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