निर्णय की सरल व्याख्या
इस मामले में इनकम टैक्स विभाग ने पटना हाईकोर्ट में एक याचिका दायर कर इनकम टैक्स सैटलमेंट कमीशन (ITSC) द्वारा 2008 में दिए गए एक सैटलमेंट आदेश को रद्द करने की मांग की थी। विभाग का तर्क था कि आयोग ने आदेश में कहा था कि “रिकॉर्ड की जांच और मामले की जाँच करना व्यावहारिक नहीं है,” जो सैटलमेंट की वैधता पर सवाल खड़ा करता है।
मामला उन करदाताओं से जुड़ा था जिन्होंने 2000-01 से लेकर 2006-07 के आकलन वर्षों के लिए अपनी अतिरिक्त आय को खुद सामने लाकर सैटलमेंट कमीशन के समक्ष आवेदन दिया था। उन्होंने ₹97.79 लाख की अतिरिक्त आय घोषित की थी, जो उनके मूल रिटर्न में घोषित आय से करीब 100 गुना अधिक थी।
पटना हाईकोर्ट ने कहा कि सैटलमेंट कमीशन एक स्वायत्त और अनुभवी संस्था है जो टैक्स विवादों को जल्दी और निष्पक्ष रूप से सुलझाने के लिए बनाई गई है। आयोग में वरिष्ठ और ईमानदार अधिकारियों की नियुक्ति होती है। इसका उद्देश्य करदाता और सरकार दोनों के बीच निष्पक्ष समाधान देना होता है।
कोर्ट ने निम्नलिखित बिंदुओं पर ज़ोर दिया:
- विभाग ने कभी यह आरोप नहीं लगाया कि करदाताओं ने झूठे तथ्य दिए थे।
- आदेश पारित करते समय विभाग मौजूद था और उसने कोई आपत्ति नहीं जताई।
- विभाग ने उस सैटलमेंट के अनुसार धनराशि स्वीकार कर ली थी।
- याचिका 2009 में दायर की गई थी, जबकि सैटलमेंट आदेश 2008 में हुआ था। यानी एक साल से अधिक देरी से याचिका दायर की गई, जिससे मामले की वैधता और गंभीरता पर सवाल उठता है।
अतः कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि “जांच करना व्यावहारिक नहीं” जैसी एक पंक्ति को आधार बनाकर, पहले से स्वीकार की गई और पूर्ण हो चुकी सैटलमेंट को रद्द नहीं किया जा सकता। अगर विभाग की राय में बदलाव हुआ है, तो वह अकेले आधार नहीं हो सकता।
निर्णय का महत्व और इसका प्रभाव आम जनता या सरकार पर
यह फैसला स्पष्ट रूप से यह बताता है कि एक बार सैटलमेंट प्रक्रिया पूरी हो जाए और संबंधित पक्ष (जैसे आयकर विभाग) उसमें सहमति दे दे, तो उसे फिर से खोलना उचित नहीं होता।
यह करदाताओं के लिए एक राहत है कि अगर उन्होंने ईमानदारी से सैटलमेंट किया है और विभाग ने उसे स्वीकार कर लिया है, तो भविष्य में कोई नया अधिकारी आकर उस पर आपत्ति नहीं कर सकता।
सरकारी संस्थाओं के लिए यह एक चेतावनी है कि वे बार-बार फैसलों को चुनौती देकर अनावश्यक मुकदमेबाज़ी न करें, बल्कि निष्पक्षता और त्वरित न्याय को बढ़ावा दें।
कानूनी मुद्दे और निर्णय (बुलेट में)
- क्या एक सामान्य टिप्पणी के आधार पर इनकम टैक्स सैटलमेंट को रद्द किया जा सकता है?
- नहीं। आयोग की टिप्पणी केवल संदर्भात्मक थी और किसी कानूनी चूक का संकेत नहीं देती।
- क्या देरी से दायर याचिका सैटलमेंट को कमजोर करती है?
- हाँ। याचिका एक साल बाद दायर हुई, जिससे सैटलमेंट की वैधता को चुनौती देना उचित नहीं।
- क्या आयोग के विवेकाधिकार को कोर्ट चुनौती दे सकता है?
- नहीं, जब तक कि उसमें कोई स्पष्ट कानूनी त्रुटि या अन्याय न हुआ हो।
पार्टियों द्वारा संदर्भित निर्णय
- Ajmera Housing Corporation v. CIT, (2010) 8 SCC 739
- Union of India v. Star Television News Ltd., [2015] 373 ITR 528
- CIT v. Anil Hastkala (P) Ltd., (2010) 329 ITR 41
- CIT v. Hari Kishan Vijayvergia, (2011) 336 ITR 174
न्यायालय द्वारा उपयोग में लाए गए निर्णय
- Ritesh Tiwari v. State of U.P., (2010) 10 SCC 677
- Champalal Binani v. CIT, (1971) 3 SCC 20
- Chandra Singh v. State of Rajasthan, (2003) 6 SCC 545
- LIC v. Asha Goel, (2001) 2 SCC 160
- Punjab Roadways v. Punja Sahib Transport Co., (2010) 5 SCC 235
मामले का शीर्षक
Commissioner of Income Tax (Central) v. Income Tax Settlement Commission & Ors.
केस नंबर
Civil Writ Jurisdiction Case No. 10663 of 2009
उद्धरण (Citation)
2021(1)PLJR 162
न्यायमूर्ति गण का नाम
माननीय मुख्य न्यायाधीश संजय करोल
माननीय न्यायमूर्ति एस. कुमार
वकीलों के नाम और किनकी ओर से पेश हुए
- श्रीमती अर्चना सिन्हा – याचिकाकर्ता (राजस्व विभाग) की ओर से
- श्री अजय कुमार रस्तोगी – प्रतिवादी की ओर से
- श्री एस. डी. संजय, वरिष्ठ अधिवक्ता – प्रतिवादी की ओर से
निर्णय का लिंक
https://patnahighcourt.gov.in/viewjudgment/MTUjMTA2NjMjMjAwOSMxI04=-PBhvRJ1–am1–Qmk=
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