पटना उच्च न्यायालय का निर्णय: बिना प्रमाण के विभागीय सज़ा रद्द (2025)

पटना उच्च न्यायालय का निर्णय: बिना प्रमाण के विभागीय सज़ा रद्द (2025)

निर्णय की सरल व्याख्या

पटना उच्च न्यायालय ने भारतीय तेल निगम (एक सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनी) द्वारा दायर एक एल.पी.ए. (Letters Patent Appeal) को खारिज कर दिया। इस अपील में कंपनी ने उस एकल न्यायाधीश के आदेश को चुनौती दी थी, जिसमें कर्मचारी पर लगाई गई विभागीय सज़ा को रद्द कर दिया गया था। न्यायालय की खंडपीठ — माननीय मुख्य न्यायाधीश और माननीय न्यायमूर्ति पार्थ सारथी — ने यह माना कि विभागीय जांच में लगाए गए आरोप “किसी प्रमाण पर आधारित नहीं थे”, इसलिए उस पर दंड नहीं लगाया जा सकता। यह निर्णय 07 जनवरी 2025 को एल.पी.ए. सं. 495/2024 में सुनाया गया, जो सी.डब्ल्यू.जेे.सी. सं. 2607/2019 से संबंधित था।

मामला वर्ष 2009 का है, जब कंपनी के स्वर्ण जयंती समारोह में सेवानिवृत्त कर्मचारियों को गोल्ड मेडलियन देने का कार्यक्रम आयोजित हुआ। उस समय कर्मचारी कोलकाता क्षेत्रीय कार्यालय में पदस्थ थे और “काउंटर नंबर 2” पर दो अन्य कर्मचारियों के साथ वितरण कार्य में शामिल थे। कई वर्षों बाद, नवंबर 2013 में कंपनी ने एक चार्जशीट जारी की, जिसमें तीन आरोप लगाए गए—

  1. काउंटर से निकले और लौटाए गए मेडलियनों का रिकॉर्ड न रखना,
  2. दो अन्य कर्मचारियों की ठीक से निगरानी न करना, और
  3. 250 ग्राम सोने के मेडलियनों (लगभग ₹4.56 लाख मूल्य) की गुमशुदगी में योगदान देना।

विभागीय जांच में कंपनी ने सात गवाह और बारह दस्तावेज़ प्रस्तुत किए, जबकि कर्मचारी ने एक गवाह और सात दस्तावेज़ दिए। जांच अधिकारी की रिपोर्ट (24.12.2015) में केवल एक पहलू को “आंशिक रूप से सिद्ध” कहा गया — कि वरिष्ठ कर्मचारी होने के नाते उसने अपने साथियों को रिकॉर्ड तैयार करने के लिए प्रेरित करना चाहिए था। लेकिन बाकी दो आरोप — निगरानी में चूक और गुमशुदगी में भूमिका — “सिद्ध नहीं” पाए गए। रिपोर्ट में यह भी माना गया कि वितरण कार्यक्रम के लिए कोई स्पष्ट दिशा-निर्देश या प्रणाली कंपनी की ओर से जारी नहीं की गई थी।

इसके बावजूद, अनुशासनिक प्राधिकारी ने 31 जनवरी 2017 को ₹50,000 का जुर्माना लगाया। अपीलीय प्राधिकारी ने 20 जुलाई 2017 को और समीक्षा प्राधिकारी ने 21 सितंबर 2017 को इस दंड की पुष्टि की। कर्मचारी ने इसे पटना उच्च न्यायालय में चुनौती दी, जहाँ एकल न्यायाधीश ने 15 अप्रैल 2024 को दंड को निरस्त कर दिया। इसके विरुद्ध कंपनी ने एल.पी.ए. दाख़िल किया।

अपील में कंपनी की ओर से यह तर्क दिया गया कि कर्मचारी ने लापरवाही की, काउंटर छोड़ दिया और रिकॉर्ड नहीं बनाया। उन्होंने सर्वोच्च न्यायालय के दो निर्णयों — B.C. Chaturvedi बनाम भारत संघ (1995) 6 SCC 749 और Union of India बनाम P. Gunasekaran (2015) 2 SCC 610 — का हवाला देते हुए कहा कि उच्च न्यायालय को विभागीय जांच में सबूतों की पुनः जांच नहीं करनी चाहिए।

खंडपीठ ने पूरे जांच रिकॉर्ड की समीक्षा की और पाया कि काउंटर नंबर 2 पर कार्यरत दोनों अन्य कर्मचारियों से कंपनी ने कोई पूछताछ ही नहीं की, जबकि एक कर्मचारी के पास तिजोरी की चाबी थी और वह स्वतंत्र रूप से उसे खोल सकता था। इससे यह स्पष्ट हुआ कि बिना आवश्यक गवाहों के किसी को “निगरानी की कमी” या “गोल्ड की गुमशुदगी में सहयोग” का दोषी नहीं ठहराया जा सकता।

जांच अधिकारी ने भी माना कि ऐसा कोई दस्तावेज़ नहीं है जिससे यह साबित हो कि संबंधित कर्मचारी उस काउंटर का “इंचार्ज” था। साथ ही, कार्यक्रम के संचालन के लिए कोई लिखित प्रक्रिया या पूर्व ब्रीफिंग भी नहीं दी गई थी। इस प्रकार, यह पूरा मामला “नो एविडेंस केस” (किसी प्रमाण के बिना) साबित हुआ।

खंडपीठ ने यह भी कहा कि जहाँ किसी आरोप को “सिद्ध नहीं” माना गया हो, वहाँ केवल यह कहना कि “कर्मचारी को प्रेरित करना चाहिए था” — अपने आप में दंड का आधार नहीं बन सकता। खासकर तब, जब संस्था ने खुद कोई व्यवस्था या स्पष्ट दिशा-निर्देश ही जारी नहीं किए हों।

कानूनी दृष्टि से न्यायालय ने यह दोहराया कि उच्च न्यायालय सामान्यतः विभागीय मामलों में साक्ष्यों का पुनर्मूल्यांकन नहीं करता, लेकिन जब निष्कर्ष किसी प्रमाण पर आधारित न हो, तब न्यायिक हस्तक्षेप उचित होता है। न्यायालय ने अपने ही पूर्व निर्णय राज्य बनाम विकास कुमार @ विकस कुमार (LPA No. 446/2024) और सर्वोच्च न्यायालय के P. Gunasekaran निर्णय का उल्लेख किया, जिसमें “नो एविडेंस” वाले मामलों में दख़ल की अनुमति दी गई है।

अंततः, खंडपीठ ने कहा कि एकल न्यायाधीश का आदेश सही था और अपील में कोई वैधानिक आधार नहीं है। इसलिए एल.पी.ए. खारिज कर दी गई।

निर्णय का महत्व और इसका प्रभाव

यह निर्णय सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों (PSUs) और सरकारी विभागों के लिए एक महत्वपूर्ण मार्गदर्शक है। न्यायालय ने स्पष्ट कर दिया कि किसी कर्मचारी पर दंड लगाने के लिए स्पष्ट और ठोस प्रमाण होना आवश्यक है। केवल अनुमान या पद की वरिष्ठता के आधार पर दंड नहीं दिया जा सकता।

यदि विभाग अपने कर्मचारियों को उचित दिशा-निर्देश नहीं देता या किसी घटना के संचालन की स्पष्ट प्रक्रिया नहीं बनाता, तो उसके बाद कर्मचारियों पर दोष मढ़ना उचित नहीं है। इस प्रकार के निर्णय यह सुनिश्चित करते हैं कि विभागीय अनुशासनिक कार्रवाई निष्पक्ष हो और किसी व्यक्ति के साथ अन्याय न हो।

कर्मचारियों के लिए यह फैसला राहत देने वाला है। न्यायालय ने यह संदेश दिया कि जब तक किसी व्यक्ति की भूमिका प्रमाणित न हो, केवल “आप वरिष्ठ थे, इसलिए आपको देखना चाहिए था” कहना पर्याप्त नहीं है। यह भी एक उदाहरण है कि यदि किसी संगठन में स्वयं प्रणालीगत कमी है, तो उसके परिणामों के लिए व्यक्तिगत कर्मचारी को उत्तरदायी नहीं ठहराया जा सकता।

कानूनी मुद्दे और निर्णय

  • क्या उच्च न्यायालय विभागीय मामलों में हस्तक्षेप कर सकता है?
    ✔ हाँ, जब विभागीय निष्कर्ष किसी प्रमाण पर आधारित न हों (“नो एविडेंस केस”)।
  • क्या दंड उचित था जब आवश्यक गवाहों से पूछताछ नहीं हुई और कर्मचारी की भूमिका साबित नहीं हुई?
    ❌ नहीं। बिना गवाहों के और बिना यह साबित किए कि वह सुपरवाइज़र था, दंड टिक नहीं सकता।
  • क्या संगठन की अपनी लापरवाही (SOP या दिशा-निर्देश न होना) कर्मचारी पर दोष डाल सकती है?
    ❌ नहीं। जब कंपनी ने प्रक्रिया ही तय नहीं की थी, तो कर्मचारी से उसकी अपेक्षा नहीं की जा सकती।
  • विभागीय जांच में प्रमाण का स्तर क्या होना चाहिए?
    ✔ केवल “संभाव्यता के आधार पर” नहीं, बल्कि कुछ ठोस सबूत भी होने चाहिए।
  • अपील का परिणाम:
    अपील खारिज; एकल न्यायाधीश का आदेश बरकरार; ₹50,000 का दंड रद्द।

पार्टियों द्वारा संदर्भित निर्णय

  • B.C. Chaturvedi बनाम भारत संघ, (1995) 6 SCC 749
  • Union of India बनाम P. Gunasekaran, (2015) 2 SCC 610

न्यायालय द्वारा उपयोग में लाए गए निर्णय

  • Union of India बनाम P. Gunasekaran, (2015) 2 SCC 610
  • Union of India बनाम Mohd. Ramzan Khan, (1991) 1 SCC 588
  • ECIL बनाम B. Karunakar, (1993) 4 SCC 727
  • राज्य बनाम विकास कुमार @ विकस कुमार, LPA No. 446/2024 (पटना उच्च न्यायालय)

मामले का शीर्षक

Indian Oil Corporation Limited & Ors. v. Smt. Veena Kumari

केस नंबर

LPA No. 495 of 2024; arising out of CWJC No. 2607 of 2019

न्यायमूर्ति गण का नाम

माननीय मुख्य न्यायाधीश; माननीय न्यायमूर्ति पार्थ सारथी

वकीलों के नाम और किनकी ओर से पेश हुए

  • डॉ. के. एन. सिंह, वरिष्ठ अधिवक्ता, एवं श्री अंकित कटियार, अधिवक्ता — अपीलकर्ता (नियोक्ता) की ओर से
  • प्रतिवादी की ओर से वकील का नाम रिकॉर्ड में नहीं है

निर्णय का लिंक

MyM0OTUjMjAyNCMxI04=-WNdSFJFSqSw=

“यदि आपको यह जानकारी उपयोगी लगी और आप बिहार में कानूनी बदलावों से जुड़े रहना चाहते हैं, तो Samvida Law Associates को फॉलो कर सकते हैं।”

Samridhi Priya

Samriddhi Priya is a third-year B.B.A., LL.B. (Hons.) student at Chanakya National Law University (CNLU), Patna. A passionate and articulate legal writer, she brings academic excellence and active courtroom exposure into her writing. Samriddhi has interned with leading law firms in Patna and assisted in matters involving bail petitions, FIR translations, and legal notices. She has participated and excelled in national-level moot court competitions and actively engages in research workshops and awareness programs on legal and social issues. At Samvida Law Associates, she focuses on breaking down legal judgments and public policies into accessible insights for readers across Bihar and beyond.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Recent News