निर्णय की सरल व्याख्या
पटना हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में उस याचिका को खारिज कर दिया जिसमें एक पोस्टमास्टर ने अपने खिलाफ दर्ज आपराधिक मुकदमे को रद्द करने की गुहार लगाई थी। यह मामला मनरेगा मजदूरी की कथित हेराफेरी से जुड़ा है, जिसमें पोस्ट ऑफिस के एक पोस्टमास्टर पर ₹5000 गबन और जालसाजी का आरोप है।
यह याचिका भारतीय दंड संहिता की धारा 409 (लोक सेवक द्वारा आपराधिक विश्वासघात) और 420 (धोखाधड़ी) के तहत दर्ज एफआईआर के आधार पर दायर की गई थी। याचिकाकर्ता ने दावा किया कि पैसा संबंधित व्यक्ति ने खुद निकाला था, और उसके समर्थन में उसने दिनांक 14.09.2009, 08.09.2009 और 22.08.2009 के निकासी फॉर्म प्रस्तुत किए।
उसने यह भी तर्क दिया कि उसने डाकघर के सभी नियमों का पालन किया और क्योंकि वह सरकारी पद पर था, इसलिए मुकदमा शुरू करने से पहले धारा 197 सीआरपीसी के तहत पूर्व अनुमति (सैंक्षन) आवश्यक थी।
हाईकोर्ट ने इन तर्कों को खारिज कर दिया। न्यायालय ने कहा कि—
- याचिकाकर्ता उस समय पोस्टमास्टर के पद पर था जब यह भुगतान किया जाना था।
- निकासी फॉर्म पर हस्ताक्षर और प्राथमिकी में दर्ज हस्ताक्षर में स्पष्ट अंतर है।
- कई अन्य गवाहों ने भी जांच में सामने आकर बताया कि उनके साथ भी ऐसी धोखाधड़ी हुई थी।
कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि सिर्फ सरकारी कर्मचारी होना अभियोजन से बचने का आधार नहीं हो सकता। धारा 197 सीआरपीसी के तहत सुरक्षा तभी मिल सकती है जब कथित कार्य का सरकारी कर्तव्य से सीधा और तार्किक संबंध हो।
कोर्ट ने सुप्रीम कोर्ट के दो निर्णयों का हवाला दिया— पी.के. प्रधान बनाम सिक्किम राज्य और देवेंद्र सिंह बनाम पंजाब राज्य (CBI के माध्यम से)—जिनमें स्पष्ट किया गया कि यदि अपराध और सरकारी कार्य के बीच कोई तर्कसंगत संबंध नहीं है, तो पूर्व अनुमति की जरूरत नहीं होती।
अतः कोर्ट ने पाया कि प्रथम दृष्टया अभियोजन का पक्ष मजबूत है और ट्रायल कोर्ट द्वारा आरोप तय करने का आदेश सही है। इसलिए याचिका खारिज कर दी गई और मुकदमा जारी रहेगा।
निर्णय का महत्व और इसका प्रभाव आम जनता या सरकार पर
यह फैसला सरकारी पदों पर कार्यरत व्यक्तियों के लिए एक स्पष्ट संदेश है कि यदि वे जनता की योजनाओं जैसे मनरेगा में भ्रष्टाचार करेंगे, तो उन्हें अभियोजन से छूट नहीं मिलेगी। सरकारी कर्तव्य की आड़ में किया गया कोई भी आपराधिक कार्य न्यायिक जांच से नहीं बच सकता।
इस निर्णय से आम नागरिकों को यह भरोसा मिलता है कि सरकारी तंत्र में हुई गड़बड़ी की शिकायतों को गंभीरता से लिया जाएगा और जिम्मेदारों पर कानूनन कार्रवाई की जाएगी।
कानूनी मुद्दे और निर्णय (बुलेट में)
- क्या ट्रायल कोर्ट द्वारा दर्ज धाराओं में संज्ञान लेना सही था?
✔️ हां, प्रथम दृष्टया पर्याप्त साक्ष्य थे। - क्या धारा 197 सीआरपीसी के तहत पूर्व अनुमति अनिवार्य थी?
❌ नहीं, क्योंकि अपराध और सरकारी कार्य में कोई तर्कसंगत संबंध नहीं दिखता। - क्या निकासी फॉर्म वास्तविक थे?
❓ यह ट्रायल में सबूत के आधार पर तय होगा।
न्यायालय द्वारा उपयोग में लाए गए निर्णय
- P.K. Pradhan v. State of Sikkim, (2001) 6 SCC 704
- Devinder Singh v. State of Punjab, (2016) 12 SCC 87
मामले का शीर्षक
Rameshwar Ojha @ Shiv Raman Ojha बनाम बिहार राज्य
केस नंबर
Criminal Miscellaneous No. 45840 of 2016
उद्धरण (Citation)– 2025 (1) PLJR 100
न्यायमूर्ति गण का नाम
माननीय श्री न्यायमूर्ति शैलेन्द्र सिंह
वकीलों के नाम और किनकी ओर से पेश हुए
- श्री गोपाल गोविंद मिश्रा, याचिकाकर्ता की ओर से
- श्री पंचानंद पांडे, APP, राज्य की ओर से
निर्णय का लिंक
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