"अनुशासनात्मक प्रक्रिया में त्रुटियाँ: चीनी गबन के आरोप में बर्खास्त कर्मचारी को पटना हाईकोर्ट से आंशिक राहत, जांच फिर से होगी"

“अनुशासनात्मक प्रक्रिया में त्रुटियाँ: चीनी गबन के आरोप में बर्खास्त कर्मचारी को पटना हाईकोर्ट से आंशिक राहत, जांच फिर से होगी”

 

भूमिका

यह मामला बिहार राज्य खाद्य एवं नागरिक आपूर्ति निगम (Bihar State Food and Civil Supplies Corporation Ltd) के एक पूर्व कर्मचारी रवि किशोर सहाय से जुड़ा है, जिन्हें वर्ष 2004 में सेवा से बर्खास्त कर दिया गया था। आरोप था कि उन्होंने लगभग ₹10.75 लाख की चीनी का गबन किया था। इस अनुशासनात्मक कार्रवाई को पटना हाईकोर्ट की एकल पीठ ने तकनीकी आधारों पर रद्द कर दिया था। निगम ने इस निर्णय को चुनौती देते हुए लेटर्स पेटेंट अपील (LPA) दायर की, जिस पर पटना हाईकोर्ट की खंडपीठ ने 3 जनवरी 2024 को अपना फैसला सुनाया।


मामले की पृष्ठभूमि

  • आरोप: रवि किशोर सहाय पर 2000 में ₹10.75 लाख मूल्य की चीनी का गबन करने का आरोप लगा।

  • पहला दंड: इससे पहले भी 1997 में ऐसे ही आरोपों में ₹12.91 लाख की वसूली कर उन्हें दंडित किया गया था।

  • सेवा से बर्खास्तगी: दूसरी बार 2000 के आरोपों पर 2004 में उन्हें सेवा से बर्खास्त कर दिया गया।

  • हाईकोर्ट की एकल पीठ: 2018 में दिए गए निर्णय में अदालत ने कहा कि विभागीय जांच में कोई ठोस साक्ष्य नहीं था, और इसे “नो एविडेंस केस” माना गया।

  • खंडपीठ में अपील: निगम ने एकल पीठ के फैसले को LPA 66/2020 के तहत चुनौती दी।


प्रमुख कानूनी प्रश्न

  1. क्या कर्मचारी को एक ही अपराध के लिए दो बार दंडित किया जा सकता है?

    • सहाय का तर्क था कि 1997 और 2000 के मामले एक जैसे हैं, इसलिए यह संविधान के अनुच्छेद 20 का उल्लंघन है।

    • कोर्ट ने स्पष्ट किया कि दोनों मामलों की समय-सीमा अलग है, इसलिए यह दो अलग-अलग घटनाएं हैं।

  2. क्या अनुशासनात्मक प्रक्रिया में तकनीकी त्रुटियों के कारण दंड आदेश को रद्द करना उचित है?

    • एकल पीठ ने तकनीकी आधार (साक्ष्य की कमी, पक्षपाती रिपोर्ट आदि) पर दंड आदेश को रद्द किया था।

    • खंडपीठ ने माना कि चूंकि आरोप गंभीर प्रकृति के हैं (₹10.75 लाख का गबन), इसलिए मामले को उचित जांच के लिए वापस भेजना चाहिए।


खंडपीठ का विश्लेषण

खंडपीठ (न्यायमूर्ति पी.बी. बजंथरी एवं न्यायमूर्ति रमेश चंद्र मालवीय) ने कहा:

  • आरोप गंभीर हैं और यदि इन्हें केवल तकनीकी आधार पर खारिज कर दिया जाए, तो न्याय का नुकसान होगा।

  • सुप्रीम कोर्ट के ECIL बनाम करुणाकर [(1993) 4 SCC 727] और Coal India बनाम अनंता साहा [(2011) 5 SCC 142] जैसे मामलों में यह सिद्धांत स्थापित किया गया है कि तकनीकी त्रुटियों की स्थिति में जांच को फिर से किया जा सकता है।

  • इसलिए, इस मामले को अनुशासनिक प्राधिकारी को वापस भेजा जाता है, जिससे वह छह माह के भीतर पुनः जांच पूरी करें।


महत्वपूर्ण निर्देश

  1. पुनः जांच: अनुशासनिक प्राधिकारी को निर्देश दिया गया है कि वे 6 माह के भीतर जांच प्रक्रिया पूरी करें।

  2. सहयोग अनिवार्य: कर्मचारी को जांच में पूरा सहयोग करना होगा। असहयोग की स्थिति में जांच एकतरफा (ex parte) रूप से की जा सकती है।

  3. दंडित न किए जाने की स्थिति: यदि 6 माह में जांच पूरी नहीं होती, तो कर्मचारी को ₹1 लाख का हर्जाना देने का आदेश दिया गया है।

  4. पुनः बहाली की स्थिति में: यदि जांच के दौरान कर्मचारी को बहाल किया जाता है, तो सुप्रीम कोर्ट के फैसलों के अनुसार उसे निलंबन भत्ता मिलेगा, लेकिन पिछली तनख्वाह (बैक वेजेस) अनिवार्य नहीं मानी जाएगी।


निष्कर्ष

यह निर्णय दर्शाता है कि न्याय केवल तकनीकीता पर आधारित नहीं हो सकता, विशेषकर जब आरोप आर्थिक अनियमितताओं जैसे गंभीर हों। कोर्ट ने कर्मचारी को पूरी प्रक्रिया में न्याय दिलाने के लिए पुनः जांच का अवसर दिया, लेकिन साथ ही अनुशासनिक प्राधिकारी को समय-सीमा के भीतर निष्कर्ष पर पहुंचने का निर्देश भी दिया।

यह मामला उन कर्मचारियों के लिए महत्वपूर्ण है जिनपर वित्तीय अनियमितताओं के आरोप हों, साथ ही उन संस्थाओं के लिए भी जो अनुशासनात्मक कार्रवाई करते समय प्रक्रिया की शुद्धता बनाए रखने के लिए बाध्य हैं।

पूरा फैसला
पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें:
 

https://patnahighcourt.gov.in/viewjudgment/MyM2NiMyMDIwIzEjTg==-6Ia37L1Gp40=

 

 

 

Abhishek Kumar

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Recent News